आरएसएस के मंच पर चढ़ने से क्यों डर गये राजनीतिक दल?

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आरएसएस के कार्यक्रम में कांग्रेस सहित किसी भी दल के नेता ने शिरकत नहीं की। आरएसएस की आलोचना करने वाले राजनीतिक दलों को लगता है कि यदि उन्हीं के मंच पर चढ़ गए तो उनकी आलोचना का हथियार भौंथरा हो जाएगा।

देश के राजनीतिक दल इस कदर पूर्वाग्रहों से प्रेरित हैं कि लोकतांत्रिक तरीके से संवाद से भी कतराते हैं। दलों के नेताओं को लगता है कि यदि संवाद स्थापित कर लिया तो उनके पूर्वाग्रहों के दावे संदिग्ध लगने लगेंगे। गैर भाजपाई राजनीतिक दलों ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के आमंत्रण को ठुकरा कर कुछ ऐसा ही किया है। आरएसएस ने सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के प्रमुखों को 'भविष्य का भारतः आरएसएस का दृष्टिकोण' विषय पर आयोजित व्याख्यानमाला में सम्बोधित करने के लिए आमंत्रित किया था। 

इसमें कांग्रेस सहित किसी भी दल के नेता ने शिरकत नहीं की। आरएसएस की आलोचना करने वाले राजनीतिक दलों को लगता है कि यदि उन्हीं के मंच पर चढ़ गए तो उनकी आलोचना का हथियार भौंथरा हो जाएगा। जिसे वे गाहे−बेगाहे आरएसएस के जरिए भाजपा के खिलाफ इस्तेमाल करते रहे हैं। दरअसल दूसरे शब्दों में कहें तो विपक्षी दलों ने आरएसएस को घेरने को एक महत्वपूर्ण और राष्ट्रीय मौका गंवा दिया। आरएसएस के मंच से ऐसे सवाल दागे जा सकते थे, जिन्हें गाहे−बेगाहे दूसरे माध्यमों से प्रचारित किया जाता रहा है। आरएसएस ने आगे बढ़कर यह मौका सभी प्रमुख विपक्षी दलों को मुहैया कराया था। इसमें शिरकत नहीं करना यह भी दर्शाता है कि राजनीतिक दल देश की समस्याओं को लोकतांत्रिक तरीके से संवाद के माध्यम से जानने और समझने का प्रयास करने से कतराते हैं। राजनीतिक दलों के आरोपों की बुनियाद इतनी खोखली नहीं होनी चाहिए कि संवाद के भय से ही धराशायी हो जाए। यदि आरएसएस से इतना ही परहेज है तो उसे उसी के मंच से उजागर करके सवालों के जवाब मांगने चाहिए थे। 

इससे बचकर निकलने से यह साबित होता है कि आरएसएस के खिलाफ लगाए जाने वाले तमाम आरोपों में दम नहीं है, या फिर विपक्षी दलों का बातचीत के माध्यम से समस्याओं की तह तक जाने में भरोसा नहीं है। कांग्रेस महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का संबंध संघ परिवार से होना बताती रही है। इसी तरह अन्य दल भी आरएसएस को कट्टर हिन्दुवादी बताते हुए हिन्दु आतंकवाद को फैलाने का आरोप लगाते रहे हैं। आरएसएस पर अल्पसंख्यकों के खिलाफ विषवमन करने के आरोप भी लगाए जाते रहे हैं। आरएसएस को महिला विरोधी ठहराते हुए महिलाओं को इसमें प्रवेश वर्जित होने के आरोप भी लगते रहे हैं।

भाजपा पर भी यह आरोप लगता रहा है कि आरएसएस पर्दे के पीछे से सरकार चलाती है, जबकि कहने को सामाजिक−सांस्कृतिक संगठन होने का दंभ भरती है। संघ ने ही एक तरह से इन सवालों को उठाने का मंच मुहैया कराया था। सच्चाई यह है कि आरएसएस पर आरोप लगाने वाले दल भी दूध के धुले नहीं हैं। यदि संघ परिवार पर आरोप लगाए जाते तो कई सवालों के जवाब उसी मंच के जरिए दलों के नेताओं को भी देने पड़ते। 

