यूरोपीय देशों में रफ्ता-रफ्ता रफ्तार पकड़ती सेंटर-लेफ्ट पॉलिटिक्स, भारतीय राजनीति में भी दिखेगा बदलाव?

By अभिनय आकाश | Sep 29, 2021

लंबे वक्त से धरातल पर जा रही राजनीति की एक शैली हालिया कुछ दिनों में छोड़ी राहत महसूस कर रही है। इसके साथ ही उन्हें संभावित वापसी की आस भी जग रही है। 21वीं सदी में पश्चिमी देशों में रूढ़िवादिता, और दक्षिणपंथियों से इतर सेंटर-लेफ्ट पॉलिटिक्स का उभार देखा जाने लगा है। इस महीने सेंटर-लेफ्ट दलों ने नॉर्वे में सत्ता संभाली है और जर्मनी में भी ऐसा ही करने की कगार पर हैं। इसके साथ ही अमेरिका के व्हाइट हाउस पर उनका कब्जा है हीं इसके अलावा इटली में भी सत्ता साझेदार के रूप में मौजूदगी देखी जा सकती है। सत्तावादी झुकाव वाले हंगरी में विपक्षी आंदोलन का नेतृत्व करते नजर आ रहे हैं। हालांकि इसे सेंटर लेफ्ट नीत राजनीति की वापसी कहना अभी जल्दबाजी होगी। लेकिन इसे हाल के दिनों में संपन्न  कनाडा और जर्मनी के चुनाव के संदर्भ से जोड़ कर देखें तो एक तरह का बदलाव या उसकी आहट साफ नजर आएगी। 

यूरोपीय देशों में रफ्ता-रफ्ता रफ्तार पकड़ती राजनीति 

जर्मनी की केंद्र-वाम सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (एसपीडी) ने मौजूदा कुलपति ओलाफ स्कोल्ज के नेतृत्व में संघीय चुनावों में लगभग 26 प्रतिशत वोट हासिल किए हैं, जो एक नई सरकार की शुरूआत कर सकता है और एंजेला मर्केल युग के अंत का प्रतीक होगा। वहीं कनाडा के लिबरल नेता प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने एक बार फिर से चुनावी जीत हासिल कर ली। अल्पमत में होने के बावजूद ट्रूडो की लिबरल पार्टी को लेफ्ट की तरफ झुकाव रखने वाले न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी जैसे दलों से नीतियों के आधार पर समर्थन मिलने की उम्मीद है। इसके अलावा सेंटर लेफ्ट पार्टियां इटली और स्पेन में गठबंधन सरकारों का नेतृत्व कर रही हैं और हंगरी में एक सक्रिय विपक्ष की भूमिका में हैं। 

पॉपुलिज्म से मोहभंग की वजह

कोविड ने यूरोप की दक्षिणपंथी पार्टियों को सत्ता से दूर रखने में बड़ी भूमिक निभाई। अधिकांश ने महामारी के दौरान समर्थन में गिरावट दर्ज की। जॉर्जिया विश्वविद्यालय में कैस मुडे और जैकब वोंड्रेस के एक अध्ययन के अनुसार यूरोप के आधे दक्षिणपंथी दलों ने महामारी के तहत अपने समर्थन में गिरावट देखी, जबकि छह में से केवल एक को समर्थन मिला। यूनिवर्सिटी कॉलेज कॉर्क के एक विद्वान विटोरियो बुफाची का मानना है कि कोविड-19 ने पॉपुलिज्म राजनीति की परतें खोल दी। पश्चिमी देशों पर नजर डालें तो इसे अमेरिका और ब्राजील के संदर्भ में समझ सकते हैं। लॉकडाउन विरोधी और टीका विरोधी भावनाओं ने इन दोनों देशों में चुनाव में पॉपुलिस्ट को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया। वहीं कनाडा के संदर्भ में देखें तो अनिवार्य टीकाकरण नीति के वनस्पत कंजरवेटिव का रवैया भी उनके पिछड़ने के एक बड़े कारक के रूप में सामने आया। 

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लेफ्ट-राईट-सेंटर कॉन्सेप्ट

1789 के साल में फ्रांस की नेशनल एसेंबली के सदस्य संविधान का मसौदा तैयार करने के इरादे से एकट्ठा हुए। 16वें किग लुई को कितना अधिकार मिलना चाहिए इसको लेकर सदस्यों के बीच काफी मतभेद था। सदस्य हो हिस्सों में बंट गए। एक हिस्सा राजशाही के समर्थकों का था और दूसरा राजशाही के विरोध का।। दोनों ने ही अपने बैठने की जगह बांट ली। राजशाही के विरोधी क्रांतिकारी सदस्य पीठासीन अधिकारी की बायीं ओर बैठ गए जबकि राजशाही के समर्थक कंजर्वेटिव सदस्य पीठासीन अधिकारी के दायीं ओर बैठ गए। इस तरह वहां से लेफ्ट विंग और राइट विंग का कॉन्सेप्ट वुजूद में आया। राजनीतिक पार्टियों ने तो बाद में खुद को 'सेंटर लेफ्ट', 'सेंटर राइट', 'एक्सट्रीम लेफ्ट' और 'एक्सट्रीम राइट' के तौर पर पेश करना शुरू कर दिया। 

लेफ्ट से कांग्रेस में कन्हैया

बिहार में सीपीआई की झंडा बुलंद करने ले कन्हैया कांग्रेस की आवाज बन गए। वैसे तो लेफ्ट से कांग्रेस की ओर रुख करने वाले कन्हैया के कदम को वामपंथी दलों ने सियासी महत्वकांक्षी जरूर बताया है लेकिन उन्होंने देश की सबसे पुरानी पार्टी में शामिल होने का विकल्प चुना है, इसे भी आने वाले वक्त में छोटे स्तर पर ही सही लेकिन एक राजनीतिक शिफ्ट के रुप में देख सकते हैं। बिहार में कांग्रेस के पास कोई भी युवा चेहरा नहीं है, राज्य में पार्टी अपनी हालत सुधारने के लिए नए चेहरों पर दांव लगाना चाहती है। जानकारों को लगता है कि कन्हैया कुमार के जरिए कांग्रेस की योजना राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) पर दबाव बनाने की भी है जो अभी तक कांग्रेस के वरिष्ठ सहयोगी की भूमिका निभाती रही है।  

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