जिस मुल्क को अतातुर्क ने बनाया सेकुलर, उसे एर्दोगन ने कट्टरपंथ के मरकज में किया तब्दील, कैसे 100 सालों में बदला तुर्की

By अभिनय आकाश | May 31, 2025

अभी तक आपने सुना होगा कि इंसान अहसानफरामोश होता है। लेकिन अगर तुर्किये की तरफ देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि एक देश भी अहसानफरामोश जो सकता है। आपको बता दें कि 2023 में वो भारत ही था जिसने अपने एनडीआरएफ को भेजकर तुर्किये की मदद की थी। जब भूकंप के बाद ये दर्द से कराह रहा था। भारत सरकार ने सीरिया और तुर्की में राहत व बचाव कार्यों के लिए ऑपरेशन दोस्त की शुरुआत की थी। इस ऑपरेशन के जरिए भारत से विमान से राहत सामग्री तुर्की भेजे गए थे। इसे अहसानफरामोशी नहीं तो और क्या कहेंगे कि भारत ही था जो सबसे पहले अपने लोगों को भेजता है। मलबे में से आपके लोगों को निकाल सके। तुरंत उपचार मुहैया कराया गया। दवाईयां और जरूरी सामान भेजा गया। लेकिन इस अहसान को भुला तुर्की भारत के पहलगाम में निर्दोषों को मौत के घाट उतारने वाले देश के साथ मजबूती से खड़ा नजर आ रहा है। भारत और पाकिस्तान संघर्ष के दौरान जब आमने सामने थे तो तुर्की खुलकर पाकिस्तान का साथ दे रहा था। ऐसा कोई पहली बार नहीं है जब तुर्की भारत पाकिस्तान के किसी मसले पर पाकिस्तान के साथ खड़ा हो। संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी तुर्की ने की मौकों पर पाकिस्तान का समर्थन किया है। भारत पाकिस्तान के बीच तनाव को लेकर भी तुर्की ने पाकिस्तान के समर्थन में खुलकर बयान दिया। 

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भारत दोस्त,लेकिन पाकिस्तान भाई

ऑपरेशन सिंदूर के बाद पाकिस्तान ने भारत पर हमले की नाकाम कोशिश की थी। मीडिया रिपोर्ट बताते है कि इसमें तुर्की ने न केवल पाकिस्तान को ड्रोन से मदद की, बल्कि भारत के खिलाफ ड्रोन हमलों में सहायता के लिए इस्लामाबाद में सैन्य कर्मियों को भी भेजा। ऑपरेशन सिंदूर में तुर्की के दो सैन्यकर्मी भी मारे गए।  इस्तांबुल ने भारत के साथ पाकिस्तान के चार दिवसीय संघर्ष में इस्लामाबाद को 350 से अधिक ड्रोन की आपूर्ति की है। तुर्की भारत को दोस्त बताता है और पाकिस्तान को भाई। जब जब दोनों देशों में चुनना होता है तो ज्यादातर मौकों पर तुर्की पाकिस्तान के साथ दिखाई देता है। तुर्किए के एर्दोगन ये चाहते हैं कि मैं इस्लामिक देशों का खलीफा बन जाऊं। 

आधुनिक तुर्किये के निर्माता, जिसने खत्म की 400 सालों से चली आ रही मुसलमानों की खिलाफत

 वर्ष 1299 से 1922 तक तुर्की में ऑटोमन साम्राज्य का शासन था। 1923 में तुर्की को इस साम्राज्य से आजादी मिल गई और इसका श्रेय तुर्की के पूर्व तानाशाह मुस्तफा कमाल अतातुर्क को जाता है। वो तानाशाह होने के साथ ही प्रगतिशील भी थे और तुर्की को एक सेक्युलर देश बनाना चाहते थे। जो फ्रांस के सेक्युलरिज्म के सिद्धांत पर आधारित था। जिसके तहत धर्म और सरकार को एक दूसरे से अलग रखा जाता है। अतातुर्क के सुधारों को कमालिज्म कहा जाता है। कमालिज्म का उद्देश्य ओटोमन अतीत और इस्लामी कट्टरता से तुर्की को दूर ले जाना था। उन्होंने धर्मनिरपेक्षता, उदारगणतंत्रवाद और इस्लाम के आधुनिक संस्करण को अपनी विचारधारा का केंद्र बनाया, जो तुर्की की नई पहचान की नींव बनी। इन्हीं कारणों से उन्हें ‘अतातुर्क’ यानी तुर्कों के पिता की उपाधि दी गई।

