उड़ने, कुछ पाने की चाह, सपनों की राह (कविता)

By प्राची थापन | Jul 12, 2017

कुछ सोचूं कुछ बोलूं, इन शब्दों को कैसे खोलूँ

 

उड़ने की चाह है, मुश्किल हुई ये राह है

 

हौसला बहुत है इस मन में, और ख्यालों से भरा भरा 

 

देख दुनिया को सोच रही, कहीं रह ना जाए सब धरा धरा 

 

उम्मीद की लौ और आगे बढ़ने की चाह, 

 

यकीनन मुकम्मल होगी मेरे सपनों की राह,

 

चाहती हूँ कि ढल जाऊं मैं उस चाँद सूरज जैसे

 

हुए बहुत ही तुर्रमखां पर बन ना पाए वैसे

 

चाँद की शांति और उसकी ठंडक 

 

सूरज का प्रकाश और उसकी भड़क

 

शांत भाव से और शीतलता से

 

अपनी सोच के प्रकाश से 

 

राह नई बनाऊं, लगा पंख उमीदों के मैं  

 

इस खुले गगन में बस, उड़ती जाऊं उड़ती जाऊं॥

 

 

- प्राची थापन

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