आम आदमी का हो रहा एनकाउंटर, जनता का खाकी पर भरोसा कम होता जा रहा है

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डॉ. संजीव राय । Oct 1 2018 2:29PM

ऐसा लग रहा है कि पिछले 20 सालों से पुलिस की ईमानदारी, निष्पक्ष भूमिका पर समाज का भरोसा तेजी से कम होता जा रहा है। लोग अपनी वाज़िब शिकायतें लेकर थाने में जाने से डरते हैं तो यह गम्भीर मुद्दा है। इस पर व्यापक बहस की ज़रूरत है।

टेलीविज़न चैनल्स, लखनऊ में विवेक तिवारी नामक 38 वर्षीय युवक की कथित रूप से पुलिस द्वारा गोली मारने की घटना को दिखा रहे होंगे। इस हत्या के दृश्य जैसे खून के धब्बे वाली कार, रोते-बिलखते परिजन जब टेलीविज़न दिखा रहा होगा, हो सकता है, आप घर में चाय पी रहे हों या खाना खा रहे हों। टेलीविज़न-इंटरनेट के आगमन से पहले, अधिकांश हत्या के बारे में या तो हम लोग सुनते थे या फिर अख़बार-पत्रिका-सच्ची कहानी में पढ़ते थे। एक हत्या की घटना, महीनों और कभी-कभी सालों तक चर्चा का विषय रहती थी। लेकिन अब, चर्चा का स्वरूप ही नहीं बदला है अब हम हिंसा के असली दृश्य, फोटो और टेलीविज़न के लिए उनका नाटकीकरण भी, वैसे ही देखते हैं, जैसे कोई दूसरा मनोरंजन का सीरियल।

पिछले दो दशक से तकनीकी विकास से हमें हत्या और युद्ध को लाइव देखने की सहुलियत मिली। इराक-सीरिया-अफ़ग़ानिस्तान आदि की गोलाबारी/जंग को लाइव दिखाते-दिखाते, टेलीविज़न में कारगिल-कश्मीर का लाइव आने लगा। हम पहले यह समझते रहे कि यह हिंसा, किसी दूसरे देश में हो रही है, फिर यह लाइव/नाट्यरूपन्तरण का प्रसारण अपने देश की सीमा के अंदर से होने लगा। फिर टेलीविज़न ने, हमारे आस-पास की हिंसा का प्रसारण शुरु कर दिया। पिछले एक दशक में, चैनलों के बीच मची होड़ में, हिंसा के ज़्यादा से ज्यादा प्रसारण को प्रमुखता मिलने लगी लगी। न्यूज़ टेलीविज़न में हिंसा की घटनाओं की फुटेज देखते-देखते, समाचार के साथ, क्राइम-पुलिस पेट्रोल, एफआईआर जैसे अपराध के एक्सक्लूसिव कार्यक्रम कब आने लगे, पता ही नहीं चला !

फिर हमारे सामने, चाहे हिंसा का, युद्ध का फुटेज आए, हम अपने ड्राइंग रूम-बैडरूम में उसको सहज रूप से देखने के आदी हो गए। हिंसा के दृश्यों की बारम्बारता का परिणाम ये हुआ है कि, अब हमारे सामने किसी की हत्या भी हो रही हो तो भी हम निष्पक्ष होकर सिर्फ देखते हैं, हम तटस्थ दर्शक होते हैं। अब अपराधी के खिलाफ बोलने या उसको रोकने में आम लोगों की भूमिका कोई खास नहीं लगती है। कुछ लोग, ऐसी घटनाओं को दूर से मोबाइल में रिकॉर्ड करते हैं और कभी यह सबूत के रूप में काम आ जाता है।

टेलीविज़न में हिंसा देखते-देखते, हमें समाज में भी इस तरह की घटना देखने की आदत होती जा रही है। जो प्रोग्राम हम टेलीविज़न या इंटरनेट के ज़रिये देख रहे हैं, अक्सर अपने आस-पास भी वैसा ही हकीकत में देखने को मिल रहा है। असली (रियल) दुनिया और आभासी (रील) दुनिया के बीच की दूरी कम हो रही है। अब पुलिस एनकाउंटर भी लाइव होने लगे हैं।

