संविधान ने जनता को राजा बनाया पर नेताओं ने सत्ता पर कब्जा कर लिया

The Constitution made the people king, the leaders occupied power
राकेश सैन । Jan 18 2018 12:58PM

वैसे वंशवाद से आज दुनिया का कोई भी लोकतांत्रिक देश अछूता नहीं है। स्वतंत्रता के बाद से ही भारत की राजनीति में खास परिवार से जुड़ा होना भी योग्यता का एक बड़ा मानदंड बन चुका है।

26 जनवरी, 1950 को भारत को गणतंत्र राष्ट्र घोषित किया गया, जिसका आधार बाबा साहिब भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता में लिखा गया वह संविधान बना जिसमें व्यस्क मताधिकार से अपने देश का राजा चुनने का अधिकार सभी नागरिकों को मिला। इस पर बोलते हुए अंबेडकर ने कहा था- मैंने रानियों की नसबंदी कर दी है और भविष्य के राजा मतपेटियों से निकला करेंगे। सारांश कि बाबा साहिब या देश के नीति निर्धारक चाहते थे कि देश का नेतृत्व लोकप्रियता, क्षमता, योग्यता जैसे अन्य जनतांत्रिक गुणों की कसौटी पर खरा उतरने वाला हो। लेकिन उस समय अनुमान भी नहीं लगाया गया होगा कि एक समय देश में 'गणतंत्र' के समक्ष 'गौत्रतंत्र' चुनौती बन कर उभरेगा और कुछ खानदान व नेता पार्टी तंत्र पर कब्जा कर फिर शासन करने के पुश्तैनी अधिकार से लैस हो जाएंगे।

वैसे वंशवाद से आज दुनिया का कोई भी लोकतांत्रिक देश अछूता नहीं है। स्वतंत्रता के बाद से ही भारत की राजनीति में खास परिवार से जुड़ा होना भी योग्यता का एक बड़ा मानदंड बन चुका है। जब राहुल गांधी कांग्रेस के उपाध्यक्ष रहते हुए अमेरिका की यात्रा पर गए तो कोलंबिया के बर्कले विश्वविद्यालय में किसी ने उनसे एक सवाल पूछा था परिवारवाद के संदर्भ में। उन्होंने अपने उत्तर में कहा कि हिन्दुस्तान में तो परिवारवाद ही चलता है। इसके लिए उन्होंने अमिताभ बच्चन, कपूर व अंबानी खानदान और भी न जाने कई नाम गिनवा दिए। उनकी यह बात सत्य भी साबित हुई और कमोबेश इसी गुण के चलते वे कांग्रेस के अध्यक्ष भी बन गए। लगता है कि भले ही हमने संविधान से राजशाही को समाप्त कर दिया हो, पर देश के सभी दलों में परिवारशाही के रंग दिखाई दे रहे हैं, अंतर इतना है कि कहीं रंग गहरा है, कहीं फीका। पर हकीकत यह है कि जनतांत्रिक भारत की राजनीति परिवारवाद के ग्रहण से लगातार ग्रस्त होती जा रही है। कांग्रेस पचास-साठ साल तक देश पर शासन करती रही है, इसलिए उसका परिवारवाद ज्यादा गहरा और फैला हुआ दिखता है, लेकिन हकीकत यह है कि भाजपा, सपा, शिवसेना, डीएमके, अकाली दल, नेशनल कान्फ्रेंस, पीडीपी सहित अन्य दल भी इसके उदाहरण बनते जा रहे हैं। आज देश में स्थिति यह है कि लगभग सभी राज्यों और सभी दलों में बहुत से चुनाव क्षेत्रों पर कुछ परिवारों का कब्जा है। वे उन्हें अपनी मल्कियत लगने लगे हैं। पिता के बाद बेटा या बेटी या पत्नी या बहन के नाम कर दी जाती है चुनाव क्षेत्र की जागीर।

पंच को परमेश्वर मानने वाले भारतीय शायद आज भूल गये हैं कि, समाज में गण की शक्ति सत्य सनातन है। भारतीय समाज ने अपने जीवन के सर्वोदय में 'सर्वे भवंतु सुखिन: व सरबत्त दा भला' के सिद्धांत का गणतंत्रीय संविधान में साक्षात्कार किया था। जब कभी एक व्यक्ति के ध्वज-दंड के चारों ओर देश की आत्मा को बाँधने का प्रबंध हुआ, अंत में असफलता ही मिली। भारत की जीवन-प्रवृत्ति, उसकी प्रकृति तो विकेंद्रीकरण में थी, जिसका विकास गणराज्य के संघ में हुआ। कहीं न कहीं यह गणतंत्र पद्धति संसार को भारत की देन है। अथर्ववेद तृतीय कांड, सूक्त 4, श्लोक 2 का आदेश है- 'हे राजन्! तुझको राज्य के लिए सभी प्रजाजन चुनें तथा स्वीकारें। चुने हुए व्यक्ति को वेदों ने राजा कहा। इसके विस्मरण से समाज में, देश में विकृतियाँ उत्पन्न हुईं। मध्यकालीन गणराज्यों के रूप में शिवाजी के साम्राज्य का जिक्र करते हुए डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल ने अपनी पुस्तक 'हिंदू राज्यतंत्र' में करते हुए लिखा, शिवाजी ने अतीत की ओर देखा व संविधान बनाया। तंत्र खड़ा किया, उस पर जो उन्हें उपलब्ध था, उनका नाता अतीत से जोड़ा। उन्होंने महाभारत व शुक्रनीति से प्रेरणा ली। पाया कि एक राजा को जन-हृदय का राज्य चाहिए, शासन नहीं। अपनी पुस्तक के उपसंहार में उन्होंने लिखा, किसी भी राजतंत्र की कसौटी उसके जीवंत होने व विकसित हो सकने में है। हिंदू समाज ने जैसी संवैधानिक उन्नति की, उसे प्राचीन काल का कोई राज्यतंत्र न छू सका। जब समर्थ गुरु रामदास ने गर्जना की कि 'नरदेह हा स्वाधीन, सहसा न ह्वे पराधीन' अर्थात् मानव स्वतंत्र है और जोर-जबरदस्ती से उसे पराधीन नहीं किया जा सकता तब सभी वर्णों ने एकजुट होकर एक गणराज्य की नींव डालने के प्रयत्न को स्वीकार किया। इसी से शिवाजी के नेतृत्व में हिंदवी साम्राज्य अस्तित्व में आया जिसका सम्राट खुद को जनता का प्रतिनिधि मान कर उसकी सेवा के लिए छत्र धारण करता था।