कांग्रेस सहित दूसरे दलों पर भी वोटों की खातिर अल्पसंख्यकों को जायज−नाजायज पक्ष लेते हुए ध्रुवीकरण का आरोप लगता रहा है। यहां तक कि कांग्रेस और दूसरे क्षेत्रीय दलों पर अल्पसंख्यकों के वोटों की खातिर दबे−छिपे तरीके से आतंकवादियों की पैरवी तक करने के आरोप लगते रहे हैं। बंगलादेशी घुसपैठियों और रोहिंग्या शरणार्थियों के मुद्दे पर भी भाजपा ने दूसरे दलों से देश की एकता−अखंडता से समझौता करने के आरोप लगाए हैं। इन सबसे इतर कांग्रेस की कमजोर कड़ी भ्रष्टाचार रही है। 

सोनिया और राहुल गांधी और इनके दामाद रार्बट वाड्रा सहित कई वरिष्ठ नेता भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे हैं। बैंकों का हजारों करोड़ लेकर चंपत हुए विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे भगौड़ों को प्रश्रय देने के आरोपों से भाजपा के साथ कांग्रेस भी लपेट में है। कांग्रेस और दूसरे दलों के नेताओं को अंदाजा था कि यदि संघ से जवाब मांगे तो कई सवालों का जवाब उन्हें भी देना पड़ेगा। मंच के जरिए एक तरफा सवाल संभव नहीं है। 

इसमें भी खतरा यह होता कि संघ परिवार की ओर से उठाए गए मुद्दे भारी नहीं पड़ जाएं। इससे विपक्षी दलों के नेताओं और ज्यादा फजीहत होती। आरएसएस का पर्दाफाश करने के बजाए खुद ही सवालों के चपेट में आ सकते थे। शायद यही वजह रही कि एक भी विपक्षी दल के नेता ने आरएसएस का आमंत्रण स्वीकार नहीं किया। यह इस बात का भी संकेत है कि राजनीतिक दल वास्तविक चुनौतियों से किस कदर मुंह चुराते हैं। 

आरोप केवल वोट बैंक बनाने का जरिया मात्र रह गए हैं। इसकी तह तक जाने को कोई तैयार नहीं है। कोई भी दल मंच साझा करके दूसरे के विचार और जवाब सुनने तक को राजी नहीं है। समस्याओं और विचारों के प्रति ऐसा पूर्वाग्रह देश की लोकतांत्रिक प्रणाली के प्रति नुकसान देय है, जहां कोई दूसरे की बात तक सुनने को तैयार नहीं है। ऐसी कोई समस्या या विचार नहीं है, जिसमें परिवर्तन बातचीत के जरिए नहीं किया जा सकता हो। 

लोकतांत्रिक पद्धति अपनाए जाने की प्रमुख वजह ही यही है कि हर समस्या का समाधान शांतिपूर्ण तरीके से संवाद से हल हो सके। पंचायत से लेकर संसद तक की बुनियाद इसी पद्धति पर रखी गई ताकि मनमानी से बचा जा सके। यहां तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न देशों ने क्षेत्रीय समस्याओं को सुलझाने के लिए संगठन बनाए हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जहां किसी भी निर्णय पर पहुंचने से पहले उस मुद्दे के हर पहलू पर गंभीरता से विचार−विमर्श होता है। इसके जरिए देशों के बीच बातचीत से समाधान के रास्ते तलाश करते हुए युद्धों तक के मसले सुलझाए गए हैं। यही वजह भी यह संगठन आज विश्व की सबसे बड़ी सबकी आवाज सुनने वाली संस्था बनी हुई है। देश की समस्याओं को सुलझाना है तो आपसी संवाद बेहद जरूरी है। संवाद नहीं होने से ही दूरियां और गलतफहमियां लगातार बनी रहती हैं। जबकि आरएसएस हो या विपक्षी दल, सभी का उद्देश्य देश में अमन−चैन और तरक्की कायम रखना है। 

-योगेन्द्र योगी

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