हमारा हिंसा के प्रति बदलता नजरिया, हमारी मनोरंजन की पसंद में भी उभर कर आया है। बच्चों के ऑनलाइन खेलों में आया है। टेलीविज़न पर आने वाले गीत-संगीत के कार्यक्रम में भी युद्ध की शब्दावली भरपूर  प्रयोग की जाने लगी है। टेलीविज़न पर सुरों का संग्राम- महासंग्राम होने लगा, गायक की बजाय, 'योद्धा' गीत गाने लगे, क्रिकेट का मैच, जंग में बदल गया। अब हत्या पर दुःख-अफ़सोस से पहले हम सोशल मीडिया पर, मारने वाले, मरने वाले की जाति, चरित्र और गुनाह को लेकर बंट जाते हैं। अपनी-अपनी समझ और वैचारिक-धार्मिक प्रतिबद्धता के हिसाब से लोग, मारने वाले और मारे गए के पक्ष-विपक्ष में तर्क  करते हैं। सोशल मीडिया पर दिए गए तर्क कई बार असली मुद्दे से भटकाने वाले होते हैं, उदाहरण अतार्किक और उस घटना के लिए अप्रासंगिक होते हुए भी, समूह सदस्यों के समर्थन से प्रमुखता पाते हैं, तर्क की बजाय, मुद्दे पर तर्क करने वाले व्यक्ति पर हमला होने लगता है।

हत्या चाहे पुलिस के द्वारा हो, भीड़ के द्वारा हो, अपराधी के द्वारा हो या फिर अपराधी की ही हत्या हो, एक सभ्य समाज में किसी की भी हत्या, एक असामान्य घटना होती है। सामान्य परिस्थिति में राज्य, अपने किसी भी नागरिक की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार होता है और आम नागरिक की सुरक्षा के लिए राज्य के पास पुलिस का तंत्र होता है। हिंसा को कोई सभ्य समाज, सामान्यतः स्वीकारोक्ति नहीं देता है, लेकिन राज्य अपने नागरिकों की सुरक्षा में बाधक, जघन्य अपराधियों को जेल में डालने से लेकर उनका एनकाउंटर करने के लिए क़ानूनी रूप से सक्षम होता है। लेकिन ऐसे में क्या होगा जब, पुलिस पर आम नागरिक की सुरक्षा के बजाय, उसकी हत्या करने का आरोप लग जाये!

देश में कई दशकों से, पुलिस और अपराधियों के बीच सांठ-गाँठ की बात उठती रही है। पुलिस में सिपाही-दरोगा की भर्ती को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं। पैसे के बल पर, पुलिस रिपोर्ट को प्रभावित करना एक  आम बात होती जा रही है। ईमानदार पुलिस कर्मी, लगातार परेशान होते हैं, ईमानदारी के चलते कुछ को नौकरी छोड़नी पड़ी है। लेकिन कई बड़े अपराधी-राजनीतिज्ञ, अपने प्रति वफ़ादार पुलिसकर्मियों की आर्थिक-राजनीतिक सहायता के साथ, ट्रांसफर-पोस्टिंग में मदद करते हैं। ऐसा लग रहा है कि पिछले 20 सालों से पुलिस की ईमानदारी, निष्पक्ष भूमिका पर समाज का भरोसा तेजी से कम होता जा रहा है। लोग अपनी वाज़िब शिकायतें लेकर थाने में जाने से डरते हैं तो यह गम्भीर मुद्दा है। इस पर व्यापक बहस की ज़रूरत है। अगर खाकी वर्दी से, आम लोगों को सुरक्षा के भरोसे की बजाय, डर लगने लगेगा तो लोग क्या करेंगे ? अपराध और पुलिस के बीच फासला लगातार कम हो रहा है।

हर एक हिंसा की घटना, हमारी स्मृति, हमारी सोच में एक जगह बनाती है और वैसी ही घटना हमारे साथ होने की सम्भावना बढ़ती जाती है, हत्या की घटना का लाइव (जीवन्त प्रसारण) देखते-देखते यह ज़रूर सोचियेगा कि जब हमारे साथ वैसी ही घटना होगी, दूसरे लोग ड्राइंग रूम से उसका फुटेज देख रहे होंगे।

-डॉ. संजीव राय

(लेखक शिक्षाविद हैं और टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज में एडजंक्ट प्रोफेसर हैं।)

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