अखिलेश यादव को चाहिए छोटे दलों का साथ, पर चाचा शिवपाल पर नहीं है विश्वास

By अजय कुमार | Nov 09, 2021

समाजवादी पार्टी का छोटे दलों से गठजोड़ का सियासी रंग एक बार फिर चटक होने जा रहा है। 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ और 2019 के लोकसभा चुनाव में अपनी प्रबल प्रतिद्वंद्वी बसपा के साथ मिलकर भी भारतीय जनता पार्टी के सामने कोई बड़ी चुनौती खड़ी करने में नाकाम रहे सपा के मुखिया अखिलेश यादव अब छोटे दलों के सहारे 2022 के विधानसभा चुनाव के माध्यम से सत्ता में वापसी के लिए मशक्कत कर रहे हैं। छोटे दलों से गठजोड़ करके पार्टी को कितना फायदा होगा यह तो समय ही बताएगा लेकिन फिलहाल सपाइयों के हौसले बुलंद हैं। छोटे दलों से गठजोड़ के क्रम में अखिलेश यादव, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी से गठबंधन के बाद अब राष्ट्रीय लोक दल से हाथ मिलाने जा रहे हैं। अखिलेश को लगता है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मोदी-योगी से किसानों की नाराजगी को वह रालोद के सहारे अपने पक्ष में भुना सकते हैं।

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भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से बाहर करने के बड़े अभियान में लगे पूर्व मुख्यमंत्री तथा समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव 21 नवंबर को लखनऊ में राष्ट्रीय लोकदल के साथ गठबंधन का औपचारिक ऐलान करेंगे। उत्तर प्रदेश में 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर कुनबा बढ़ाओ अभियान के तहत विभिन्न दलों के दिग्गजों को समाजवादी पार्टी में शामिल करने के साथ ही अखिलेश यादव छोटे दलों के साथ गठबंधन की अपनी योजना को प्राथमिकता पर रखे हैं। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ गठबंधन करने के बाद पूर्वांचल में अपना गढ़ मजबूत करने वाले अखिलेश यादव ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपने पुराने साथी राष्ट्रीय लोकदल के साथ गठबंधन का फैसला किया है।


वैसे यह पहला मौका नहीं है जब सपा और रालोद के बीच चुनावी तालमेल हो रहा है। इससे पहले भी कई बार दोनों मिलकर चुनाव लड़ चुके हैं। सूत्र बताते हैं कि राष्ट्रीय लोकदल ने 40 सीटें मांगी हैं, जबकि समाजवादी पार्टी ने रालोद को 30 सीटें देने का मन बनाया है। राष्ट्रीय लोकदल की पश्चिमी उत्तर प्रदेश के करीब एक दर्जन जिलों में अच्छी पकड़ है। समाजवादी पार्टी को भी पश्चिम उत्तर प्रदेश की करीब 30 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाली सीटों पर अच्छे वोट मिलने की उम्मीद है। ऐसे में दोनों के साथ आने से काफी फर्क पड़ सकता है। वैसे यह भी नहीं भूलना चाहिए कि पिछले दो चुनावों में यहां बीजेपी का दबदबा रहा था। इसे सपा, बसपा और कांग्रेस से गठजोड़ करने के बाद भी रोक नहीं पाई थी। बस फर्क इतना है कि पहले चौधरी अजीत सिंह के हाथों में रालोद की कमान थी अब उनके निधन के बाद उनके बेटे जयंत चौधरी पार्टी को आगे बढ़ाने में लगे हैं।


आश्चर्यजनक बात यह है कि एक तरफ तो अखिलेश छोटे दलों से समझौता कर रहे हैं, वहीं अपने चाचा शिवपाल यादव की पार्टी से दूरी बनाए हुए हैं जबकि सपा प्रमुख रहे मुलायम सिंह यादव हमेशा से इन कोशिशों में लगे रहे हैं कि अखिलेश यादव और उनके चाचा शिवपाल यादव के बीच की दूरियां खत्म हो जाएं और दोनों मिलकर एक साथ भारतीय जनता पार्टी का मुकाबला करें। बहरहाल, समाजवादी पार्टी अब इससे आगे निकल चुकी है और उसका सारा फोकस छोटे दलों पर है।

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रालोद से पहले पिछले महीने के अंत में मऊ में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी से गठबंधन की घोषणा की थी। उन्होंने कहा था कि समाजवादी पार्टी की लाल टोपी और सुहेलदेव भारतीय समाजवादी पार्टी (सुभासपा) की पीली टोपी अब लाल-पीली होकर एक हो गई है। हमारी इस एकता को देखकर दिल्ली और लखनऊ में कौन लाल-पीला हो रहा होगा, यह सभी जानते हैं। अगर बंगाल में खेला हुआ है, तो पूर्वांचल के लोग भी खदेड़ा करके भाजपा को सत्ता से भगाकर दिखाएंगे। जिस दरवाजे से भाजपा सत्ता में आई थी, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के मुखिया ओमप्रकाश राजभर ने उसे बंद कर दिया है। पूर्वांचल जब जाग जाता है और जिस ओर चलता है, सत्ता उसी ओर चली जाती है। अखिलेश यादव 27 अक्टूबर को मऊ में हलधरपुर के ढोलवन मैदान में आयोजित सुभासपा के 19वें स्थापना दिवस समारोह में मुख्य अतिथि भी थे। लेकिन राजनीति के जानकारों का कहना है कि जिस तरह से पिछले कुछ महीनों में सुहेलदेव पार्टी के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर ने बार-बार सियासी रंग बदला है, उससे राजभर समाज के बीच ओमप्रकाश की विश्वसनीयता काफी कम हो गई है इसका खामियाजा उन्हें चुनाव में भुगतना पड़ सकता है।


-अजय कुमार

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