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जामुन की पैदावार के लिए खतरा बन सकता है छिद्रक कीट
- उमाशंकर मिश्र
- अक्टूबर 12, 2019 16:02
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जामुन को नुकसान पहुंचाने वाला यह एक हाइमेनोप्टेरान कीट है। यूलोफिडे परिवार के इस फाइटोफैगस (वनस्पतियों को खाने वाले) कीट का लार्वा जामुन के बीजों को खाता है। कीट से ग्रस्त बीजों की अंकुरण क्षमता प्रभावित होती है, जो जामुन उत्पादकों के लिए चुनौती बनकर उभर सकता है।
नई दिल्ली।(इंडिया साइंस वायर): कीटों का आक्रमण हो जाए तो फलों की पैदावार प्रभावित होने के साथ-साथ उनका स्वाद और रंग-रूप भी बिगड़ जाता है। भारतीय शोधकर्ताओं ने जामुन के फलों के विकास के ऐसे महत्वपूर्ण चरणों का पता लगाया है, जो अनसेल्मेला केरची नामक छिद्रक कीट के प्रकोप के प्रति संवेदनशील होते हैं। इस नए शोध से मिली जानकारी इस कीट से निपटने के लिए प्रभावी रणनीति बनाने में मददगार हो सकती है।
अनसेल्मेला केरची कीट जामुन के फलों को बदरंग और बेस्वाद बनाकर नष्ट कर देता है। इन कीटों के प्रकोप से जामुन के फलों पर गहरे काले रंग के छेद हो जाते हैं और फल का 62 प्रतिशत तक हिस्सा नष्ट हो जाता है। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने अनसेल्मेला केरची के प्रकोप से बेंगलुरु के ग्रामीण इलाकों में जामुन की फसल को बड़े पैमाने पर नुकसान होने का भी पता लगाया है।
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जामुन को नुकसान पहुंचाने वाला यह एक हाइमेनोप्टेरान कीट है। यूलोफिडे परिवार के इस फाइटोफैगस (वनस्पतियों को खाने वाले) कीट का लार्वा जामुन के बीजों को खाता है। कीट से ग्रस्त बीजों की अंकुरण क्षमता प्रभावित होती है, जो जामुन उत्पादकों के लिए चुनौती बनकर उभर सकता है। बेंगलुरु के भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया यह अध्ययन शोध पत्रिका करंट साइंस में प्रकाशित किया गया है।
अध्ययन के दौरान कीट से ग्रस्त जामुन के पेड़ों से फल एकत्रित करके उन्हें आकार, रंग, कठोरता के आधार पर पांच वर्गों में बांटा गया और फिर फलों का व्यास एवं लंबाई, बीजकोष की मोटाई और बीजों का व्यास दर्ज किया गया। करीब 25 डिग्री सेल्सियस तापमान पर प्लास्टिक के डिब्बों में फलों को व्यस्क कीटों के बाहर निकलने तक रखा गया। इस बीच कीटों के बाहर निकलने, फलों पर निकास छेदों की संख्या और उनका व्यास दर्ज किया गया। इसके बाद, कीटों से ग्रस्त फलों पर चीरा लगाकर उनके वास्तविक स्वरूप में हुई क्षति का आकलन किया गया है।
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फलों को चीरकर देखने पर उनमें पूर्ण रूप से विकसित 10-15 व्यस्क कीट देखे गए हैं। अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि कीटों का प्रकोप फलों के चौथे और पांचवें चरण में सबसे अधिक होता है और नर कीटों की तुलना में मादा कीटों की संख्या अधिक देखी गई है। फल के बाहरी हिस्से पर उभरने वाले निकास छिद्र फल की मध्य परत से होते हुए बीज के भीतर कीट लार्वा को पोषित करने वाले केंद्र जुड़े होते हैं।
फलों के विकास के विभिन्न चरणों का साकारत्मक संबंध इन काले छिद्रों के उभरने से पाया गया है। शोधकर्ताओं के अनुसार, फलों के विकास का दूसरा चरण इन कीटों के प्रकोप के लिए अधिक संवेदनशील होता है। इस दौरान वनस्पतियों से बने कीटनाशकों का उपयोग कीटों के प्रकोप को कम करने में मदद मिल सकती है।
जामुन सियाजियम प्रजाति का फल है। क्वींसलैंड, मलेशिया और पपुआ न्यू गिनी जैसे देशों में अनसेल्मेला वंश की दूसरी कीट प्रजातियां अनसेल्मेला मिल्टोनी, अनसेल्मेला मैलेसिया और अनसेल्मेला ओकल्ट सियाजियम प्रजाति के फलों- ब्रश चेरी, लिलि पिली और जावा ऐपल के लिए प्रमुख खतरे के रूप में देखी गई हैं।
