Gyan Ganga: भक्त सर्वस्व न्योछावर कर देता है तो उसकी सारी ज़िम्मेदारी भगवान अपने हाथ में ले लेते हैं

By आरएन तिवारी | Jul 08, 2022

सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !

तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥ 


प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! आइए, भागवत-कथा ज्ञान-गंगा में गोता लगाकर सांसारिक आवा-गमन के चक्कर से मुक्ति पाएँ और इस मानव जीवन को सफल बनाएँ। 


पिछले अंक में हमने मत्स्यावतार की कथा सुनी थी। भगवान ने असुर हयग्रीव का अंत करके वेदों की रक्षा की और विश्वास दिलाया कि कोई तो शक्ति है जिसे मानव जाति के सुख-दुख की चिंता है। भगवान ने वेदों का उद्धार करके मानव को वह ज्ञान-कोश दिया जो आज भी हम मनुष्यों को कदम-कदम पर सत्य और धर्म का मार्ग दर्शन कर रहा है।

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आइए ! अब श्री मदभागवत महापुराण के नौंवे स्कन्ध में प्रवेश करें।


राम-कथा 

गुरुवर्थे त्यक्तराज्यो व्यचरदनुवनम पद्मपद्भ्यामप्रियाया: 

पाणिस्पर्षाक्षमाभ्यामृजितपथरुजो यो हरीन्द्रानुजाभ्याम।  

वैरुप्याच्छुर्पणख्याप्रिय विरहरुषाSSरोपित भ्रूविजृम्भ:  

त्रस्ताब्धिर्बद्ध सेतु खलदवदहन: कोसलेन्द्रो Sवतान्न: ।।

सीय राममय सब जग जानी करहूँ प्रणाम जोरि जुग पानि ।

मोहि पर कृपा करहूँ एहि भाँति सब तजि भजन करहु दिन राति॥  


मधुर मधुर नाम सीताराम सीताराम 


बोलिए अयोध्यानाथ की जय ----------


शुकदेव जी कहते हैं--- परीक्षित ! अब हम तुम्हें सूर्यवंश की कथा सुनाते हैं। परंतु बहुत ही संक्षेप में। सूर्यवंश की कथा यदि विस्तार से कही जाए तो सौ वर्षों में भी पूरी नहीं हो सकती। 


न शक्यते विस्तरितो वक्तुम वर्षशतैरपि। 


इसलिए अति संक्षेप में आप श्रवण करें। भगवान श्री नारायण के नाभि कमल से ब्रह्माजी का जन्म, ब्रह्मा जी के बेटा मरीचि, मरीचि के बेटा कश्यप, कश्यप जी का बेटा विवस्वान सूर्य। जिनसे सूर्यवंश चला।  विवस्वान सूर्य के पुत्र मनु जिनकी श्रद्धा नाम की पत्नी पर संतान कोई नहीं। श्री वशिष्ठ जी ने पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया। रानी की इच्छा अनुसार बिटिया का जन्म हुआ राजा ने कहा मुझे तो बेटा चाहिए तो वशिष्ठ जी ने बिटिया को ही बेटा बना दिया। बाद में मनु महाराज के दस बेटे हुए। 


इक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट, धृष्ट, करुष, नारिष्यंत, पृषध, नभग, और कवि।  


इन दस पुत्रों से ही सूर्य वंश का विस्तार हुआ। शर्याति नाम का जो पुत्र था उसकी बेटी सुकन्या हुई जिसने धोखे से च्यवन मुनि के नेत्र फोड़ दिए, बाद मे चयन मुनि के साथ उसका विवाह हुआ। बाद में अश्विनी कुमारों के अनुग्रह से च्यवन जी नवयौवन को प्राप्त हुए। इन्हीं के वंश में महाराज रेवत हुए इनके सौ बेटे हुए। सबसे बड़े पुत्र की एक बेटी हुई जिसका नाम था रेवती जिसका विवाह बलराम जी के साथ हुआ था। शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित ! मनु महाराज के दूसरे बेटे थे नभग। उनके बेटे हुए नाभाग। नाभाग के पुत्र हुए परम भगवत भक्त श्री अंबरीष जी महाराज। 

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अंबरीष जी महाराज और दुर्वासा की कथा

    

