हवाई सफर में कंपन कम करने के लिए आईआईटी बॉम्बे का नया शोध

piezoelectric material

आईआईटी बॉम्बे से जुड़े शोधार्थियों ने एक नया पाईजोइलेक्ट्रिक मैटीरियल विकसित किया है। यह सामान्य रूप से उपयोग में लायी जाने वाली पाईजोइलेक्ट्रिक सिरेमिक्स की तुलना में बेहतर पाईजोइलेक्ट्रिक रिस्पांस देता है।

वैज्ञानिकों के तमाम प्रयासों से हवाई यात्रा इन दिनों बहुत सुगम हो गई है। अब यात्रियों को सफर के दौरान बहुत कम कंपन महसूस होता है। इसे संभव बनाने के लिए इंजीनियरों ने विमान के विशालकाय टरबाइन इंजन और बाहरी वातावरण से उत्पन्न होने वाले कंपन को कम करने के लिए विमान की पंखुड़ियों और केविन विंडोज के आसपास छोटी-छोटी डिवाइस लगा दी हैं। ये डिवाइस पाईजोइलेक्ट्रिक मैटीरियल से बनी होती हैं। ये डिवाइस इसी सिद्धांत पर काम करती हैं कि जब इलेक्ट्रिक सिग्नल अप्लाई किया जाता है तो उससे कंपन को कम करने वाला बल उत्पन्न होता है। पाईजोइलेक्ट्रिक मैटेरियल्स सेंसर के रूप में भी प्रयोग होते हैं। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), बॉम्बे के शोधार्थियों ने ऐसे पाईजोइलेक्ट्रिक मैटीरियल को हल्का एवं बेहतर बनाने की संभावनाएं जगायी हैं। इससे भविष्य में रोबोटिक्स और उपग्रहों के क्षेत्र में नये आयाम खुल सकते हैं।

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आईआईटी बॉम्बे से जुड़े शोधार्थियों ने एक नया पाईजोइलेक्ट्रिक मैटीरियल विकसित किया है। यह सामान्य रूप से उपयोग में लायी जाने वाली पाईजोइलेक्ट्रिक सिरेमिक्स की तुलना में बेहतर पाईजोइलेक्ट्रिक रिस्पांस देता है। यह मैटेरियल इनपुट इलेक्ट्रिक सिग्नल से भी बड़े पैमाने पर बल उत्पन्न करने में सक्षम है। इसे नोवेल ग्रिफिन रिइंफोर्स्ड पाईजोइलेक्ट्रिक कंपोजिट (जीआरपीसी) का नाम दिया गया है। इससे संबंधित अध्ययन ‘यूरोपियन जर्नल ऑफ मैकेनिक्स-ए सॉलिड्स’ में प्रकाशित किया गया है। 

यह पीजेडटी (लेड जिरकोनियम टाइटेनेट) का फाइबर है। पीजेडटी बहुत नाजुक होता है और मैटीरियल की क्षमता बढ़ाने के लिए उसे अपॉक्सी की आवश्यकता होती है। इस मैटीरियल के चयन पर आईआईटी बॉम्बे की प्रोफेसर सुष्मिता नास्कर कहती हैं कि हमने अपॉक्सी को इसलिए चुना, क्योंकि एक तो यह बाजार में आसानी से उपलब्ध है और दूसरे उस पर काम करना भी बहुत सहज है।

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बेहतर पाईजोइलेक्ट्रिक मैटीरियल की यही विशेषता होती है कि उसमें पाईजोइलेक्ट्रिक रिस्पांस बहुत ज्यादा होता है और उसका प्रत्यास्थता गुणांक (इलास्टिक कोफिशेंट) ऊंचा होता है। इसका अर्थ यही है कि वे विमान में कंपन बढ़ने की स्थिति में उसी इलेक्ट्रिक सिग्नल से पाईजोइलेक्ट्रिक डिवाइस ज्यादा प्रतिरोध बल उत्पन्न कर सकती है। छोटा होने के कारण इससे विमान के आकार को भी बेहतर रखने में मदद मिलेगी। प्रोफेसर नास्कर इस बारे में बताती हैं कि उच्च और निम्न प्रत्यास्थता गुणांक का अंतर वही है जो एलुमिनियम और रबड़ के बीच में होता है।

शोध टीम ने सैद्धांतिक और कंप्यूटेशनल मॉडल के आधार पर जीआरपीसी की पाईजोइलेक्ट्रिक रिस्पांस और प्रत्यास्थता गुणांक का परीक्षण किया है। सैद्धांतिक प्रारूप में प्रत्येक उपस्थित तत्व की विशेषताओं और उसी अनुपात में उनके निहितार्थों की परख की गई। कुछ प्रतिरूपों में यह भी विचार किया गया कि विभिन्न तत्व एक दूसरे के साथ किस प्रकार अभिक्रिया करते हैं। जहाँ सैद्धांतिक प्रारूप त्वरित रोशनी डालते हैं, फिर भी उनके सीमित आंकड़ों को देखते हुए उनकी और पड़ताल करने की आवश्यकता है। 

आईआईटी बॉम्बे के शोधकर्ता डॉ. किशोर बालासाहेब शिंगारे कहते हैं कि हमारे कंप्यूटेशनल मॉडल्स में पीजेडटी फाइबर और ग्रिफिन नैनो-पार्टिकल्स के विभिन्न रूपों और ओरियंटेशंस की थाह ली। डॉक्टर शिंगारे ने जीआरपीसी और पारंपरिक पीजेडटी और अपॉक्सी मैटीरियल के गुण दोषों की विवेचना की। उन्होंने एक विद्युत क्षेत्र उत्पन्न कर मैटीरियल को विभिन्न दिशाओं में फैलाया ताकि उसके द्वारा उत्पन्न प्रभावों को परख सकें। उन्होंने पाया कि पाईजोइलेक्ट्रिक और जीआरपीसी की प्रत्यास्थता विशेषता पारंपरिक पीजेडटी मैटीरियल की तुलना में बेहतर है। डॉ. शिंगारे इसे समझाते हैं कि ग्रिफिन हल्का मैटीरियल होते हुए भी बहुत मजबूत है, और जीआरपीसी की बेहतर हुई क्षमताओं की एक बड़ी वजह भी वही है, क्योंकि उसमें पीजेडटी फाइबर और अपॉक्सी के साथ अभिक्रिया के लिए ज्यादा सरफेस उपलब्ध होता है।

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अतीत में ऐसे अध्ययनों का केंद्र मुख्य रूप से विमान ही रहे हैं, लेकिन इस अध्ययन का उपयोग विभिन्न दशाओं को ध्यान में रखकर किया गया है। जैसे इसका उपयोग बायोमेडिकल डिवाइसों में कृत्रिम मांसपेशियों के रूप में भी किया जा सकता है, जिन्हें विभिन्न दिशाओं में घुमाया फिराया जाता है। साथ ही, यह अध्ययन भविष्य में अधिक सक्षम पाईजोइलेक्ट्रिक आधारित डिवाइसों के निर्माण में भी अहम भूमिका निभा सकता है। वहीं, रोबोट या सैटेलाइट निर्माण में हल्के मैटीरियल की आवश्यकता बहुत अधिक महसूस की जा रही है। ऐसे में, इस प्रकार के अध्ययन इन आवश्यकताओं की पूर्ति में भी सहायक सिद्ध हो सकते हैं।

इंडिया साइंस वायर

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