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बेंगलुरु स्थित राष्ट्रीय कृषि कीट संसाधन ब्यूरो के डाटाबेस में जामुन को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों की करीब 78 प्रजातियों का उल्लेख किया गया है। हालांकि, डाटाबेस में मौजूद कीटों में से किसी का संबंध अनसेल्मेला केरची से नहीं मिलता है। इसी से पता चलता है कि इस कीट से जामुन पर पड़ने वाले दुष्परिणामों की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। शोधकर्ताओं का कहना है कि समय रहते इस कीट की रोकथाम न की गई तो यह जामुन की पैदावार को बड़े पैमाने पर प्रभावित कर सकता है।
भारत में अनसेल्मेला केरची प्रजाति के कीट पहली बार वर्ष 1957 में पुणे में पाए गए थे। हालांकि, अनसेल्मेला केरची छिद्रक कीट के कारण जामुन को होने वाले नुकसान और इसके आर्थिक महत्व के बारे में विस्तृत अध्ययन नहीं किया गया। शोधकर्ताओं में पी.डी. कमला जयंती, अंजना सुब्रमण्यम, ए. रेखा और बी. आरा. जयंती माला शामिल थे।
(इंडिया साइंस वायर)
दिल्ली में भूकंप स्रोतों की पहचान के लिए सर्वेक्षण
- इंडिया साइंस वायर
- जनवरी 15, 2021 13:32
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हाल के वर्षों में दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में भूकंप की कई घटनाएं दर्ज की गई हैं। भूकंप की बार-बार होने वाली घटनाओं को देखते हुए भूकंप के स्रोतों को चिह्नित करने की आवश्यकता महसूस की जा रही थी।
भू-वैज्ञानिकों का मानना है कि दिल्ली और इसके आसपास के क्षेत्र भूकंप की दृष्टि से संवेदनशील हैं, और यहाँ 7.9 की तीव्रता वाला भूकंप आ सकता है। इतनी अधिक तीव्रता के भूकंप से बड़े पैमाने पर जान-माल के नुकसान की आशंका रहती है। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अंतर्गत कार्यरत राष्ट्रीय भूकंप विज्ञान केंद्र (एनसीएस) द्वारा दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में भूकंप के खतरे का सटीक आकलन करने के लिए भू-भौतिकीय सर्वेक्षण किया जा रहा है। एनसीएस के वैज्ञानिकों का कहना है कि यह पहल भूकंप के कारण होने वाले नुकसान को कम करने से संबंधित रणनीतियों के विकास में मददगार हो सकती है। एनसीएस यह अध्ययन भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), कानपुर के सहयोग से कर रहा है।
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हाल के वर्षों में दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में भूकंप की कई घटनाएं दर्ज की गई हैं। भूकंप की बार-बार होने वाली घटनाओं को देखते हुए भूकंप के स्रोतों को चिह्नित करने की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। एनसीएस की इस पहल के अंतर्गत भूकंपीय खतरों के सटीक आकलन के लिए उपग्रह से प्राप्त तस्वीरों और भू-गर्भ क्षेत्र शोध का विश्लेषण और व्याख्या की जा रही है। इस अध्ययन से प्राप्त जानकारी का उपयोग भूकंप-रोधी इमारतों, औद्योगिक इकाइयों, अस्पतालों, स्कूलों आदि को डिजाइन करने के लिए किया जा सकता है। इसके अलावा, हाइड्रोकार्बन (तेल और गैस) अन्वेषण, भू-तापीय अन्वेषण, कार्बन अनुक्रम, खनन अन्वेषण तथा हाइड्रोकार्बन और भूजल की निगरानी में भी इस तरह प्राप्त जानकारियों का उपयोग होता है।
