शहरों, पार्कों का नाम बदलने की सियासत सभी करते हैं, योगी भी कर रहे हैं

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अजय कुमार । Oct 18 2018 1:35PM

उत्तर प्रदेश में शहरों के नाम बदलने की सियासत एक बार फिर परवान चढ़ी हुई है, जिसको लेकर योगी सरकार उन लोगों के निशाने पर है जो हमेशा से इस तरह के बदलावों की मुखालफत करते रहे हैं।

उत्तर प्रदेश में शहरों के नाम बदलने की सियासत एक बार फिर परवान चढ़ी हुई है, जिसको लेकर योगी सरकार उन लोगों के निशाने पर है जो हमेशा से इस तरह के बदलावों की मुखालफत करते रहे हैं, इसके पीछे मुखलाफत करने वालों का यह तर्क रहता है कि एक शहर का नाम भर बदलने से सरकारी खजाने को सैकड़ों करोड़ रूपये की चपत लग जाती है। नाम बदले जाने से शहरों को पुनः अपनी पहचान बनानी पड़ती है। कई बार किसी प्रतिष्ठान का नाम बदले जाने से उस संस्थान की देश में ही नहीं विदेश तक में अपनी पुरानी साख ही चौपट हो जाती है। उदाहरण के लिये लखनऊ के विश्व प्रसिद्ध किंग जार्ज मेडिकल कालेज (केजीएमसी) (जो अब विश्वविद्यालय बन गया है) का नाम जब मायावती सरकार ने बदलकर छत्रपति साहू जी महाराज मेडिकल विश्वविद्यालय कर दिया गया तो इसको इसका काफी नुकसान उठाना पड़ा, इसकी पुरानी प्रतिष्ठा तो गई ही, इसके अलावा केजीएमसी को जो आर्थिक मदद मिलती थी, वह भी नाम बदलने से प्रभावित होने लगी।

जब मुलायम सिंह ने सत्ता संभाली तो मायावती के आदेश को रद्द कर दिया। मायावती फिर मुख्यमंत्री बनीं तो उन्होंने दोबार केजीएमसी का नाम बदला दिया। इसके बाद 2012 में अखिलेश यादव जब मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने इसका नाम फिर किंग जार्ज मेडिकल विश्वविद्यालय कर दिया।

खैर, सियासतदारों का इससे क्या लेना−देना है, लेकिन ताज्जुब तब होता है जब कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसे दल भी ऐसे बदलावों का विरोध करने लगते हैं जो स्वयं सत्ता में रहते हुए नाम बदलने की खूब सियासत किया करते थे। वैसे पहली बार किसी शहर का नाम नहीं बदला गया है। शहरों और संस्थाओं के नाम बदलने की परम्परा काफी पुरानी है। अंग्रेजी हुकूमत और खासकर मुगलकाल में जनविरोध को दरकिनार कर जिस तरह से जर्बदस्ती शहरों के नाम बदलकर हिन्दुओं की धार्मिक भावनाएं आहत की गईं थी, उसकी कसक आज भी कहीं न कहीं लोगों के दिलो−दिमाग पर छाई हुई है। इसको लेकर लोगों के बीच दुश्मनी का भाव भी देखा जा सकता है। अयोध्या में भगवान राम की जन्मस्थली पर बाबरी मस्जिद का बनना और काशी में बाबा विश्वनाथ मंदिर के परिसर को बलात कब्जा कर उस पर ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण होना इस बात की गवाही देता है। ऐसा ही खिलवाड़ मथुरा में भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली के साथ किया गया था। समय−समय पर तमाम समाचार पत्रों और कई पुस्तकों में लोगों की आहत भावनाओं का वर्णन भी मिल जाता है।

