मंदबुद्धि नहीं है आटिज्म, धीरे धीरे रफ्तार पकड़ती है जिंदगी

Autism does not slow down, slowly gains momentum
[email protected] । May 30 2018 3:13PM

‘एक्शन फार आटिज्म’ की डा. निधि सिंघल ने बताया, कई बडे वैज्ञानिक, चित्रकार और अभिनेता अपने बचपन में आटिज्म से पीड़ित रहे हैं।

नयी दिल्ली। तेज रफ्तार जिंदगी में चीजों को धीरे समझना, अपना नाम सुनकर कोई प्रतिक्रिया न देना, आसपास के माहौल से एकदम अलहदा रहना, गति, दिशा और ऊंचाई का अनुमान न लगा पाना आत्मकेंद्रित अथवा ऑटिज्म के शिकार लोगों के शुरूआती लक्षण हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि आटिज्म के शिकार लोगों को अगर सही मार्गदर्शन मिले तो धीरे धीरे उनकी जिंदगी रफ्तार पकड़ लेती है। उनका मानना है कि शहरों में तो इस बीमारी से निपटने की दिशा में कई प्रयास हो रहे हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय और जमीनी कार्यकर्ताओं को इससे जोड़ा जाना चाहिए, ताकि इससे निपटने की राहें आसान हो सकें। ‘एक्शन फार आटिज्म’ की डा. निधि सिंघल ने बताया, कई बडे वैज्ञानिक, चित्रकार और अभिनेता अपने बचपन में आटिज्म से पीड़ित रहे हैं। यदि हम जागरूकता फैला पाये तो आटिज्म से बच्चे को उबारने के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है। 

उन्होंने कहा, देश में सीखने वालों और सिखाने वालों का अभाव है। यदि हम आंगनबाडी कार्यकर्ताओं, एनएनएम, सर्वशिक्षा अभियान से जुडे लोगों और शिक्षकों को अच्छी जानकारी दें तो ग्रामीण स्तर तक आटिज्म के बारे में जागरूकता फैला सकेंगे। उन्होंने बताया कि हाल में आये मानसिक स्वास्थ्य विधेयक में आटिज्म को मंदबुद्धि :इंटलेक्चुअल डिसएबेलिटीः की श्रेणी में डाल दिया गया है, जबकि एक अलग तरह का विकार है। ऐसा ऐसे वक्त में किया गया जब पूरी दुनिया इससे लड़ने की तैयारी कर रही हैं। आटिज्म के बारे में सरकार को अपने आंकडों की सही तरह से जांच करनी चाहिए।एक मोटे अनुमान के अनुसार देश में डेढ़ करोड बच्चे आटिज्म से पीडि़त हैं और वर्तमान में साठ में से एक बच्चा इस बीमारी से ग्रस्त है। इसको ‘आटिज्म स्पेक्ट्रम डिसआर्डर’ कहा जाता है। इसके तीन स्तर होते है। ‘आटिज्म सेंटर फार एक्सीलेंस’ की निदेशक डा अर्चना नायर ने कहा कि शिक्षक और अभिभावक मिलकर आटिज्म से बच्चे को उबार सकते हैं। इसकी थैरेपी बहुत आसान है जिसको माता पिता भी सीख सकते हैं। 

हालांकि यह एक ऐसी मानसिक स्थिति है जिसे ठीक नहीं किया जा सकता, लेकिन उचित मार्गदर्शन और सहयोग से इसके शिकार व्यक्ति के जीवन को पटरी पर लाने में मदद की जाती है।उन्होंने कहा कि महंगे इलाज और विशेष शिक्षा होने के कारण यदि सरकार इससे लड़ने में सहयोग करे तो राह आसान हो सकती है। ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता अभाव में मर्ज का सही पता नहीं लग पाता, इसलिए आंगनबाडी कार्यकर्ताओं और शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। दिल्ली के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डा समीर कलानी ने प्रदूषण के कारण आटिज्म के मामले बढ़ने के बारे में पूछने पर बताया कि गर्भावस्था के दौरान आबोहवा में प्रदूषण और पति के धूम्रपान करने के कारण भी बच्चे को यह बीमारी हो सकती है। उन्होंने बताया कि जब वह मुंबई के एक अस्पताल में कार्यरत थे, वहां ग्रामीण आटिज्म पीड़ित बच्चों को लेकर आते थे। दिल्ली में ऐसा नहीं देखा। कई दफा लोग अनजाने भय के कारण बच्चे को डाक्टर या विशेष स्कूलों के पास नहीं लाते जो बच्चे के लिए बेहद नुकसानदेह है। लोग यदि खुलकर आटिज्म पर बात करेंगे तो इसके प्रति जागरूकता आयेगी और बीमारी का सामना बेहतर तरीके से किया जा सकेगा।

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