भू-वैज्ञानिकों ने भूकंप के खतरे की दृष्टि से पूरे देश को पाँच जोन में विभाजित किया है। भूकंप के आसन्न खतरे के प्रति सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्रों को जोन-5 में रखा गया है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली और उसके आपपास के इलाकों को जोन-4 की श्रेणी में रखे गए हैं। भू-वैज्ञानिकों का कहना है कि स्थानीय भूकंपीय नेटवर्क को सुदृढ़ करना और भ्रंश (फाल्ट) जैसी उप-सतह की विशेषताओं की रूपरेखा तैयार करना जरूरी है, जो भूकंप का कारण बन सकते हैं। भ्रंश (फाल्ट), धरती के अन्दर की चट्टान में टूट-फूट या दरार को कहा जाता है।
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दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में ज्ञात भ्रंश (फाल्ट) को कवर करने के लिए 11 अस्थायी अतिरिक्त स्टेशनों की तैनाती के साथ भूकंप नेटवर्क को मजबूत बनाया जा रहा है। इससे भूकंप के कारणों की बेहतर समझ के लिए भूकंप पैदा होने व बाद के झटकों का सटीक स्थान-निर्धारण किया जा सकेगा। इन स्टेशनों से डेटा लगभग वास्तविक समय पर प्राप्त किया जा सकता है। इस डेटा का उपयोग संबंधित क्षेत्र के सूक्ष्म और छोटे भूकंपों का पता लगाने के लिए उपयोग किया जा सकता है। इस विस्तारित नेटवर्क से अब भूकंप-केंद्र के निर्धारण में दो किलोमीटर तक की सटीकता आयी है।
दिल्ली क्षेत्र में भू-भौतिकीय सर्वेक्षण- मैग्नेटोटेल्यूरिक (विद्युत चुम्बकीय-भू-सतह) भी किया जा रहा है। मैग्नेटोटेल्यूरिक (MT) एक भू-भौतिकीय पद्धति है, जिसमें भूगर्भीय संरचनाओं एवं गतिविधियों के अध्ययन के लिये पृथ्वी के चुंबकीय एवं विद्युत क्षेत्रों की भिन्नता का उपयोग किया जाता है। इस विधि के द्वारा भूकंप उत्प्रेरण की संभावना को बढ़ाने वाले तत्वों, जैसे मैग्मा आदि की आवृत्ति को मापा जाता है। इस विधि द्वारा 300 से 10,000 मीटर तक की गहराई में उच्च आवृत्तियों को रिकॉर्ड किया जा सकता है। इसके लिये प्रायः तीन प्रमुख भूकंपीय स्रोतों, महेंद्रगढ़-देहरादून फॉल्ट (MDF), सोहना फॉल्ट (SF) और मथुरा फॉल्ट (MF) से मापों को लिया जाता है। इस सर्वेक्षण में वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान, देहरादून भी एक भागीदार है।
पिछले साल अप्रैल से अगस्त महीनों के दौरान राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीटी)- दिल्ली में चार छोटे-छोटे भूकंप की घटनाएं दर्ज की गईं। इनमें से 3.5 तीव्रता का पहला भूकंप लॉकडाउन के दौरान एनसीटी दिल्ली की पूर्वोत्तर सीमा में 12 अप्रैल, 2020 को आया था। इन भूकंपों के बाद रिक्टर पैमाने पर 3.0 से कम तीव्रता की लगभग एक दर्जन सूक्ष्म घटनाओं का अनुभव किया गया, जिनमें बाद में आने वाले कुछ झटके (आफ्टरशॉक्स) भी शामिल हैं।
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भू-वैज्ञानिकों का कहना है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में भूकंप की इन घटनाओं के केंद्र तीन अलग-अलग क्षेत्रों में आते हैं। इन क्षेत्रों में, उत्तर-पूर्वी दिल्ली की सीमा, रोहतक (हरियाणा) के दक्षिण-पूर्व में 15 किलोमीटर तक का क्षेत्र और फरीदाबाद (हरियाणा) से17 किलोमीटर पूर्व तक का क्षेत्र शामिल है। भूकंप की इन घटनाओं का स्थान निर्धारण राष्ट्रीय भूकंप विज्ञान केंद्र (एनसीएस) द्वारा संचालित राष्ट्रीय भूकंपीय नेटवर्क (एनएसएन) द्वारा किया गया है।
भू-भौतिकीय और भूगर्भीय दोनों जमीनी सर्वेक्षणों के 31 मार्च 2021 तक पूरा होने की उम्मीद है। इससे पहले पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की एक महत्वकांक्षी परियोजना के अंतर्गत भूकंप के खतरे से ग्रस्त जोन-4 और जोन-5 में शामिल क्षेत्रों की माइक्रो-मैपिंग भी की जा रही है, जो भूकंप-रोधी शहरों के विकास और अत्यधिक आबादी वाले क्षेत्रों में इमारतों की सुरक्षा एवं जान-माल के नुकसान को कम करने में उपयोगी हो सकती है।
(इंडिया साइंस वायर)
कोरोना से लड़ने के लिए आप तक ऐसे पहुँचेगी वैक्सीन!