अपने देश में राज्यों, शहरों, सड़कों, संस्थानों के नाम बदलने की परंपरा काफी पुरानी है। करीब दो वर्ष पूर्व हरियाणा के शहर गुड़गांव का नाम बदलकर गुरुग्राम कर दिया गया। योगी सरकार मुगलसराय रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन पहले ही कर चुकी है। इलाहाबाद के बाद फैजाबाद का नाम भी बदलकर अयोध्या या साकेत नगर किये जाने की मांग उठने लगी है। नाम बदलाव का सरकारी तर्क यही रहता है कि ऐसे शहरों को उनके प्राचीन नाम वापस दिलाये जा रहे हैं। नाम बदलने का एजेंडा यूपी में नया नहीं है और इलाहाबाद का नाम प्रयागराज किए जाने के बाद कुछ और जिलों के नाम बदले जा सकते हैं। उत्तर प्रदेश में पिछले दो दशक में जिलों के नाम खूब बदले गये। खास बात यह कि बसपा सरकार में रखे गये जिलों के नाम समाजवादी पार्टी ने सत्ता में आते ही बदल दिए। इसको लेकर सपा−बसपा में खूब तीखी तकरार भी हुई थी, बताते चलें वर्ष 1992 में भाजपा गठबंधन की कल्याण सरकार ने इलाहाबाद का नाम प्रयागराज, अलीगढ़ का नाम हरिगढ़ व फैजाबाद का नाम साकेत करने की कोशिश की थी। माना जा रहा है कि फैजाबाद, कानपुर, लखनऊ, आजमगढ़ व अलीगढ़ के नाम भी आने वाले समय में बदले जा सकते हैं।

उत्तर प्रदेश की राजधानी और भगवान लक्ष्मण की नगरी जिसे आज लखनऊ के नाम से जाना जाता है, का भी नाम बदलने की भी मांग जोर पकड़ रही है। लखनऊ प्राचीन कौसल राज्य का हिस्सा था। यह भगवान राम की विरासत थी, जिसे उन्होंने अपने भाई लक्ष्मण को समर्पित कर दिया था। इसे लक्ष्मणावती, लक्ष्मणपुर या लखनपुर के नाम से जाना गया, जो बाद में बदल कर लखनऊ हो गया।

उत्तर प्रदेश भी पुराना नाम नहीं है। सन 1902 तक उत्तर प्रदेश को नॉर्थ वेस्ट प्रोविन्स के नाम से जाना जाता था। बाद में इसे नाम बदल कर यूनाइटिड प्रोविन्स ऑफ आगरा एण्ड अवध कर दिया गया। साधारण बोलचाल की भाषा में इसे यूनाइटेड प्रोविन्स या यूपी कहा गया। सन् 1820 में प्रदेश की राजधानी को इलाहाबाद से बदल कर लखनऊ कर दिया गया। प्रदेश का उच्च न्यायालय इलाहाबाद ही बना रहा और लखनऊ में उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ स्थापित की गयी। स्वतन्त्रता के बाद 12 जनवरी सन् 1950 में इस क्षेत्र का नाम बदल कर उत्तर प्रदेश रख दिया गया और लखनऊ इसकी राजधानी बना। इस तरह यह अपने पूर्व लघुनाम यूपी से जुड़ा रहा।

इलाहाबाद का नाम बदले जाने पर भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता जुगल किशोर ने कहा कि संगम नगरी का नाम प्रयागराज करने से देश का हर नागरिक खुश है। करोड़ों जनता की आस्था का सम्मान करते हुए योगी सरकार ने यह फैसला किया। उन्होंने कहा कि रामचरित मानस में भी संगम नगरी का नाम प्रयागराज उल्लेख किया गया है। मुगल शासकों द्वारा प्रयागराज का नाम बदलकर इलाहाबाद करना भारत की परम्परा और आस्था के साथ खिलवाड़ करना था।

बहरहाल, बात पिछली सरकारों की कि जाये तो उन्होंने जिले ही नहीं विश्वविद्यालय, पार्क तक के नाम बदले थे। लखनऊ के जनेश्वर मिश्र पार्क का नाम पहले अम्बेडकर उद्यान था। अखिलेश सरकार ने अम्बेडकर उद्यान का न केवल विस्तार किया बल्कि नाम भी बदल दिया। मायावती ने अपने अलग−अलग कार्यकाल में नए जिले बना कर उनका नाम दलित व पिछड़े वर्ग से जुड़े संतों−महापुरुषों के नाम पर रखे। मायावती ने मुख्यमंत्री रहते एटा से काट कर बनाए गए कासगंज जिले का नाम कांशीराम नगर कर दिया था। अमेठी को जिला बना कर उसे छत्रपति शाहू जी नगर किया गया। अमरोहा का नाम ज्योतिबा फुले नगर रखा गया। इसी तरह हाथरस का नाम महामाया नगर तो कई बार बदला। बसपा राज में ही कानपुर देहात का नाम रमाबाई नगर, संभल का नाम भीमनगर, शामली का नाम प्रबुद्धनगर व हापुड़ का नाम पंचशील नगर रखा गया। 2012 में अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने मायावती द्वारा बनाये गये जिले के साथ तो कोई छेड़छाड़ नहीं की लेकिन इन जिलों के पुराने नाम जरूर बहाल कर दिए। इस पर मायावती ने सख्त एतराज जताते हुए इसे दलित महापुरुषों का अपमान बताया था।

