आज लाल किला निजी कंपनी को दिया है कल को ये कुछ और भी सौंप देंगे

Today Red Fort has given to the private company, it will hand over some more tomorrow
कमलेश पांडे । Apr 30 2018 1:44PM

जिस ऐतिहासिक राष्ट्रीय धरोहर लाल किले की स्मृतियां प्रति वर्ष 15 अगस्त को आयोजित होने वाले राष्ट्रीय पर्व स्वतंत्रता दिवस समारोह से जुड़ी हुई हों, उसके रखरखाव की जिम्मेदारी से यदि केंद्र सरकार अपना पल्ला झाड़े तो यह राष्ट्रीय चिंता की बात है ही।

जिस ऐतिहासिक राष्ट्रीय धरोहर लाल किले की स्मृतियां प्रति वर्ष 15 अगस्त को आयोजित होने वाले राष्ट्रीय पर्व स्वतंत्रता दिवस समारोह से जुड़ी हुई हों, उसके रखरखाव की जिम्मेदारी से यदि केंद्र सरकार अपना पल्ला झाड़े तो यह राष्ट्रीय चिंता की बात है ही। यही वजह है कि जब केंद्र सरकार ने 'एडॉप्ट ए हेरिटेज' योजना के तहत लाल किले को उसके रखरखाव और पुनर्विकास के लिए डालमिया भारत समूह को एक पंचवर्षीय अनुबंध के तहत मात्र 25 करोड़ रुपए में सौंप दिया तो उसकी प्रकृति और राशि को लेकर सोशल मीडिया पर बहस छिड़ गई। 

ऐसा इसलिए कि लाल किला राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली स्थित एक सुप्रसिद्ध राष्ट्रीय पर्यटक स्थल है जो विश्व पुरातात्विक विरासत स्थल की सूची में भी शामिल है। एक आकलन के मुताबिक, लाखों देशी-विदेशी पर्यटक यहां प्रतिवर्ष आते हैं जिससे इसकी वार्षिक आय तकरीबन छह करोड़ रुपए औसतन थी जो अब बढ़कर लगभग 18 करोड़ रुपए औसतन हो चुकी है। इसलिए यहां पर समुचित पर्यटकीय सुविधाएं बहाल करने हेतु कुछ अहम सरकारी निर्णय लेने के बजाय इसे 'विरासत गोद लें' (एडॉप्ट ए हेरिटेज) योजना के तहत महज पांच करोड़ रुपया सालाना निवेश के खातिर डालमिया समूह को सौंप देना कोई बुद्धिमानी भरा निर्णय नहीं है। इसलिए इस पर सड़क से लेकर सदन तक सवाल उठना लाजिमी है।

सवाल यह कि आखिर केंद्र सरकार ऐसा क्यों कर रही है और किसके लिए कर रही है? क्या वह वित्तीय रूप से इतनी अक्षम हो चुकी है कि ऐतिहासिक विरासतों को भी सहेजने, संवारने, संचालित करने और संरक्षित रखने की स्थिति में नहीं बची है? या फिर, वह इन कमाऊ धरोहरों को परोक्ष रूप से खुद से जुड़ी खास निजी कम्पनियों को सौंप देना चाहती है ताकि उनकी माली हालत सुधरे और उसे भी कुछ हासिल होता रहे! आप मानें या न मानें लेकिन हमारी पूर्ववर्ती और परवर्ती सरकारें जिस तरह से निजीकरण, उदारीकरण और भूमण्डलीकरण की अंधी दौड़ में शामिल होकर विभिन्न उपक्रमों के सरकारीकरण की मूल भावनाओं का गला घोंट रही हैं, तरह तरह के अटपटे निर्णय ले रही हैं, वह कई सवाल खड़े करने को काफी है।

इस बात में कोई दो राय नहीं कि लाल किला की देखरेख के मसले पर सोशल मीडिया से लेकर सियासी गलियारों में जो घमासान मचा हुआ है, उससे सरकार की राष्ट्रीय धरोहरों को गोद देने की मुहिम भी विवादास्पद हो चली है। क्योंकि पिछले साल जो 'एडॉप्ट ए हेरिटेज' योजना की शुरुआत की गई, उसके तहत 90 से अधिक राष्ट्रीय धरोहरों को चिन्हित कर सीएसआर के नजरिए से विभिन्न कॉरपोरेट घरानों को गोद दिया जा रहा है, जिसकी शुरुआत लाल किले से हो चुकी है। बता दें कि वर्ष 2014 में जब लाल किले के टिकट के दाम 10 रुपए थे तब लाल किले की कमाई 6.12 करोड़ रुपए थी, और जब 2016 में टिकट की दर बढ़ाकर 30 रुपए कर दी गयी तो इसकी कमाई बढ़कर 18 करोड़ रुपए सालाना हो चुकी है।

दरअसल, लाल किले को मुगल बादशाह शाहजहां ने 17वीं शताब्दी में बनवाया था, जिसकी देखभाल अब डालमिया भारत समूह करेगा। उसने केंद्र सरकार के साथ एक एमओयू भी साइन किया, जिसके बाद वह ऐतिहासिक स्मारक गोद लेने वाला भारत का पहला कॉर्पोरेट हाउस बन गया है। सवाल है कि क्या सरकार विभिन्न ऐतिहासिक धरोहरों को कतिपय निजी उद्योग समूह को सौंप रही है? आखिरकार भारत और उसके इतिहास को लेकर उसकी परिकल्पना और प्रतिबद्धता क्या है? यदि इसकी कोई प्रतिबद्धता नहीं है तो फिर भी ऐसा क्यों है, यह लोग जानना चाहते हैं?

बता दें कि डालमिया समूह इस धरोहर पर छह महीने के भीतर मूलभूत सुविधाएं मुहैया करवाएगा, जिसमें पेयजल कियोस्क, सड़कों पर बैठने की बेंच लगाना और आगंतुकों को जानकारी देने वाले संकेतक बोर्ड लगाना आदि शामिल है। यही नहीं, समूह ने स्पर्शनीय नक्शे लगाना, शौचालयों का उन्नयन, जीर्णोद्धार कार्य करने पर भी सहमति जताई है। इसके अलावा, वह 1000 वर्ग फुट क्षेत्र में आगंतुक सुविधा केंद्र का निर्माण भी वहां करेगा। साथ ही, किले के भीतर और बाहर 3-डी प्रोजेक्शन मानचित्रण, बैट्री चालित वाहन और चार्ज करने वाले स्टेशन और थीम आधारित एक कैफेटेरिया भी मुहैया कराएगा।

बहरहाल, स्मारक मित्र (एडॉप्ट मॉन्यूमेंट्स) योजना के तहत देश के विभिन्न 97 ऐतिहासिक स्मारकों को बुनियादी सुविधाओं के लिहाज से दुरुस्त करने की योजना है, जिसकी शुरुआत हो चुकी है। लिहाजा, यक्ष प्रश्न है कि जब भारत ने 1990 के दशक से ही उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण को अपना लिया है, और सरकार भी अपने विभिन्न महत्वपूर्ण उपक्रमों में या फिर उससे जुड़ी इकाइयों में एक दूसरे के बीच प्रतिस्पर्द्धी माहौल विकसित करने के लिए निजी कम्पनियों और विदेशी निवेश के लिए माहौल बनाने को तत्पर दिख रही है तो फिर इस 'एडॉप्ट ए हेरिटेज' की नव परम्परा पर सवाल उठाने का क्या मतलब रह गया है?

-कमलेश पांडे

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