अंबरीश जी महाराज परम वैष्णव सप्त दीप वसुंधरा के अधिपति होने के बावजूद प्रभु की सेवा अपने हाथों से ही करते थे। अपने मन को भगवान कृष्ण में, वाणी को भगवान के कीर्तन में, हाथ को मंदिर की साफ-सफाई में कान भगवान की मंगल कथा सुनने में शरीर के सभी अंग भगवत भक्ति में ही लगे रहते थे।


स वै मन; कृष्ण्पदारविंदयो; वचान्सि वैकुंठ गुणानुवर्णने 

करौ हरेरमंदिर मार्जनादिषु श्रुतिम चकारच्युतसत्कथोदये॥ 

     

ठाकुर की सेवा में किसी दास-दासी का कोई सहयोग नहीं लेते और तो और सम्राट होकर भी ठाकुर जी के मंदिर का झाड़ू–पोछा स्वयं ही करते थे। अपने हाथ से ही गेहूँ पीसते थे जिससे ठाकुर जी का प्रसाद लगाना है न जाने कोई कैसे प्रसाद तैयार करे। एक बार तो गेहूँ पीस रहे थे चक्की चला रहे थे चक्की चलाते चलाते थक गए थे पसीना निकल रहा था अचानक पीछे से दिव्य शीतल मंद सुगंधित हवा आने लगी मुड़कर देखा तो ठाकुर जी अपने पीताम्बर से हवा कर रहे हैं। अंबरीष जी महाराज भगवान के चरणों में लिपट गए। जय हो महाराज ये क्या लीला कर रहे है आप? हम आपके दासानुदास हम किंकरों के किंकर की सेवा आप इस तरह करेंगे। भगवान बोले- अरे तू इतना बड़ा सम्राट होकर मेरी चाकी चला सकता है तो क्या मैं तुम्हारे लिए हवा भी नहीं कर सकता। ऐसे भगवान भक्त वत्सल हैं। भगवान बोले- अंबरीश आज से ये सुदर्शन चक्र मेरा नहीं तेरा है। तू सतत मेरी भक्ति में लगा रहता है कही तुम पर कोई आपति-विपत्ति न आए, यह सुदर्शन चक्र सदा तुम्हारी रक्षा करता रहेगा। देखिए ! जब भक्त भगवान को अपना सर्वस्व न्योछावर कर देता है, तो उसकी सारी ज़िम्मेदारी भगवान अपने हाथ में ले लेते हैं। 


योगम-क्षेमम वहाम्यहम। ये प्रभु की प्रतिज्ञा है।  


भगवान की आराधना करते-करते एक बार उन्होंने सपत्नीक एक साल तक एकादशी व्रत का पालन किया। व्रत सफल रहा। उद्यापन के दिन अंबरीश जी ने भक्ति-भाव से ब्राह्मणों का पूजन किया। सोने की सींग वाली हजारों गाएँ दान में दीं। अब पारण की तैयारी कर रहे थे उसी समय दुर्वासा ऋषि पहुंचे। अंबरीश महाराज ने बड़ा स्वागत किया और भोजन करने की प्रार्थना की। ऋषि दुर्वासा ने कहा- स्नान करके आता हूँ तब खाया जाए। अब अंबरीश जी महाराज दुविधा में पड़ गए क्योंकि तिथि क्षय थी पारण करने का समय निकला जा रहा था। दो घड़ी ही बची थी। ब्राह्मणों से पूछा, क्या किया जाए महाराज ! ब्राह्मणों ने कहा— भगवान का चरणामृत पी लो व्रत भी खुल जाएगा और ब्राह्मण का सम्मान भी रह जाएगा। अंबरीश जी ने भगवान का चरणामृत पीकर व्रत खोल लिया। उधर दुर्वासा जी को मालूम पड़ा, तो वे एक दम क्रोध से लाल पीला हो गए। उन्होंने अपनी एक जटा उखाड़ी और भगवत भक्त अंबरीश जी को मारने के लिए प्रलय काल की अग्नि के समान दहकती हुई कृत्या उत्पन्न कर दी।


एवं ब्रुवाण उत्कृत्य जटां रोष विदीपत:।  

तया स निर्ममे तस्मै कृत्यां कालानलोपमाम॥  

  

जय श्री कृष्ण -----                                              

क्रमश: अगले अंक में --------------

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।


-आरएन तिवारी

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