दुनिया में जो भी देश महाशक्तिशाली और संपन्न बना है वह स्वभाषा के माध्यम से ही बना है

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भारत के सभी विभिन्न भाषाभाषी नागरिकों को यह स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि हिंदी किसी पर थोपी नहीं जाएगी। समस्त भारतीय भाषाओं को सामान आदर प्राप्त होगा। अब हमारी संसद और सर्वोच्च न्यायालय में कई अन्य भारतीय भाषाओं का प्रयोग होने भी लगा है।

हर 14 सितंबर को भारत में हिंदी-दिवस मनाया जाता है। वह एक सरकारी औपचारिकता बनकर रह जाता है। यदि भारत की विभिन्न सरकारों और जनता को सचमुच स्वभाषा का महत्व पता होता तो हिंदी की वह दुर्दशा नहीं होती, जो आज भारत में है। आज तक दुनिया का कोई भी देश यदि महाशक्तिशाली और महासंपन्न बना है तो वह स्वभाषा के माध्यम से बना है। सुरक्षा परिषद् के पांचों स्थायी सदस्य अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन अपने देश की शिक्षा, चिकित्सा, संसद, सरकार, अदालतों और अपने दैनंदिन व्यवहार में उच्चतम स्तर तक स्वभाषा का ही प्रयोग करते हैं। मैं इन सभी देशों और जापान आदि में भी रहा हूं। मैंने उनके उच्चतम स्तरों तक पर कभी किसी विदेशी भाषा का प्रयोग होते नहीं देखा है।

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इसका अर्थ यह नहीं कि विदेशी भाषाओं का प्रयोग और उपयोग करना सर्वथा अनुचित है। कदापि नहीं। विदेशी भाषाओं का उपयोग अनुसंधान, कूटनीति, विदेश-व्यापार आदि के लिए हम करें और जमकर करें, यह जरूरी है लेकिन हम किसी एक विदेशी भाषा को अपनी मालकिन बना लें और अपनी भाषाओं को उसकी नौकरानी बना दें तो मानकर चलिए कि हमने अपने राष्ट्र के पांवों में बेड़ियां डाल दी हैं। वह 75 साल तो क्या, 100 साल में भी महाशक्ति और महासंपन्न नहीं बन पाएगा लेकिन यदि आज भी भारत की जनता और सरकार संकल्प कर ले कि राष्ट्र-जीवन के हर क्षेत्र में हम स्वभाषा और राष्ट्रभाषा को प्राथमिकता देंगे तो निश्चय ही भारत 21वीं सदी को एशिया की सदी बना सकता है।

हिंदी-दिवस के अवसर पर भारत के सभी विभिन्न भाषाभाषी नागरिकों को यह स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि हिंदी किसी पर थोपी नहीं जाएगी। समस्त भारतीय भाषाओं को समान आदर प्राप्त होगा। अब हमारी संसद और सर्वोच्च न्यायालय में कई अन्य भारतीय भाषाओं का प्रयोग होने भी लगा है। हिंदी-दिवस पर भारत की जनता और सरकार, दोनों को कुछ ठोस संकल्प लेने चाहिए। भारत के सभी नागरिक यह संकल्प ले सकते हैं कि वे अपने हस्ताक्षर अपनी मातृभाषा या हिंदी में ही करेंगे। वे अंग्रेजी या किसी भी विदेशी भाषा में हस्ताक्षर नहीं करेंगे। देश के ज्यादातर पढ़े-लिखे लोग अपने दस्तखत अंग्रेजी में ही करते हैं। आपके हस्ताक्षर आपकी पहचान हैं। उनका महत्व अद्वितीय है। आप अपने बैंक में खुद जाकर रुपया निकालें तो वहां आपको नहीं निकालने दिया जाएगा लेकिन आपकी जगह आपका हस्ताक्षर किया हुआ चेक जाएगा तो उसे देखकर रुपया तुरंत मिलेगा। दुनिया का कोई भी राष्ट्र आपके हिंदी हस्ताक्षर को स्वीकार करने से मना नहीं कर सकता। पिछले 50 साल में लगभग 80 देशों में जाकर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं। मैंने किसी भी दस्तावेज पर आज तक अंग्रेजी में दस्तखत नहीं किए हैं। यदि देश के करोड़ों लोग यह संकल्प कर लें तो फिर यह स्वभाषा को चेतना उनके अन्य कामों में भी अपना असर दिखाएगी।

विभिन्न शहरों के बाजारों में लगे नामपट यदि हिंदी और स्थानीय भाषाओं में लगे हों तो खरीदारों को ज्यादा आसानी होगी। माल ज्यादा बिकेगा। कुछ प्रांतों ने स्थानीय भाषा के इस प्रावधान को कानूनी रूप भी दिया है। सारे देश के बाजारों के लिए इस तरह के नियम क्यों नहीं लागू किए जा सकते हैं ? आम लोगों को चाहिए कि वे अपने परिचय-पत्र भी भारतीय भाषाओं में छपवाएं। अपने निमंत्रण-पत्र भी अपनी स्थानीय भाषा और हिंदी में क्यों नहीं छपवाए जा सकते हैं? अब से लगभग 50 साल पहले जब यह स्वभाषा आंदोलन तेजी से चला था तो सैंकड़ों लोग ऐसे भी थे, जो अंग्रेजी में निमंत्रणों के कार्यक्रमों का बहिष्कार कर देते थे।