- इंडिया साइंस वायर
- जनवरी 11, 2021 20:13
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टीकाकरण के लिए केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों के साथ मिलकर विभिन्न टास्क फोर्स गठित किए हैं। हालांकि, टीकाकरण शुरू होगा तो कैसे कोरोना वैक्सीन, फैक्टरी से टीकाकरण केंद्र तक पहुँचेगी, यह जानना भी कम दिलचस्प नहीं है।
कोविड-19 संक्रमण के लिए जिम्मेदार कोरोना वायरस के विरुद्ध भारत ने निर्णायक युद्ध के लिए कमर कस ली है। कोरोना वैक्सीन के उपयोग को मंजूरी मिलने के बाद पूरे देश में युद्ध स्तर पर इसके टीकाकरण की तैयारियां चल रही हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, 16 जनवरी से विश्व का यह सबसे बड़ा टीकाकरण कार्यक्रम शुरू हो रहा है। तीन जनवरी 2021 को ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) द्वारा दो टीकों (कोविशील्ड और कोवैक्सीन) के आपात उपयोग की मंजूरी मिलने के बाद अब चुनौती इस टीकाकरण को समुचित रूप से अंजाम देने की है। यही कारण है कि देश के विभिन्न राज्यों में कई दौर के ट्रायल और हर जरूरतमंद व्यक्ति तक वैक्सीन पहुँचाने की पुख्ता व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए सशक्त रणनीति तैयार की गई है।
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कोविशील्ड और कोवैक्सीन को मंजूरी
भारत में सीमित आपात उपयोग (रिस्ट्रिक्टेड इमरजेंसी यूज़ ऑथराइजेशन) के लिए दो कोरोना वैक्सीन - कोविशील्ड और कोवैक्सीन को अनुमति मिली है। कोविशील्ड को ऑक्सफोर्ड और एस्ट्रजेनका के संयुक्त प्रयास में पुणे स्थित कंपनी सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा तैयार किया गया है। वहीं, कोवैक्सीन का निर्माण हैदराबाद की जैव प्रौद्योगिकी कंपनी भारत बायोटेक ने किया है। टीकाकरण के पहले चरण में 30 करोड़ लोगों को वैक्सीन दिए जाने की योजना है। स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा इस महत्वकांक्षी टीकाकरण कार्यक्रम की रूपरेखा पहले ही तैयार कर ली गई है। उत्तर प्रदेश, हरियाणा और अरुणाचल प्रदेश को छोड़कर बाकी सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों के 736 जिलों में वैक्सीन पर ड्राई रन किया गया। उत्तर प्रदेश, हरियाणा और अरुणाचल प्रदेश को छोड़कर बाकी सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों के 736 जिलों में वैक्सीन पर ड्राई रन किया गया।
निर्धारित प्रोटोकॉल के मुताबिक टीकाकरण
निर्धारित प्रोटोकॉल के मुताबिक प्राथमिक रूप से हेल्थकेयर वर्कर यानी डॉक्टर, नर्स, पैरामेडिकल स्टाफ और स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े अन्य लोगो को वैक्सीन दी जाएगी, जिनकी संख्या करीब एक करोड़ बतायी जा रही है। इसके बाद करीब दो करोड़ फ्रंटलाइन वर्कर, जिसमें राज्य पुलिस, अर्ध सैनिक बल, सैन्य बल और सैनिटाइजेशन वर्कर शामल हैं, को यह वैक्सीन दी जाएगी। हेल्थकेयर वर्कर और फ्रंटलाइन वर्कर्स को पंजीकरण नहीं कराना होगा, क्योंकि इनका डेटा सरकार के पास उपलब्ध है। पहले चरण में सबसे अधिक 27 करोड़ ऐसे लोग शामिल होंगे, जिनकी उम्र 50 साल से ज्यादा है, या फिर ऐसे लोग, जिन्हें पहले से ही कोई गंभीर बीमारी है। इस पूरे अभियान की तत्परता का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि टीकाकरण कार्यक्रम का बिगुल बजने से पहले दो बार पूरी प्रक्रिया का ड्राई रन यानी मॉक ड्रिल किया जा चुका है।
