बजट की अदाएं (व्यंग्य)

By संतोष उत्सुक | Feb 21, 2022

वोटिंग हो चुकी है। जनता का फैसला आने में देर है। इंतज़ार के इन दिनों में बजट की आकर्षक अदाओं पर कुछ और प्रतिक्रियाएं देने का नैतिक कर्तव्य निभा सकते हैं। पिछले कई दशक से यही सांस्कृतिक परम्परा है कि अपने अपने खेमे के हिसाब से उन्हीं रटे रटाए शब्दों में दिमाग के अरमान निकालने होते हैं। शासकीय खेमे के राजनीतिक, प्रशासनिक व आर्थिक विशेषज्ञों को ज़्यादा पता होता है कि बजट का स्वादिष्ट हलवा कैसे पकाना है। आम लोगों के लिए क्या कहना है और ख़ास लोगों के लिए क्या। वह अपनी सरकार की तारीफ़ के आसमानी पुल बनाकर अपना धार्मिक कर्तव्य पूरा करते हैं। उनके किसी बंदे की हिम्मत नहीं कि बजट में कमी निकाल दे। कुर्सी और नौकरी की फिक्र करनी ज़रूरी होती है। बजट अगर बंदा होता तो इतनी तारीफ़ पाकर पगला गया होता। 

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विपक्ष तो शुद्ध घी की तरह शुद्ध होता है। वह बजट के अच्छे प्रावधानों की ज़रा सी भी प्रशंसा कैसे कर सकता है। उसका तो चरित्र ही सरकार के विरुद्ध चलने का है। उसका कोई बंदा अगर मीडिया कवरेज पाने के लिए तारीफ़ कर भी दे तो कहना पड़ता है यह उनका निजी बयान है। बजट को एक संजीदा राष्ट्रीय विषय मानकर उसके सकारात्मक बिन्दुओं की तारीफ़ के कारण लोकतंत्र मज़बूत होने लगे तो राजनीति की तबीयत खराब हो जाएगी। हर विपक्ष, हर बजट को आंकड़ों का मायाजाल और निराशाजनक ज़रूर बताता है। यह टिप्पणी विपक्ष की सत्ता में न हो पाने से उगी खुन्नुस सी लगती है, लगता है भड़ास निकालने के लिए की गई है। 


हैरानी की बात है हिन्दी में, ‘जगलरी ऑफ़ फिगर्स’ के दूसरे अर्थ भी हैं, जैसे इंद्रजाल, बाजीगरी व जादूगरी। कभी इनका  प्रयोग भी करना चाहिए। बजट से किसानों व व्यवसायियों को फायदा होता है, सेंसेक्स चढ़ता है तो यह आशाजनक हुआ। बजट को दिशाहीन कहा जाता है, बजट पूरे देश की जातीय, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, वर्गीय, क्षेत्रीय, आर्थिक दिशाएं कवर करता है फिर दिशाहीन कैसे हो गया। बजट अगर बंदा होता तो ये चरित्रवान उसे चरित्रहीन ज़रूर बता देते।

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बजट बारे अखबारों में परिचर्चाएं प्रकाशित होती हैं उनमें भी कल्पना लोक सी बातें होती है। बहुत सोच समझकर छाप दिया जाता है कि बजट से हर वर्ग निराश नज़र आ रहा है। उनसे कोई पूछे सरकार, उनकी पार्टी और जिनको फायदा हुआ वे तो तारीफ़ कर रहे हैं। कर्मचारी, युवा और गृहणियां तो कभी खुश होती ही नहीं क्यूंकि ये  सब अपनी उम्मीदों को ज़्यादा जगा लेते हैं। बेरोजगार कहते हैं सरकार एक ही बार में सारे रिक्त पद भर दे। कहते हैं बजट कडवी दवा जैसा है स्वादिष्ट नहीं। ज्ञानी जन तो किसी से भी अपेक्षा न रखने के लिए हमेशा कहते आए हैं। बजट अगर बंदा होता तो कितनों की अपेक्षाएं पूरी करता ?


सरकार जैसी शक्तिशाली संस्था मुश्किल से बनती है और कर्मठ प्रयासों से चलाई जाती है। सरकार और सरकारी लोगों के गैर सरकारी खर्चे बहुत होते हैं, वे निबटें तो दूसरों की बारी आ सकती है। सरकार के नेता, मंत्री हर मामले के स्थायी विशेषज्ञ होते हैं। उन्हें कैसे भी विरोधी बयानों से कोई फर्क नहीं पड़ता। सो मित्रो, कहना यह है कि बजट वोटरों की करनी का फल है। बजट को हर सरकार एक नर्तकी के रूप में पेश करती है जिसकी अदाएं देखने के लिए होती हैं समझने के लिए नहीं।


- संतोष उत्सुक

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