जनजातियों का पारंपरिक खगोलीय ज्ञान वैज्ञानिकों को दे सकता है नई दिशा

Traditional Astronomical Knowledge of Tribes

भारत की जनजातियों का खगोल-विज्ञान संबंधी पारंपरिक ज्ञान अनूठा है। मुंबई स्थित टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च के वैज्ञानिकों ने मध्य भारत की चार जनजातियों के पारंपरिक ज्ञान पर किए गए गहन अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है।

शुभ्रता मिश्रा। वास्को-द-गामा (गोवा), (इंडिया साइंस वायर): भारत की जनजातियों का खगोल-विज्ञान संबंधी पारंपरिक ज्ञान अनूठा है। मुंबई स्थित टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च के वैज्ञानिकों ने मध्य भारत की चार जनजातियों के पारंपरिक ज्ञान पर किए गए गहन अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है।

महाराष्ट्र के नागपुर क्षेत्र की गोंड, बंजारा, कोलम और कोरकू जनजातियों के पारंपरिक खगोलीय ज्ञान पर चार सालों के विस्तृत शोध में वैज्ञानिकों ने पाया है कि मुख्यधारा से कटी रहने वाली ये जनजातियां खगोल-विज्ञान के बारे में आम लोगों से अधिक व महत्वपूर्ण जानकारियां रखती हैं। यह ज्ञान उनमें आनुवांशिक रूप से परंपराओं के जरिये पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है। यह भी पाया गया है कि गोंड जनजाति के लोगों का खगोल संबंधी ज्ञान अन्य जनजातियों से काफी अधिक है। 

अध्ययन के दौरान गांवों में जाकर जनजातियों से उनकी परंपरागत खगोलीय जानकारियों को प्राप्त किया गया है। साथ ही गोंड जनजाति के लोगों को नागपुर के तारामंडल में बुलाकर उनके खगोलीय ज्ञान का परीक्षण भी किया गया है। तारामंडल में कंप्यूटर सिमुलेशन के माध्यम से पूरे वर्ष के आकाश की स्थितियों को तीन दिनों में दिखाकर गोंड लोगों के साथ विस्तृत चर्चा के बाद वैज्ञानिकों ने ये निष्कर्ष निकाले हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि “इन जनजातियों के खगोलीय ज्ञान भले ही आध्यात्मिक मान्यताओं और किंवदंतियों से जुड़ा हो, पर उसमें सार्थक वैज्ञानिकता समाहित है और देश के अन्य भागों में रहने वाली जनजातियों के खगोलीय ज्ञान पर भी शोध करने की आवश्यकता है। जनजातियों का पारंपरिक ज्ञान खगोल-वैज्ञानिक अध्ययन के विकास में एक प्रमुख घटक साबित हो सकता है।” 

आश्चर्यजनक रूप से यह पाया गया है कि ये सभी जनजातियां खगोल-विज्ञान की गहरी जानकारी रखती हैं। उनका यह ज्ञान मूलतः सप्तऋषि, ध्रुवतारा, त्रिशंकु तारामंडल, मृगशिरा, कृतिका, पूर्व-भाद्रपद, उत्तर-भाद्रपद नक्षत्रों और वृषभ, मेष, सिंह, मिथुन, वृश्चिक राशियों की आकाश में स्थितियों पर केंद्रित है। 

आकाशगंगा के बारे में भी जनजातीय लोग अच्छी जानकारी रखते हैं। हालांकि, रात में सभी तारों में से सबसे ज्यादा चमकीले नजर आने वाले व्याध तारा (Sirius) और अभिजित तारा (Vega) के बारे में उनको कोई ज्ञान नहीं है। सभी आकाशीय पिंडों को लेकर प्रत्येक जनजाति की अलग-अलग परन्तु सटीक अवधारणाएं हैं और ये जनजातियां अपनी खगोल-वैज्ञानिक सांस्कृतिक जड़ों के बारे में बहुत ही रूढ़िवादी पाई गई हैं।

आमतौर पर मानसून के कारण भारत में मई से अक्तूबर के बीच आसमान में तारे कम ही दिखाई देते हैं। अतः इन जनजातियों की खगोलीय अवधारणाएं नवंबर से अप्रैल तक आकाश में दिखने वाले तारामंडलों पर विशेष रूप से केंद्रित होती हैं। शोधकर्ताओं ने एक रोचक बात यह भी देखी है कि ज्यादातर जनजातियां ग्रहों में केवल शुक्र और मंगल का ही उल्लेख करती हैं, जबकि अन्य ग्रहों की वे चर्चा नहीं करती हैं। 

गोंड जनजाति के लोग चित्रा नक्षत्र और सिंह राशि के बारे में भी अच्छी जानकारी रखते हैं। जनजातियों को सूर्य व चंद्र ग्रहणों के बारे में भी विस्तृत जानकारी है। धार्मिक एवं मिथकीय कार्यों में उनकी खगोल-वैज्ञानिक मान्यताओं और विश्वासों के दर्शन होते हैं। जैसे वे सप्तऋषि तारामंडल के चार तारों से बनी आयताकार आकृति को चारपाई और शेष तीन तारों से बनी आकृति को आकाशगंगा की ओर जाने वाला रास्ता मानते हैं। उनकी मान्यता है कि इस चारपाई पर लेटकर लोग उस रास्ते से मोक्षधाम को जाते हैं। सभी जनजातियां आकाशगंगा को मोक्ष का मार्ग मानती हैं। हर नक्षत्र और राशि के तारामंडलों को लेकर ऐसी बहुत-सी किंवदंतियां प्रचलित हैं। बंजारा, कोलम और कोरकू जनजातियों में विभिन्न देवी-देवताओं को लेकर खगोलीय पिंडों के साथ अनेक कथाएं भी जुड़ी हैं। 

आधुनिक खगोल-वैज्ञानिक विश्लेषणों की तरह ही ये जनजातियां भी आकाश में तारामंडलों के किसी जानवर विशेष की तरह दिखने और फिर उसकी विभिन्न बनती-बिगड़ती स्थितियों के आधार पर भविष्यवाणियां करती हैं। भौर के तारे और सांध्यतारा के नाम से मंगल और शुक्र ग्रहों की भी उनको अच्छी जानकारी है। उनका मानना है कि ये दोनों ग्रह हर अठारह महीने के अंतराल पर एक दूसरे के निकट आते हैं और इसलिए वे इस समय को विवाह के लिए शुभ मानते हैं। अध्ययनकर्ताओं की टीम में प्रोफेसर एम.एन. वाहिया और डॉ. गणेश हलकर शामिल थे। उनके द्वारा किया अध्ययन शोध पत्रिका करंट साइंस में प्रकाशित किया गया है। (इंडिया साइंस वायर)

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