उत्पादन इकाई से टीकाकरण केंद्र तक
टीकाकरण के लिए केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों के साथ मिलकर विभिन्न टास्क फोर्स गठित किए हैं। हालांकि, टीकाकरण शुरू होगा तो कैसे कोरोना वैक्सीन, फैक्टरी से टीकाकरण केंद्र तक पहुँचेगी, यह जानना भी कम दिलचस्प नहीं है। वैक्सीन का निर्माण कंपनी की उत्पादन इकाई में होता है, जहाँ से इसे भारत सरकार के गवर्न्मेंट मेडिकल स्टोर डिपार्टमेंट द्वारा संचालित प्राइमरी वैक्सीन स्टोर (जीएमसीडी) में भेजा जाएगा। स्वास्थ्य सेवा महानिदेशालय, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के मेडिकल स्टोर संगठन में मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, हैदराबाद, गुवाहाटी, करनाल और नई दिल्ली स्थित सात मेडिकल स्टोर डिपो शामिल हैं। उत्पादनकर्ता कंपनी हवाई यातायात के माध्यम से वैक्सीन इन जीएमसीडी डिपो पर भेजती है, जहाँ से इसे राज्यों के वैक्सीन डिपो तक पहुँचाया जाता है।
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भारत में इस समय कुल 37 राज्य वैक्सीन स्टोर हैं। रेफ्रिजरेटेड या इंसुलेटेड बैंक के जरिये वैक्सीन यहाँ तक पहुँचती है। इन भंडारण-केंद्रों से वैक्सीन को आगे पहुँचाने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों की होती है। राज्यों के वैक्सीन डिपो से प्रदेश सरकार द्वारा जिला वैक्सीन स्टोर में कोरोना वैक्सीन को रेफ्रिजरेटेड या इंसुलेटेड वैन के जरिये भेजा जाएगा, जो तापमान नियंत्रित केंद्र होता है। चिह्नित किए गए वैक्सीन केंद्रों तक वैक्सीन को ताप नियंत्रित ट्रांसपोर्ट डिवाइस में भेजा जाएगा। इस तरह के वैक्सीन केंद्रों में जिला अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, या फिर उप-स्वास्थ्य केंद्र शामिल हो सकते हैं। हालांकि, टीकाकरण की तारीख और स्थान का निर्धारण जिला प्रशासन करेगा।
CoWin ऐप रखेगा अपडेट
भारत में आम जनता को वैक्सीन लगवाने के लिए CoWin ऐप डाउनलोड करना होगा। हालांकि, ध्यान देने की बात यह भी है कि गूगल प्ले स्टोर पर CoWin से मिलते-जुलते नाम वाले कई अन्य ऐप पहले से बन गए हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा है कि टीकाकरण अभियान शुरू होने से पहले CoWin ऐप लॉन्च किया जाएगा, जिसके बाद लोग इसे डाउनलोड कर सकेंगे। वैक्सीन लगवाने के लिए 12 भाषाओं में उपलब्ध इस ऐप पर पंजीकरण करना होगा। वैक्सीन की दो डोज लेने के बाद इस ऐप से सर्टिफिकेट भी मिलेगा। टीकाकरण के बाद किसी को परेशानी होती है तो साइड इफेक्ट मॉनिटरिंग की व्यवस्था भी इस ऐप में ही है। इस ऐप को डिजीलॉकर से भी जोड़ा जा रहा है, ताकि वैक्सीन लगने के बाद सर्टिफिकेट इसी ऐप में सुरक्षित रखा जा सके। 24 घंटे की हेल्पलाइन और Chatbot भी ऐप में उपलब्ध होगा।
