प्रदूषण से भी बढ़ रही है रोगजनक बैक्टीरिया में प्रतिरोधक क्षमता

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गोवा विश्वविद्यालय के सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक डॉ. मिलिंद नायक का कहना है कि “जो रोगाणु पहले एंटीबायोटिक दवाएं लेने से नियंत्रित हो जाते थे, अब उन पर एंटीबायोटिक दवाओं का प्रभावी असर नहीं पड़ रहा है।

वास्को-द-गामा (गोवा)। अभी तक यही माना जाता है कि एंटीबायोटिक दवाओं के दुरुपयोग या अत्यधिक सेवन से जीवाणुओं में प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न होती है। अब नये शोध से पता चला है कि भारी धातुएं, माइक्रो-प्लास्टिक (प्लास्टिक के कण) और स्वयं एंटीबायोटिक भी जीवाणुओं में एक से अधिक जैव प्रतिरोधी दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने के लिए जिम्मेदार हैं।

वैज्ञानिकों के अनुसार औद्योगिक एवं खनन अपशिष्ट, सीवेज प्रदूषण, कृषि और जलीय कृषि से प्रभावित पर्यावरण एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता रखने वाले बैक्टीरिया के विकास के प्रमुख केंद्र बन रहे हैं। पर्यावरण में मौजूद भारी धातुओं और बारीक प्लास्टिक कणों जैसे प्रदूषकों की वजह से रोगजनक जीवाणुओं पर चयन का दबाव बढ़ रहा है और उनमें एक प्रकार का सह-चयन तंत्र विकसित हो रहा है। इस कारण उन जीवाणुओं में एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि हो रही है। एक से अधिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता (Multi Drug Resistance) रखने वाले रोगजनक जीवाणुओं की बढ़ती संख्या चिंता का विषय बन रही है।

जीवाणुओं को एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बनाने के लिए जिम्मेदार कारक

गोवा विश्वविद्यालय के सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक डॉ. मिलिंद नायक का कहना है कि “जो रोगाणु पहले एंटीबायोटिक दवाएं लेने से नियंत्रित हो जाते थे, अब उन पर एंटीबायोटिक दवाओं का प्रभावी असर नहीं पड़ रहा है। रोगाणुओं में देखी जा रही प्रतिजैविक प्रतिरोधकता एक विकासशील प्रक्रिया है, जो रोगजनक के चयन पर आधारित होती है। रोगजनक जीवाणुओं ने अपने प्रदूषकों के साथ मिलकर अपने भीतर सह-चयन तंत्र विकसित कर लिया है, जिससे उनमें एक से अधिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो रही है। भविष्य में इस तरह के रोगजनक जीवाणु मानव स्वास्थ्य के लिए एक बड़ी चुनौती खड़ी कर सकते हैं।

जीवाणुओं की आनुवंशिक बनावट के कारण उनमें मूलभूत प्रतिरोधक क्षमता होना स्वाभाविक है। शोध पत्रिका कीमोस्फियर में प्रकाशित एक ताजा अध्ययन के अनुसार, अब प्रदूषकों का बढ़ता स्तर भी जीवाणुओं की प्रतिरोधक क्षमता में बढ़ोत्तरी का जरिया बन रहा है। जीवाणुओं में प्रतिरोधक क्षमता के लिए आनुवांशिक स्तर पर जीन आधारित दो प्रकार की प्रतिरोध प्रक्रियाएं सह-प्रतिरोध या क्रॉस-प्रतिरोध काम करती हैं। जब जीवाणु विभिन्न यौगिकों के प्रतिरोध के लिए केवल एक जीन के उपयोग से प्रतिरोध जताता है तो उसे क्रॉस-प्रतिरोध कहा जाता है। जबकि एंटीबायोटिक जैसे यौगिकों के प्रति प्रतिरोध दर्शाने के लिए जब जीवाणु अपने दो या उससे अधिक विभिन्न प्रतिरोधी जीनों का उपयोग एक साथ करता है, तो वह सह-प्रतिरोध कहलाता है।