आजकल हमारी बोलचाल में, अखबारों और टीवी चैनलों में अंग्रेजी शब्दों और मुहावरों का प्रयोग भी बहुत ज्यादा बढ़ गया है। कई बार तो उस बोले और लिखे हुए का अर्थ निकालना मुश्किल हो जाता है। भाषा अलग भ्रष्ट होती है। संवाद का सौंदर्य नष्ट हो जाता है। इसका अर्थ यह नहीं कि हम अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषाओं के शब्दों को पचा लेने की क्षमता को खो दें। हिंदी तो बनी है अत्यंत समर्थ भाषा इसीलिए कि इसने सैंकड़ों देशी और विदेशी भाषाओं और बोलियों के शब्दों को पचा लिया है। उसका शब्द सामर्थ्य और अभिव्यक्ति की क्षमता अंग्रेजी के मुकाबले कई गुना ज्यादा है। वह संस्कृत की पुत्री और भारतीय भाषाओं की भगिनी है।

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हिंदी-दिवस पर भारत की जनता यह संकल्प भी ले कि वह हिंदी को नौकरशाही के शिकंजे से मुक्त करेगी। आज भी देश का शासन हमारे नेता कम और नौकरशाह ज्यादा चलाते हैं। वे आज तक अंग्रेजी काल की गुलाम मानसिकता से मुक्त नहीं हुए हैं। यदि हमारे नेता दृढ़ संकल्पी हों तो भारत में से अंग्रेजी का वर्चस्व वैसे ही चुटकियों में खत्म हो सकता है, जैसे व्लादिमीर लेनिन ने रूस में फ्रांसीसी और तुर्की में अतातुर्क ने अरबी लिपि का किया था। यदि सारे सरकारी काम-काज से अंग्रेजी को हटा दिया जाए तो समस्त भारतीय भाषाएं और हिंदी अपने आप जम जाएंगी। बस, सावधानी यही रखनी होगी कि किसी अहिंदीभाषी को कोई असुविधा न हो।

यदि भारत सरकार शिक्षा मंत्रालय की तरह एक अनुवाद मंत्रालय भी कायम कर दे तो बहुभाषी भारत में यह एक चमत्कारी काम होगा। भारत के किसी भी नागरिक को स्वभाषा का प्रयोग करने में कोई कठिनाई नहीं होगी। संसद और विधानसभा के कानून स्वभाषाओं में बनने शुरू हो जाएंगे, अदालतों के फैसले और बहसें जनता की भाषा में होंगी, विश्वविद्यालयों की ऊँची पढ़ाई और शोधकार्य भी भारतीय भाषाओं में होने लगेंगे। सारे स्कूलों और कॉलेजों से अंग्रेजी की अनिवार्य पढ़ाई पर प्रतिबंध होगा। कोई भी विषय अंग्रेजी माध्यम की बजाय भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ाया जा सकेगा। विभिन्न विषयों की पुस्तकें और ताजा शोध-लेख, जो विदेशी भाषाओं में होंगे, वे भारतीय छात्रों को उनकी सहज और सरल भाषा में मिलने लगेंगे। विदेशी भाषा को रटने और समझने में जो शक्ति फिजूल खर्च होती है, उसका उपयोग छात्रों की मौलिकता बढ़ाने में होगा। छात्रों को सिर्फ अंग्रेजी नहीं, कई विदेशी भाषाएं पढ़ने की स्वैच्छिक सुविधा भी दी जाए ताकि हमारे विदेश व्यापार, कूटनीति और शोधकार्य में नई जान फुंक जाए।

यदि हम भारत की संसद, सरकार, अदालतों, शिक्षा, चिकित्सा और जन-जीवन में हिंदी और स्वभाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवा सकें तो फिर उसे संयुक्त राष्ट्र संघ में भी प्रतिष्ठित करवा सकते हैं लेकिन घर में जो नौकरानी बनी हुई है, उसे आप बाहर महारानी बनाने की कोशिश करेंगे तो क्या लोग आप पर हंसेंगे नहीं? यदि सरकारी नौकरियों से अंग्रेजी की अनिवार्यता हट जाए तो देश के करोड़ों गरीबों, पिछड़ों, ग्रामीणों को आगे आने के अपूर्व अवसर मिल सकेंगे। भारत को समतामूल राष्ट्र बनाने में भारी मदद मिलेगी। लोकभाषा के बिना लोकतंत्र की कल्पना भी अधूरी है।

-डॉ. वेदप्रताप वैदिक

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