By डॉ. मुकेश असीमित | Jun 16, 2025
अभी तक तो बस हम बधाई ही देते आए थे, किसी लेखक के पुस्तक होने की बधाई! जी, बढ़िया बात तो है ही, जनाब... लेखक का "गर्भाधान" तब होता है, जब विचारों का मिलन स्याही से होता है। "गर्भस्थ शिशु" की तरह रचना पलती है—कभी उबकाई (लेखक का असंतोष), कभी मूड स्विंग (संशोधन), और कभी पौष्टिक खुराक (प्रेरणा) मिलती है। संपादक स्त्री रोग विशेषज्ञ बनकर जांचता है, प्रकाशक अल्ट्रासाउंड करता है—"किताब स्वस्थ है या सी-सेक्शन लगेगा?" प्रकाशन के दिन प्रसव पीड़ा चरम पर होती है, और किताब कागज़ पर जन्म लेती है। समीक्षकों की गोदभराई में तारीफ और आलोचना के टीके मिलते हैं। फिर वह पाठकों के संसार में किलकारी भरती है—कुछ इसे पालते हैं, कुछ अनाथालय में छोड़ देते हैं!
लेकिन अब हम भी बधाई के पात्र बन गए जी... अरे, हमारी भी एक पुस्तक हुई है... इसी की बधाइयाँ मिल रही हैं। कहते हैं न—"आप जो करते हैं, वही बूमरैंग बनकर लौट आता है।" हमने भी सुबह से शाम तक दूसरों को बधाइयाँ ही बाँटी हैं, तो निश्चित है कि उनकी दुआओं से हमारी भी गोद हरी हो गई है।
अभी तो गोद हरी हुई है... हम भी अभी से भ्रम पाले हुए हैं —"पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं"—जी, बड़ा कमाऊ पूत लग रहा है ये तो! बधाइयाँ देने वाले बड़े सपने दे जाते हैं—"दो-चार पुरस्कार मिल जाएंगे, कोर्स की किताबों में लग जाएगी, कुछ शोधार्थी इस पर शोध भी कर लेंगे, रॉयल्टी भी मिलेगी..." गाना गा रहे हैं—
"मेरा नाम करेगा रोशन, मेरे जग का राजदुलारा..."
बधाइयाँ देना!
लो जी, इसमें बुराई क्या है! कोई अंटी से खर्च भी नहीं हो रहा, तो हमने भी जी भरकर बधाइयाँ दी हैं... जैसे ही पता चलता है कि किसी की किताब हुई है, हम कूद पड़ते हैं बधाइयाँ देने।
अब तो उंगलियाँ इतनी अभ्यस्त हो गई हैं कि कभी-कभी किसी दिवंगत वरिष्ठ लेखक की सूचना पर भी गलती से "बधाई" लिख जाती हैं! शुक्र है, समय रहते समझ आ गया, तो "बधाई" हटाकर RIP डाल दिया।
अब उम्मीदों का क्या है! हमारी भी उम्मीदों के महल थे—
हमने भी सोचा था, जैसे ही किताब छपेगी, प्रकाशक हमें सर आँखों पर बिठाएगा, रॉयल्टी मिलेगी, हमारी किताब बेस्टसेलर बन जाएगी, हम रातों-रात सुपरस्टार बन जाएंगे... लेकिन फिलहाल तो बस बधाइयाँ ही मिल रही हैं!
प्रकाशक से हमने झिझकते हुए पूछा भी था—"हमें क्या मिलेगा?"
बोले—"बधाइयाँ!"
चलो, उन्होंने ये तो नहीं कहा कि "बाबाजी का..."
अब हम सोच रहे हैं कि पुस्तक डिलीवरी रूम से बाहर आ गई है, घर ले आए, तो पालना भी लगा दिया, झूला भी झुला रहे हैं... तो क्यों न बधाई भी गवा ली जाए? 16-16 बताशे बाँट दिए जाएँ! बस डर यही है कि कहीं हमारे शहर के हिजड़ा एसोसिएशन को खबर न लग जाए... वरना वे भी बधाई लेने दरवाजे पर आ धमकेंगे!
"सज रही गली मेरी, माँ रंगीले गोटे में..."
सोशल मीडिया पर बधाई देना तक तो ठीक है—बस एक लाइक, एक कमेंट और औपचारिक धन्यवाद—न किसी का कुछ जाता है, न किसी को कुछ आता है। लेकिन जब लोग घर पर आकर बधाई देने लगे, तो थोड़ी मुश्किलें बढ़ गईं!
पड़ोसी शर्मा जी दरवाजे पर प्रकट हुए—"अरे गार्ग साहब! आपको किताब हुई है, बधाई हो!"
हमने तुरंत हाथ आगे बढ़ा दिया, पहले से ही तैयार थे बधाई स्वीकारने को।
"अरे भाई, आपने हमें विमोचन में बुलाया ही नहीं!"
शर्मा जी मुस्कुराए—"कोई नहीं! हम तो साहित्य के बड़े रसिक हैं, बचपन से शेर-ओ-शायरी के शौकीन हैं। डिबेट्स में हमेशा फर्स्ट आते थे..."
हमने सफाई दी—"दरअसल, सब जल्दबाजी में हो गया... बिल्कुल अनप्लान्ड बेबी की तरह!"
हमने पालने की तरफ इशारा किया—"एक बार मुंह देख लो..." लेकिन उनकी रुचि किताब से ज़्यादा मिठाई में थी।
"कोई बात नहीं, लिंक भेज दो, किताब खरीद लेंगे..."
"अरे, वो तो ठीक है, लेकिन गुलाब जामुन बहुत मीठे हैं... भाभी जी ने ही बनाए हैं, है न?"
अब आलम ये है कि आने-जाने वाले बधाई दे रहे हैं, और हमने मिठाइयों का स्टॉक भर लिया है! केंद्र में एक किताब टेबल पर रखी पालना झूल रही है—आशा है, कोई तो आएगा, मुंह देखेगा, पालना को एक झोंटा तो देगा...
कोई तो होगा—"जो उसे गोद में उठा लेगा, और शगुन का 100 रु तो दे ही जाएगा...!"
"नहाओ, पूतो और फलो" का आशीर्वाद दे जाएगा।
ख़ैर, बधाइयाँ तो मिल ही रही हैं... कम से कम हमारी भी गोद हरी हो गई!
– डॉ. मुकेश असीमित