देश में गणतंत्र का इतिहास इससे भी प्राचीन माना जाता है। जनतांत्रिक पहचान वाले गण तथा संघ जैसे स्वतंत्र शब्द भारत में आज से लगभग पांच हजार वर्ष पहले ही प्रयोग होने लगे थे। महाभारत के शांतिपर्व में राज्यकार्य के निष्पादन के लिए बहुत से प्रजाजनों की भागीदारी का उल्लेख मिलता है, जो उस समय समाज में गणतंत्र के प्रति बढ़ते आकर्षण का संकेत देता है— 'गणप्रमुख का सम्मान किया जाना चाहिए, इसलिए कि दुनियादारी के बहुत से कार्यों के लिए शेष समूह उसी के ऊपर निर्भर करता है। संघ-प्रमुखों को चाहिए कि आवश्यक गोपनीयता की रक्षा करते हुए सदस्यों के सुख-समृद्धि के लिए सभी के साथ मिलकर, दायित्व भावना के साथ कार्य करें, अन्यथा समूह का धन-वैभव नष्ट होते देर नहीं लगेगी। सिकंदर के भारत अभियान को इतिहास में रूप में प्रस्तुत करने वाले डायडोरस सिक्युलस तथा कारसीयस रुफस ने भारत के सोमबस्ती नामक स्थान का उल्लेख करते हुए लिखा है कि वहां पर शासन की 'गणतांत्रिक प्रणाली थी, न कि राजशाही।' ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के दौरान गणतंत्र भारत में लोक प्रचलित शासन प्रणाली थी। डायडोरस सिक्युलस ने अपने ग्रंथ में भारत के उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में अनेक गणतंत्रों की मौजूदगी का उल्लेख किया है।

गणपति शब्द का प्रयोग वैदिक साहित्य में अनेक स्थानों पर हुआ है, जिसका एक अर्थ 'गण' अर्थात नागरिक भी है। इस तरह गणपति यानी नागरिकों द्वारा परस्पर सहमति के आधार पर चुने गए प्रशासक से है। भारतीय परंपरा में गणपति को सभी देवताओं में अग्रणी, सर्वप्रथम पूज्य माना गया है। इस बात की प्रबल संभावना है कि इस शब्द की व्युत्पत्ति गणतांत्रिक राज्य में हुई हो। गणतंत्र की अवधारणा कहीं न कहीं वेदों की देन है। ऋग्वेद में सभा और समिति का जिक्र मिलता है जिसमें राजा, मंत्री और विद्वानों से विचार-विमर्श करने के बाद ही कोई फैसला लेता था। वैदिक काल में इंद्र का चयन भी इसी आधार पर होता था। इंद्र नाम का एक पद था जिसे राजाओं का राजा कहा जाता था।

कौटिल्य अपने अर्थशास्त्र में लिखते हैं कि गणराज्य दो तरह के होते हैं, पहला अयुध्य गणराज्य अर्थात ऐसा गणराज्य जिसमें केवल राजा ही फैसले लेते हैं, दूसरा है श्रेणी गणराज्य जिसमें हर कोई भाग ले सकता है। कौटिल्य के पहले पाणिनी ने कुछ गणराज्यों का वर्णन अपने व्याकरण में किया है। पाणिनी की अष्ठाध्यायी में जनपद शब्द का उल्लेख अनेक स्थानों पर किया गया है, जिनकी शासन व्यवस्था जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथों में रहती थी। गणतंत्र हमारी एतिहासिक धरोहर भी है और देश का भविष्य भी। भारत विविधता में एकता वाला देश है जिसमें एक ही मत, वाद, विचारधारा, व्यक्ति, परिवार, दल देश का समुचित प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। मुगलों व अन्य कई विदेशी आक्रांताओं ने एकलवाद को देश पर थोपने का प्रयास किया परंतु वे असफल रहे और आज उनका नामलेवा भी नहीं बचा। संविधान निर्माताओं ने इन्हीं तथ्यों को सम्मुख रख कर देश में 'गणतांत्रिक' व्यवस्था लागू की जिसे आज 'गौत्रतांत्रिक' बीमारी लीलने को व्याकुल दिख रही है। देश की वर्तमान पीढ़ी को इस खतरे से निपटना होगा।

- राकेश सैन

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