अपनों की महफिल में बेगाने क्यो हैं उपेन्द्र कुशवाहा
उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति केंद्र की राजनीति को प्रभावित करती है। यहां के राजनीतिक किस्से भी बड़े दिलचस्प होते हैं। इसी कड़ी में आज हम बात करेंगे बिहार की उस राजनीतिक किस्से की जो फिलहाल खूब चर्चा में है।
उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति केंद्र की राजनीति को प्रभावित करती है। यहां के राजनीतिक किस्से भी बड़े दिलचस्प होते हैं। इसी कड़ी में आज हम बात करेंगे बिहार की उस राजनीतिक किस्से की जो फिलहाल खूब चर्चा में है। कहते हैं ना कि राजनीति में कब, कौन किसका दोस्त बन जाए और कब, कौन किसका दुश्मन बन जाए, इसका अनुमान लगाना बड़ा मुश्किल होता है। फिलहाल कुछ ऐसा ही हो रहा है केंद्रीय मंत्री और RLSP के अध्यक्ष उपेन्द्र कुशवाहा के साथ। कुशवाहा फिलहाल अपने ही NDA गठबंधन में हाशिए पर हैं वहीं उन्हें महागठबंधन में शामिल होने का न्योता भी मिल रहा है।
NDA में कैसे बढ़ा उपेन्द्र कुशवाहा का कद
2013 में अपनी नई पार्टी बनाने के बाद 2014 लोकसभा चुनाव उपेन्द्र कुशवाहा के लिए बड़ी परीक्षा थी। BJP बिहार में JDU से अलग थी। चूंकि रामविलास पासवन के सहारे BJP दलितों पर डोरे डाल रही थी। स्वर्ण को ऐसे ही BJP का वोट बैंक कहा जाता है। पर समस्या गैर यादव OBC वोट को अपने पक्ष में करने की थी। ऐसे में कुशवाहा और कुर्मी वोट को साधने के लिए भाजपा ने उपेन्द्र कुशवाहा को अपने गठबंधन में शामिल किया। कुशवाहा की राजनीतिक लड़ाई उस वक्त नीतीश के खिलाफ थी इसलिए उनके लिए भी NDA गठबंधन में शामिल होना एक सहज स्थिति थी। 2014 में उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी चार सीटों पर चुनाव लड़ी थी जिसमें से तीन सीट पर जीत हासिल हुई। इस प्रदर्शन को देखते हुए उन्हें मोदी कैबिनेट में शामिल किया गया।
नीतिश कुमार और उपेन्द्र कुशवाहा के बीच की कड़वाहट
नीतिश कुमार और उपेन्द्र कुशवाहा के बीच का सियासी रिश्ता नरम-गरम रहा है। कभी एक-दूसरे बेहद क़रीबी रह चुके नीतीश और कुशवाहा अब एक दूसरे को बिलकुल नहीं सुहाते। बिहार में कुशवाहा यानी कोयरी समाज की जनसंख्या नीतीश के स्वजातीय कुर्मी समाज से बहुत ज़्यादा है। ऐसे में कुशवाहा खुद को नीतीश से बड़ा नेता मानते है। यही कारण है कि कुशवाहा नीतीश से अलग होकर दूसरी पार्टी में जा चुके थे। बाद में वे फिर जद (यू) में लौटे और उन्हें 2010 में राज्यसभा का सदस्य बनाया गया, परन्तु विचार भिन्नता के चलते उन्होंने अपनी ही पार्टी की सरकार का ही विरोध शुरू कर दिया और करीब साढ़े तीन साल की राज्यसभा सदस्यता की अवधि रहते ही सदन से इस्तीफा दे कर 2013 अपनी पार्टी RLSP बना ली।
RLSP के दो गुट
आंतरिक कलह से जूझने के बाद उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी दो गुटों में बंट गयी है। एक गुट उपेन्द्र कुशवाहा के पक्ष में है जबकि दूसरा गुट डा. अरुण कुमार का है। यह आंतरिक कलह दोनों नेताओं के पार्टी के अंदर अपने-अपने वर्चस्व को लेकर हुई जिसके बाद कुशवाहा ने पार्टी ने जहानाबाद से सांसद डा. अरुण कुमार और विधायक ललन पासवान को निलंबित कर दिया। अरुण उस समय RLSP के बिहार प्रदेश अध्यक्ष भी थे। अब अरुण भी पार्टी पर दावा कर रहे हैं। फिलहाल दोनों गुट NDA गठबंधन को सहयोगी हैं।
अब क्यों नहीं बैठ पा रहे NDA गठबंधन में फिट
वर्तमान में बिहार की NDA में उपेन्द्र कुशवाहा खुद को उपेक्षित महसुस कर रहे होंगे। हाल ही में उनके द्वारा आयोजित इफ्तार पार्टी में बिहार भाजपा अध्यक्ष नित्यानंद राय के अलावा NDA गठबंधन का कोई भी बड़ा नेता शामिल नहीं हुआ। हालांकि यह बात भी सच है कि कुशवाहा ने भी NDA नेताओं के इफ्तार पार्टी से दूरी बनाई। इससे उनके वर्तमान राजनीतिक कद का अंदाजा लगाया जा सकता है। जब से उनकी पार्टी ने नीतिश को अपना नेता मानने से इनकार कर दिया है तब से वो अकेले ही नजर आ रहे हैं। नीतिश के वापस NDA में लौट आने के बाद BJP भी उन्हें बहुत ज्यादा महत्व नहीं दे रही। इसका अंदाजा भाजपा विधायक ज्ञानेंद्र सिंह ज्ञानू के उस बयान से लगाया जा सकता है जिसमें उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा के एनडीए में रहने या नहीं रहने से उसकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। हालांकि जब से वह लालू से मिलें हैं तभी से BJP आलाकमान के आंखों में चुभ रहे हैं। भाजपा ने तो यह तक कह दिया कि राज्य में कुशवाहा वोट या तो नीतीश कुमार के साथ है या भाजपा के साथ है। रालोसपा के कार्यकारी अध्यक्ष नागमणि का उपेंद्र कुशवाहा को 2020 के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री के चेहरा के तौर पर प्रोजेक्ट करने की मांग भी NDA नेताओं के खटक रही है।
क्या होगा राजनीतिक भविष्य
फिलहाल उपेन्द्र कुशवाहा ने यह साफ तो कर दिया कि वो NDA गठबंधन का हिस्सा रहेंगे पर यह देखना दिलचस्प होगा कि वह अपनी उपेक्षा को कब तक सह पाते हैं क्योंकि NDA में रहने का मतलब उन्हें नीतिश को अपना नेता मामना होगा जो उनकी पार्टी प़ॉलिसी में नहीं है। जिस तरीके से कुशवाहा ने पिछले दिनों AIIMS में लालू से मुलाकात की थी उसके बाद से ही RJD से उनके रिश्तों का बाजार गरम है। हाल में ही द्वीट को जरिए तेजस्वी ने उन्हें महागठबंधन में शामिल होने का न्योता भी दिया। कयास यह भी लगाए जा रहे हैं कि मंत्री पद पर बने रहने तक वह महागठबंधन में शामिल नहीं हों और इस पर बाद में फैसला लें। पर यह तय है कि उपेन्द्र कुशवाहा का वैसा जनाधार नहीं जैसा कि बिहार में बाकी बड़ी पार्टियों का है। ऐसे में उन्हें गठबंधन का साथ चाहिए होगा। साथ ही साथ अपनी पार्टी का टूट भी उनके लिए एक मुसीबत है।
देखिए प्रभासाक्षी का विश्लेषण:-
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