पत्रकारिता के सच्चे साधक: संपादकाचार्य आचार्य शिवपूजन सहाय

By दीपा लाभ | Jan 21, 2022

साहित्यकार वह है जो गूढ़ बातों को भी बड़े सरल-सहज शब्दों व्यक्त कर दे; जो गम्भीर-से-गम्भीर मसलों को व्यंग्य की चादर में लपेटकर किसी को आहत किये बिना सन्देश प्रेषित कर सके। किन्तु सम्पादक वह है जो अपनी तो सुनाए ही, दूसरे रचनाकारों की लेखनी भी परिष्कृत कर उसे सुग्राह्य और सुरुचिपूर्ण बना दे। ऐसे ही एक सम्पादक, जिन्होंने न सिर्फ़ अपनी लेखनकला से समाज को सभ्यता, सौम्यता और शिष्टाचार का वृहत संसार दिया, बल्कि अपने समकालीन लगभग सभी साहित्यकारों की रचनाओं को परिष्कृत कर उसे त्रुटिरहित किया, आचार्य शिवपूजन सहाय के नाम से विख्यात हैं। आज उनकी पुण्यतिथि पर हिन्दी साहित्य के इस नायाब हीरे को इतिहास के छुपे पन्नों से बाहर निकाल कर कुछ क्षण उनकी आभा में सराबोर होते हैं।

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हिन्दी की दीर्घकालिक सेवा के लिए भारत सरकार ने 1960 में आचार्य शिवपूजन सहाय को पद्मभूषण से अलंकृत किया था, किन्तु इससे पूर्व ही वे हिन्दी साहित्य जगत् के संपादकाचार्य, साहित्यभूषण, विनयमूर्ति, हिन्दी-भूषण, बिहार-विभूति आदि कई संबोधनों से सुशोभित हो चुके थे। वहीँ भागलपुर विश्वविद्यालय ने उनकी हिन्दी सेवा को देखते हुए 1962 में उन्हें डी. लिट् की मानद उपाधि दी थी। साथी रचनाकार उन्हें प्रेम व् श्रद्धा से ‘शिवजी’ बुलाते थे। अपने समकालीन साहित्यकारों के बीच उनकी साख का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जो रचनाएँ उनके सम्पादन से गुज़र गयीं, उनकी पठनीयता निश्चित रूप से बढ़ जाती थी और कुछ तो साहित्य की कालजयी कृति होने का सुख भोग रहीं हैं। कथा-सम्राट प्रेमचन्द की रंगभूमि  समेत कई कहानियाँ, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की आत्मकथा  तथा जयशंकर प्रसाद की कामायनी तक को शिवजी की पारखी नज़रों से गुज़रने का सौभाग्य प्राप्त है।


सादगी, सरलता और विनम्रता की प्रतिमूर्ति आचार्य शिवपूजन सहाय एक कथाकार, व्यंग्यकार, भाषाशास्त्री, भाषा-परिमार्जक, निबंधकार, आलोचक तो थे ही, एक सम्पादक की भूमिका में इस देश को अनेकों अनमोल उपहार दिए हैं। उनकी सम्पादन-दक्षता हिन्दी साहित्यिक खेमों में विख्यात थी। तभी तो उस काल के लगभग हर छोटे-बड़े पत्र-पत्रिकाओं में उनके सम्पादकीय सहयोग की माँग होती थी। 


9 अगस्त 1893 को बिहार के एक छोटे से गाँव में जन्मे इस बालक को जैसे बचपन से ही पता था कि वह हिन्दी भाषा की सेवा के लिए जन्मा है। आरा (बिहार) के एक हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद अर्थाभाव के कारण आगे पढ़ न सके किन्तु भाषा और साहित्यानुराग के वशीभूत ‘हिन्दी-भूषण’ की उपाधि प्राप्त की और अध्यापन कार्य में लग गए। महात्मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन के आह्वान पर सरकारी पद का त्याग कर राष्ट्रीय आन्दोलन में अपनी कलम को हथियार बनाकर शामिल हो गए।