(इंडिया साइंस वायर)
आईआईटी खड़गपुर ने बनाया गन्ने की रोपाई के लिए स्वचालित उपकरण
- इंडिया साइंस वायर
- जनवरी 9, 2021 13:29
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ट्रैक्टर-चालित यह कली रोपण मशीन तैयार गन्ने की कलियों के रोपण और कवकनाशी के छिड़काव के लिए विकसित की गई है। इसमें दो पंक्तियों में गन्ने की कली के रोपण का तंत्र और सेंसर-आधारित कवकनाशी अनुप्रयोग प्रणाली शामिल है।
गन्ना एक वैश्विक औद्योगिक फसल है, जो चीनी, जैव ऊर्जा, पेपर, इथेनॉल, बिजली आदि के उत्पादन से जुड़ा एक प्रमुख संसाधन है। वैश्विक स्तर पर गन्ने के उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी 17 प्रतिशत है। लेकिन, खेती के पारंपरिक तरीकों के कारण किसानों को बीज सामग्री के रूप में उपयोग किए जाने वाली गन्ने की डंठल का नुकसान उठाना पड़ता है। उत्पादन की इस पद्धति में श्रम व समय अधिक लगने के साथ-साथ उत्पादन लागत भी बढ़ जाती है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) खड़गपुर के शोधकर्ताओं ने गन्ने की खेती से संबंधित कार्यों के स्वचालित रूप से निपटारे के लिए एक विशिष्ट उपकरण विकसित किया है। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह उपकरण गन्ने की रोपाई और कवकनाशी दवाओं के छिड़काव में उपयोगी हो सकता है।
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गन्ने की रोपाई से संबंधित यह उपकरण एक दृष्टि-आधारित गन्ने की कलियां काटने की मशीन है, जिसमें ट्रैक्टर से संचालित एक रोपाई मशीन भी शामिल है। इस मशीन में गन्ने का फीडिंग सिस्टम, गन्ने की कलियों की पहचान के लिए मशीन विज़न सिस्टम और गन्ने की कलियों की कटाई के लिए मेकाट्रॉनिक्स (Mechatronics) सिस्टम शामिल है। मेकाट्रॉनिक्स, इंजीनियरी की एक ऐसी शाखा है, जिसमें यांत्रिक इंजीनियरी, रोबोटिक्स, इलेक्ट्रॉनिकी, संगणक इंजीनियरी, संचार इंजीनियरी, सिस्टम इंजीनियरी, और नियंत्रण इंजिनीयरी आदि आधारित मिश्रित प्रणाली का अध्ययन और डिजाइन किया जाता है।
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ट्रैक्टर-चालित यह कली रोपण मशीन तैयार गन्ने की कलियों के रोपण और कवकनाशी के छिड़काव के लिए विकसित की गई है। इसमें दो पंक्तियों में गन्ने की कली के रोपण का तंत्र और सेंसर-आधारित कवकनाशी अनुप्रयोग प्रणाली शामिल है। आईआईटी खड़गपुर के निदेशक प्रोफेसर वीरेंद्र के. तिवारी ने कहा है कि “यह तकनीक भारत जैसे गन्ना उत्पादक देशों में औद्योगिक और स्थानीय स्तर पर उपयोग के लिए महत्वपूर्ण है, जहाँ स्वचालित तकनीकों का प्रचलन कम है। यह प्रणाली गन्ने के रोपण के लिए अपनाए गए पारंपरिक तरीकों के मुकाबले रोपण सामग्री के उपयोग को कम करने में मदद कर सकती है। इससे गन्ने की कलियों की अधिक मात्रा को बचा सकते हैं और कच्चे माल की क्षति कम कर सकते हैं।”
(इंडिया साइंस वायर)