कई तरह की बीमारियां जैसे टायफाइड, निमोनिया आदि फैलाने वाले रोगजनक जीवाणु अपने एंटीबायोटिक प्रतिरोधी जीन्स के साथ-साथ भारी धातुओं और माइक्रोप्लास्टिक प्रतिरोधी जीन्स वाले प्लास्मिड्स, ट्रांसपोजन्स तथा इंटीग्रन्स जैसे आनुवांशिक तत्वों के साथ मिलकर सह-प्रतिरोधकता उत्पन्न करते जा रहे हैं। यह सह-प्रतिरोधकता क्षैतिज आनुवंशिक विनिमय द्वारा पिछली पीढ़ियों और डीएनए के आनुवंशिक पुनर्संयोजन से विरासत में मिले परिवर्तन के शीर्ष संचरण के माध्यम से जीवाणुओं में आगे प्रसारित हो रही है।

एंटीबायोटिक दवाओं को बनाने वाली फर्मों और अस्पतालों में इनके उपयोग से निकलने वाले अपशिष्टों में भी एंटीबायोटिक यौगिकों की प्रचुर मात्रा होती है, जो असुरक्षित निपटारे के कारण जलीय और स्थलीय पारिस्थितिक तंत्रों में पहुंच जाते है। इस तरह एंटीबायोटिक दवाएं विभिन्न खाद्य श्रृंखलाओं के जरिये मनुष्य के अलावा अन्य जीवों में भी पहुंच जाती हैं। पशु उत्पादन बढ़ाने के लिए बड़ी मात्रा में प्रयुक्त एंटीबायोटिक्स के कारण पशुओं के मलमूत्र में भी एंटीबायोटिक्स पाए जाते हैं। जब कृषि के लिए खाद के रूप में इनका उपयोग किया जाता है तो वे खेतों में पहुंचकर मिट्टी और फिर वर्षा के माध्यम से जलाशयों तक पहुंचकर जल को प्रदूषित करते हैं। एंटीबायोटिक का सेवन करने वाले रोगियों के मलमूत्र में भी एंटीबायोटिक्स के सक्रिय अंश होते हैं जो सीवेज के गंदे पानी में पहुंच जाते हैं।

गोवा विश्वविद्यालय के जैव प्रौद्योगिकी विभाग के डॉ. इमरान का मानना है कि विभिन्न मानव जनित गतिविधियों के कारण लगभग सभी पारिस्थितिक तंत्रों में एंटीबायोटिक पहुंच रहे हैं। भारी धातुओं की विषाक्तता से बचने के लिए जीवाणुओं ने अपने भीतर खास तंत्र विकसित कर लिया है। जीवाणुओं में विकसित भारी धातुओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता एंटीबायोटिक दवाओं से लड़ने की उनकी क्षमता को मजबूत कर रही है। इस कारण अनेक रोगजनक जीवाणु कैडमियम, क्रोमियम और मरकरी जैसी भारी धातुओं और माइक्रोप्लास्टिक जैसे प्रदूषकों के साथ सह-चयन प्रक्रिया करने लगे हैं। 

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) का अनुमान है कि वर्ष 2050 तक मछलियों की तुलना में महासागरों में माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा अधिक होगी। डॉ. मिलिंद के अनुसार, जीवाणु माइक्रोप्लास्टिक द्वारा अपनी कोशा सतह पर बायोफिल्म बनाने में सक्षम हो रहे हैं। भविष्य में माइक्रोप्लास्टिक जीवाणुओं को एंटीबायोटिक प्रतिरोधी बनाने वाला एक बड़ा वाहक साबित हो सकता है।

पिछले दो सालों में हुए कुछ शोधों के परिणामों से पता चला है कि प्राकृतिक रूप से मिट्टी के कटाव की प्रक्रिया के दौरान माइक्रोप्लास्टिक कुछ हानिकारक रसायन स्रावित करते हैं, जिससे सतह पर डीडीटी, टायलोसिन जैसे कार्बनिक प्रदूषकों अथवा अपशिष्टों में उपस्थित एंटीबायोटिक और भारी धातुएं, जैसे- निकल, कैडमियम, लेड आदि चिपक जाते हैं। इस प्रकार माइक्रोप्लास्टिक इन खतरनाक प्रदूषकों के स्रोत और वाहक दोनों के रूप में काम कर रहा है। वैज्ञानिकों ने वाइब्रियो नामक मानव रोगजनक को एक ऐसे खतरनाक सहयोगी के तौर पर रिपोर्ट किया है जो समुद्री पर्यावरण में माइक्रोप्लास्टिक को फैलाने के लिए संभावित वाहक का काम कर सकता है।

निश्चित तौर पर दुनियाभर में स्थलीय और जलीय वातावरण में भारी धातुओं, एंटीबयोटिक और माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए रणनीतियों को विकसित करने की आवश्यकता है। 

(इंडिया साइंस वायर)

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