आरा में रहते हुए ही उन्होंने वहाँ की अनेक पत्रिकाओं यथा ‘मनोरंजन’, ‘त्रिवेणी’, ‘प्रेमकली’,’प्रेम-पुष्पांजलि’, ‘सेवाधर्म’ व् एक सचित्र मासिक पत्रिका ‘मारवाड़ी-सुधार’ में अपना सम्पादकीय सहयोग दिया। संयोगवश कलकत्ता आना हुआ और शनैः शनैः उनकी पत्रकारिता के अध्याय में साहित्य की लगभग सभी विधाओं के पन्ने जुड़ते गए। कलकत्ता से प्रकाशित ‘मतवाला’ के ‘सम्पादक-मंडल’ में शामिल हो उन्हें पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ व सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला सरीखे प्रतिष्ठित नामों के साथ कार्य किया। अपने कलकत्ता प्रवास की अल्पावधि में उन्होंने ‘आदर्श’, ‘मौजी’, ‘उपन्यास तरंग’, ‘समन्वय’ आदि कई पत्रों में सम्पादकीय सहयोग दिया। इस दौरान, कुछ समय के लिए, उन्हें कानपुर से प्रकाशित ‘माधुरी’ पत्रिका में भी सम्पादन का आग्रह आया, जहाँ उन्हें प्रख्यात कहानीकार प्रेमचन्द का साथ मिला और उन्होंने प्रेमचन्द की कहानियों को संपादित करने का बीड़ा उठाया। कभी भागलपुर, बिहार से प्रकाशित ‘गंगा’ तो कभी वाराणसी से जयशंकर प्रसाद की पाक्षिक पत्रिका ‘जागरण’ का सम्पादन - नामालूम उनके पैरों में कौन से पहिये लगे थे कि कलकत्ता, वाराणसी, लखनऊ, कानपुर, भागलपुर, दरभंगा, छपरा आदि शहरों में यायावर के समान जीते रहे। उनकी विद्वता और ख्याति से प्रभावित होकर राजेन्द्र कॉलेज, छपरा, ने एक दसवीं पास विद्वान को महाविद्यालय में हिन्दी प्राध्यापक के पद पर नियुक्त कर लिया। उनके जीवन में स्थिरता आई ही थी कि पटना पुस्तक भण्डार ने अपनी मासिक पत्रिका ‘हिमालय’ के सम्पादन के पुनः उनकी सेवाओं की गुहार लगाईं और वे स्वेच्छा से अवकाश लेकर पटना आ गए। पटना उनको रास आ गया और अंततः इसी को उन्होंने अपना स्थायी आशियाना बनाया। वर्ष 1949 बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की स्थापना के साथ ही उन्हें यहाँ का प्रथम निदेशक (उस समय इस पद को ‘मंत्री’ नाम दिया गया था) नियुक्त किया गया। नेतृत्व की इस नई भूमिका में भी शिवजी एक सेवक के समान अंतिम क्षणों तक कार्य करते रहे।

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संपादन के अतिरिक्त उनकी लेखनी भी उत्कृष्ट रही। उनकी ‘देहाती दुनिया’ को हिन्दी का प्रथम आँचलिक उपन्यास कहा जाता है। उनकी कहानी संग्रह ‘विभूति’ महिलाओं पर केन्द्रित कहानियों की अमूल्य धरोहर है। ‘हठभगत’, ‘मुण्डमाल’, ‘कहानी का प्लाट’ आदि कहानियाँ भाषा-लालित्य और कथा-पृष्ठभूमि की दृष्टि से अत्यंत रोचक व् प्रेरक हैं। ‘माता का आँचल’ हिन्दी पाठ्यक्रम का हिस्सा है। वे भाषा और संस्कृति के कई मोर्चों पर एक साथ सक्रिय थे। वे पुस्तक संस्कृति के पक्षधर थे और जीवनपर्यंत पुस्तकालयों व संग्रहालयों की स्थापना एवं संरक्षण पर बल देते रहे। उनकी लिखी प्रत्येक रचना इस ओर इशारा करती है कि वे व्यक्ति को सांस्कृतिक रूप से चैतन्य बनाना चाहते थे और साहित्य को इसका सबसे बड़ा वाहक मानते थे। 21 जनवरी 1963 को हिन्दी का यह नायाब हीरा अपनी सारी चमक न्योछावर कर उसी मिट्टी में विलीन हो गया जिसकी सेवा में वह निःस्वार्थ भाव से निरंतर लगा रहा।


साहित्य के इस अनमोल हीरे के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम उनके सुझावों को साहित्य एवं पत्रकारिता जगत् में आत्मसात कर उसके उत्थान में प्रयत्नशील रहें।   


- दीपा लाभ 

हिन्दी के प्रति समर्पित साहित्यकारों के प्रति असीम श्रद्धा रखती हैं। लगभग 13 वर्षों से अध्यापन कार्य से जुड़ी हैं और भाषा का महत्व समझते हुए इसे समृद्ध बनाने के लिए सदा प्रयासरत हैं।

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