भगवान महावीर का अहिंसा दर्शन और अमृतवाणी

Lord Mahavir

आज के परिवेश में हम जिस प्रकार की समस्याओं और जटिल परिस्थितियों में घिरे हैं, उन सभी का समाधान भगवान महावीर के सिद्धांतों और दर्शन में समाहित है। अपने जीवनकाल में उन्होंने ऐसे अनेक उपदेश और अमृत वचन दिए, जिन्हें अपने जीवन तथा आचरण में अमल में लाकर हम अपने मानव जीवन को सार्थक बना सकते हैं।

‘अहिंसा परमो धर्मः’ सिद्धांत के लिए जाने जाते रहे भगवान महावीर का अहिंसा दर्शन आज के समय में सर्वाधिक प्रासंगिक और जरूरी हो गया है क्योंकि वर्तमान समय में मानव अपने स्वार्थ के वशीभूत कोई भी अनुचित कार्य करने और अपने फायदे के लिए हिंसा के लिए भी तत्पर दिखाई देता है। आज के परिवेश में हम जिस प्रकार की समस्याओं और जटिल परिस्थितियों में घिरे हैं, उन सभी का समाधान भगवान महावीर के सिद्धांतों और दर्शन में समाहित है। अपने जीवनकाल में उन्होंने ऐसे अनेक उपदेश और अमृत वचन दिए, जिन्हें अपने जीवन तथा आचरण में अमल में लाकर हम अपने मानव जीवन को सार्थक बना सकते हैं। आइए डालते हैं भगवान महावीर के ऐसे ही अमृत वचनों पर नजर:-

- संसार के सभी प्राणी बराबर हैं, अतः हिंसा को त्यागिए और ‘जीओ व जीने दो’ का सिद्धांत अपनाइए।

- जिस प्रकार अणु से छोटी कोई वस्तु नहीं और आकाश से बड़ा कोई पदार्थ नहीं, उसी प्रकार अहिंसा के समान संसार में कोई महान् व्रत नहीं।

- जो मनुष्य स्वयं प्राणियों की हिंसा करता है या दूसरों से हिंसा करवाता है अथवा हिंसा करने वालों का समर्थन करता है, वह जगत में अपने लिए वैर बढ़ाता है।

- धर्म उत्कृष्ट मंगल है और अहिंसा, तप व संयम उसके प्रमुख लक्षण हैं। जिन व्यक्तियों का मन सदैव धर्म में रहता है, उन्हें देव भी नमस्कार करते हैं।

- मानव व पशुओं के समान पेड़-पौधों, अग्नि, वायु में भी आत्मा वास करती है और पेड़ पौधों में भी मनुष्य के समान दुख अनुभव करने की शक्ति होती है।

- संसार में प्रत्येक जीव अवध्य है, इसलिए आवश्यक बताकर की जाने वाली हिंसा भी हिंसा ही है और वह जीवन की कमजोरी है, वह अहिंसा कभी नहीं हो सकती।

- जिस जन्म में कोई भी जीव जैसा कर्म करेगा, भविष्य में उसे वैसा ही फल मिलेगा। वह कर्मानुसार ही देव, मनुष्य, नारक व पशु-पक्षी की योनि में भ्रमण करेगा।

- कर्म स्वयं प्रेरित होकर आत्मा को नहीं लगते बल्कि आत्मा कर्मों को आकृष्ट करती है।

- जिस मनुष्य का मन सदैव अहिंसा, संयम, तप और धर्म में लगा रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।

- धर्म का स्थान आत्मा की आंतरिक पवित्रता से है, बाह्य साधन धर्म के एकान्त साधक व बाधक नहीं हो सकते।

- संसार का प्रत्येक प्राणी धर्म का अधिकारी है।

- क्रोध प्रेम का नाश करता है, मान विषय का, माया मित्रता का नाश करती है और लालच सभी गुणों का। जो व्यक्ति अपना कल्याण चाहता है, उसे पाप बढ़ाने वाले चार दोषों क्रोध, मान, माया और लालच का त्याग कर देना चाहिए।

- रूग्णजनों की सेवा-सुश्रुषा करने का कार्य प्रभु की परिचर्या से भी बढ़कर है।

- वासना, विकार व कर्मजाल को काटकर नारी व पुरूष दोनों समान रूप से मुक्ति पाने के अधिकारी हैं।

- जब तक कर्म बंधन है, तब तक संसार मिट नहीं सकता। गति भ्रमण ही संसार है।

- छोटे-बड़े किसी भी प्राणी की हिंसा न करना, बिना दी गई वस्तु स्वयं न लेना, विश्वासघाती असत्य न बोलना, यह आत्मा निग्रह सद्पुरूषों का धर्म है।

- ज्ञानी होने का यही एक सार है कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। यही अहिंसा का विज्ञान है।

- जो लोग कष्ट में अपने धैर्य को स्थिर नहीं रख पाते, वे अहिंसा की साधना नहीं कर सकते। अहिंसक व्यक्ति तो अपने से शत्रुता रखने वालों को भी अपना प्रिय मानता है।

- संसार में रहने वाले चल और स्थावर जीवों पर मन, वचन एवं शरीर से किसी भी तरह के दंड का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

- ब्राह्मण कुल में पैदा होने के बाद यदि कर्म श्रेष्ठ हैं, वही व्यक्ति ब्राह्मण है किन्तु ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के बाद भी यदि वह हिंसाजन्य कार्य करता है तो वह ब्राह्मण नहीं है जबकि नीच कुल में पैदा होने वाला व्यक्ति अगर सुआचरण, सुविचार एवं सुकृत्य करता है तो वह बाह्मण है।

- प्रत्येक प्राणी एक जैसी पीड़ा का अनुभव करता है और हर प्राणी का एकमात्र लक्ष्य मुक्ति ही है।

- आत्मा शरीर से भिन्न है, आत्मा चेतन है, आत्मा नित्य है, आत्मा अविनाशी है। आत्मा शाश्वत है। वह कर्मानुसार भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेती है।

- योगेश कुमार गोयल

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़