भाजपा लोहिया की तरफ लौटे तो आज भी चमत्कार हो सकता है

By डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Oct 13, 2017

12 अक्तूबर को डॉ. राममनोहर लोहिया को गए 50 साल पूरे हो गये लेकिन टीवी चैनलों और अखबारों में उनकी कोई चर्चा नहीं दिखी। देश में कोई बड़ा समारोह नहीं है। आज देश में लोहिया की सप्तक्रांति का कोई नामलेवा-पानीदेवा नहीं है। कौन-सा राजनीतिक दल या नेता है, ऐसा है, जो आज जात तोड़ो, अंग्रेजी हटाओ, नर-नारी समता, विश्व सरकार, दाम बांधो, खर्च पर रोक, विश्व-निरस्त्रीकरण जैसे मुद्दों को उठा रहा है। डॉ. लोहिया स्वतंत्र भारत के सबसे सशक्त विचारशील नेता थे। वे सिर्फ 57 साल जीए लेकिन इतने कम समय में उन्होंने देश की राजनीति को जितना प्रभावित किया, किसी और नेता ने नहीं किया। डॉ. लोहिया ही गैर-कांग्रेसवाद के जनक थे। वे अपने आप को कुजात गांधीवादी कहते थे और मठी गांधीवादियों के खिलाफ अभियान चलाते थे। वे वैचारिक दृष्टि से कांग्रेस और जनसंघ या मार्क्सवाद और राष्ट्रवाद के बीच खड़े थे। उनके विचारों को किसी न किसी मात्रा में इन सभी दलों के नेता मानते थे। वे यदि 1967 में महाप्रयाण नहीं करते और 1977 तक भी जीवित रहते तो उन्हें प्रधानमंत्री बनने से कोई रोक नहीं सकता था। आज भारत की शक्ल ही दूसरी होती। 

 

मेरा सौभाग्य है कि डॉ. लोहिया से मेरा घनिष्ट संबंध रहा। मेरे निमंत्रण पर लगभग 55 साल पहले वे इंदौर के क्रिश्चियन कॉलेज में आए थे। उन्होंने मुझे अंग्रेजी हटाओ आंदोलन की प्रेरणा दी। दिल्ली के इंडियन स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ में मैंने जब अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का पीएच.डी. का शोध-प्रबंध हिंदी में लिखने का सत्याग्रह किया तो डॉ. लोहिया और उनके साथी राजनारायण, मधु लिमए, किशन पटनायक, रवि राय आदि ने संसद में हंगामा खड़ा कर दिया। उनका साथ अटल बिहारी वाजपेयी, चंद्रशेखर, भागवत झा आजाद, हीरेन मुखर्जी, हेम बरुआ, दीनदयाल उपाध्याय, बलराज मधोक आदि ने भी जमकर दिया। मेरे उस मुद्दे पर जनसंघ, कांग्रेस, संसोपा, प्रसोपा और कम्युनिस्ट पार्टियां भी एक हो गईं। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और लोहियाजी के बीच उन दिनों काफी व्यंग्य-बाण चलते रहते थे लेकिन इंदिराजी ने उसके बावजूद मेरा समर्थन किया। समस्त भारतीय भाषाओं के द्वार उच्च शोध के लिए खुल गए। जनसंघ और संयुक्त समाजवादी पार्टी के बीच विचार-विमर्श के द्वार भी खुले।

 

दीनदयालजी और अटलजी से कई मुद्दों पर बात करने के लिए डॉ.. लोहिया मुझे कहते थे। दीनदयालजी का निधन 1968 में हुआ। मेरे सुझाव पर अटलजी ने दीनदयाल शोध-संस्थान की स्थापना की। मुझे ही इसका पहला निदेशक बनने के लिए अटलजी ने आग्रह किया लेकिन मुझे मेरे शोधकार्य के लिए शीघ्र ही विदेश जाना था। मेरे सुझाव पर ही इस संस्थान ने ‘गांधी, लोहिया, दीनदयाल’ पुस्तक छापी थी। इस प्रसंग का जिक्र मैंने यहां क्यों किया ? इसीलिए कि तब भी और आज भी मैं यह मानता हूं कि संघ, जनसंघ और भाजपा के पास विचारों का टोटा रहा है। अटलजी जब भाजपा अध्यक्ष बने तो मुंबई में उन्होंने गांधीवादी समाजवाद का नारा दिया था। यदि भाजपा लोहिया की तरफ लौटे तो आज भी चमत्कार हो सकता है। उसके पास तपस्वी कार्यकर्ताओं की फौज है लेकिन उसके नेता विचार शून्य हैं। बिना विचार की राजनीति तो कांग्रेसी राजनीति ही है। सिर्फ सत्ता और पत्ता की नीति।

 

- डॉ. वेदप्रताप वैदिक

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