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इस्लाम से स्टेट रिलीजन का दर्जा वापस 

1924 में संविधान बना और 1928  में इस्लाम से स्टेट रिलीजन का दर्जा वापस ले लिया गया। संविधान के तहत ही अतातुर्क ने तुर्की की सेना को देश में हमेशा सेक्युलरिज्म कायम रखने की जिम्मेदारी दी। तुर्की में धार्मिक प्रतीक चिन्हों के इस्तेमाल पर भी पाबंदी लगा दी थी। 10 नवंबर को 1938 को अतातुर्क  मुस्तफा कमाल पाशा का निधन हो जाता है। अतातुर्क के निधन पर महात्मा गांधी ने अपनी संवेदना व्यक्त करते हुए कहा था कि यह मृत्यु तुर्की के लिए एक बड़ी क्षति है। वे संकट से सुरक्षित बाहर आएं। अतातुर्क  की मृत्यु ने तुर्की के लिए एक युग का अंत कर दिया

भारत की खिलाफत, पाक का साथ

1965 और 1971 के युद्ध में जब तुर्की ने पाकिस्तान का समर्थन किया तो दोनों देशों के रिश्तों में दरार और बढ़ गई। साल 2000 में तुर्की के तत्कालीन प्रधानमंत्री बुलेंट एसविट ने भारत का दौरा किया। करीब 15 सालों में किसी तुर्की नेता का ये पहला दौरा था। तुर्की राष्ट्रपति ने पाकिस्तान के सैन्य शासक जनरल परवेज मुशर्रफ के लोकतंत्र को कुचलकर सत्ता में आने की आलोचना की। 

एर्दोगान की इस्लामी सोच तुर्की पर हावी होती गई

साल 2002 में एर्दोआन ने इस्लाम की वापसी का नारा देते हुए चुनाव जीता। एर्दोआन सत्ता में आते ही तुर्की के सेक्युलर ताने-बाने को ढहाते हुए उसे इस्लामिक राष्ट्र की तरफ आगे बढ़ाने लगे। अर्दोआन के तुर्की की राजनीति में उभार में इस्लामिक कट्टरता की अहम भूमिका रही है। उनके भाषणों से मुसलमानों को यह लगता होगा कि वो धर्म की रक्षा और उसके हित की बात कर रहे हैं लेकिन इसके साथ ही कई तरह के विरोधाभास भी दिखते हैं। एर्दोआन जब 2003 में तुर्की के प्रधानमंत्री बने, तभी अमरीका इराक़ पर हमले की तैयारी कर रहा था। 

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मुस्लामों का वैश्विक नेता बनना चाहते हैं एर्दोगन

तुर्की के राष्ट्रपति की विदेश मामलों की रणनीति का लक्ष्य मुसलमान होने का गर्व वापस लाना है। वो ऑटोमन का आधुनिक वर्जन लाना चाहते हैं ताकि तुर्क इस्लामिक महानता का नेतृत्व कर सकें। जिसका जिक्र उन्होंने कई बार अपने भाषणों में भी किया है। अर्दोआन कई बार इस बात को कह चुके हैं कि तुर्की एकमात्र देश है, जो इस्लामिक दुनिया का नेतृत्व कर सकता है। ज़ाहिर है एर्दोआन जब ऐसा कहते हैं तो उनके दिमाग़ में ऑटोमन साम्राज्य की विरासत रहती होगी। वो ऑटोमन साम्राज्य, जो सोवियत संघ से भी बड़ा था। यह 2.2 करोड़ वर्ग किलोमीटर में फैला था। ऑटोमन साम्राज्य का विस्तार मिस्र, ग्रीस, बुल्गारिया, रोमानिया, मेसिडोनिया, हंगरी, फ़लस्तीन, जॉर्डन, लेबनान, सीरिया, अरब के ज़्यादातर हिस्सों और उत्तरी अफ़्रीका के अधिकतर तटीय इलाक़ों तक था। यह साम्राज्य मुस्लिम शासकों को मान्यता देता था। एर्दोआन को लगता है कि इस्लामिक दुनिया का नेतृत्व करना तुर्की का ऐतिहासिक हक़ है। लेकिन एर्दोआन इस बात को भूल जाते हैं कि वो अब 2.2 करोड़ वर्ग किलोमीटर वाले ऑटोमन साम्राज्य के सुल्तान नहीं हैं, बल्कि सात लाख 83 हज़ार वर्ग किलोमीटर में सिमट चुके तुर्की के राष्ट्रपति हैं। 

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