संस्थान और शहर तो दूर कई राज्यों तक के नाम बदलने की सियासत परवान चढ़ चुकी है। उनमें से कुछ का उल्लेख करना समीचीन होगा। इसी के चलते असम अब (आसाम), ओडिशा (उड़ीसा), पश्चिम बंग (वैस्ट बंगाल), पुदुच्चेरी (पांडुचेरी) हो गया। इसी प्रकार शहरों में कन्याकुमारी (केप कोमारिन), कोजीकोड (कालीकट), कोलकाता (कैलकटा/कलकत्ता), गुवाहाटी (गौहाटी), चेन्नै (मद्रास), तिरुअनंतपुरम (त्रिवेन्द्रम), पणजी (पंजिम), पुणे (पूना), बंगलूरु (बैंगलोर), मुम्बई (बॉम्बे), विशाखापत्तनम (वालटेयर), विजयपुर (बीजापुर) हो गया।

कांग्रेस के उत्तर प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर भी इलाहाबाद का नाम बदले जाने को लेकर योगी पर निशाना साध रहे हैं लेकिन कड़वी सच्चाई यह भी है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में कांग्रेस सरकारों की नीति भी कुछ अलग नहीं रही थी। कांग्रेस ने हर नयी संस्था, मार्ग, पुल, आदि का नाम यथासंभव प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू एवं उनके वंशजों के नाम पर ही रखा, सरकारी योजनाओं के साथ भी यही किया गया। कभी दिल्ली के कनॉट सर्किल एवं कनॉट प्लेस को इंदिरा गांधी तथा राजीव गांधी के नाम पर नया नाम दिया गया था।

दरअसल, नाम बदलने का विचार राजनेताओं से शुरु होता है और जनभावनाओं के उभार के रूप में आगे बढ़ता है। अंग्रेजी विरासत के तौर पर जो नाम देश में प्रचलित हैं उनको देशज नामों से संबोधित किया जाए यह बात कहने−सुनने में अच्छी लगती है। परंतु इस कार्य में विसंगति भी बहुत हैं। जिस देश में कदम−कदम पर अंग्रेजियत पैर पसारे मिलती हो, जहां प्रायः सभी दस्तावेजी कार्य अंग्रेजी में किए जाते हों, जिस देश का संविधान अंग्रेजी में हो, उच्चतम न्यायालय का कार्य अंग्रेजी में होता हो, जहां अंग्रेजी स्कूलों की बाढ़ आ रही हो, देशज भाषाओं के विद्यालय बंद होने के कगार पर हों, वहां अंग्रेजी नामों को बदलने का औचित्य ही क्या है।  

     

यह देश है ही विचित्र। यदि नाम ही बदलना है तो सबसे पहले देश का नाम बदला जाना चाहिए। इस देश का नाम "भारत" होना चाहिए "इंडिया" नहीं। इंडिया नाम अंग्रेजों का दिया हुआ है न कि इस देश का मौलिक या प्राचीन नाम है। विष्णु पुराण तथा अन्य प्राचीन ग्रंथों में इस भूभाग को भारतवर्ष या भारत कहा गया है। तब हम इसे भारत क्यों नहीं कहते ? सब जगह इंडिया ही क्यों सुनने को मिलता है ? यहां तक कि हिन्दूवादी नेता और पीएम मोदी भी "स्किल इंडिया", "डिजिटल इंडिया", "मेक इन इंडिया", आदि−आदि की बात करते हैं जबकि उसमें इंडिया की जगह भारत दिखना चाहिए।

-अजय कुमार

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