एलोपैथ, आयुर्वेद को आपस में नहीं लड़ाएं, इन चिकित्सा पद्धतियों को बीमारियों से लड़ने दें

By अशोक मधुप | Jun 08, 2021

स्वामी रामदेव और एलोपैथिक चिकित्सकों में इस समय जुबानी जंग जारी है। रामदेव आयुर्वेद और एलोपैथिक चिकित्सक अपनी−अपनी पैथी की महत्ता बताने में लगे हैं। दोनों अपनी-अपनी चिकित्सा पद्धति के गुण गाते नहीं अघा रहे। अपनी चिकित्सा पद्धति को बड़ा बताने के चक्कर में दूसरी को नीचा दिखाने, कमतर बताने में लगे हैं। हालांकि स्वामी रामदेव केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन के कहने पर खेद व्यक्त कर चुके हैं। इसके बावजूद जुबानी जंग रूकने का नाम नहीं ले रही। जबकि दोनों की अपनी जगह अलग−अलग महत्ता है। दोनों का अलग−अलग महत्व है।


एलोपैथी का गंभीर रोगों के उपचार में कोई जवाब नहीं है तो सदियों से भारतीयों का उपचार कर रही आयुर्वेद उपचार पद्धति का भी कोई तोड़ नही है। कोरोना महामारी जब शुरू हुई तब तक उसका कोई उपचार नहीं था। उसकी भयावहता से सब सहमे थे। दुनिया डरी थी। सबको अपनी जान की चिंता थी। ऐसे  गंभीर समय में एलोपैथिक चिकित्सक और स्टाफ आगे आया। उसने प्राणों की परवाह नहीं की। मरीज की जान बचाने के लिए दिन-रात एक कर दिया। जो बन सकता था किया। उपलब्ध संसाधनों से वे लोगों की जान बचाने में लग गए। वैज्ञानिक आगे आए। उन्होंने एक वर्ष की अवधि में दुनिया को कोरोना की वैक्सीन उपलब्ध करा दी। ये आधुनिक चिकित्सा पद्धति का करिश्मा था। उसका कमाल था।

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कोरोना के आने के समय जब दुनिया के पास इसका कोई उपचार नहीं था। इसके बारे में कोई जानकारी नहीं थी, तब हमारी प्राचीन चिकित्सा पद्धति आगे आई। आयुर्वेद आगे आया। उसने बताया कि सदियों से प्रयोग किया जा रहा आयुष काढ़ा, इस महामारी से लड़ने के लिए हमें सुरक्षा कवच देगा। हमारी इम्युनिटी बढ़ाएगा। रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत करेगा।


आयुर्वेद सदियों से बैक्टीरिया जनित बीमारी से लड़ने के लिए नीम की महत्ता बताता रहा है। चेचक के मरीज के कमरे के बाहर नीम की टूटी टहनियां परिवार की महिलाएं लंबे समय से रखती रहीं हैं। बीमार को नीम के पत्ते पके पानी में स्नान कराने का पुराना प्रचलन है। मान्यता है कि नीम बीमारी के कीटाणु मारता है। बुखार होने, ठंड लगने में तुलसा की चाय पीने का हमारे यहां पुराना चलन है।


गिलोय भी इसी तरह की है। ऐसी बीमारी के समय गिलोय का काढ़ा पीने का पुराना प्रचलन है। जब एलोपैथी के पास कोई दवा नहीं थी। उस समय भी हमारी परम्परागत पद्धति हमें बचा रहा थी। प्लेग, चेचक, कोरोना जैसी बीमारी से लड़ने में मदद दे रही थी।


हाथ मिलाने की परम्परा हमारी नहीं है। विदेशी है। हमारी दूर से हाथ जोड़कर प्रणाम करने की परंपरा है। इसका कोरोना काल में पूरी दुनिया ने लोहा माना। उसे कोरोना से बचाव में कारगर हथियार के रूप में स्वीकार किया।

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पुराना किस्सा है एक वैद्य जी की प्रसिद्धि दूर नगर के वैद्य जी को ज्ञात हुई। उन्होंने नए विख्यात हो रहे वैद्य जी का ज्ञान परखने का निर्णय लिया। एक शिष्य को उनके पास कोई कार्य बताकर भेजा। पहले यात्रा पैदल होती थी। इसलिए आदेश किया कि आराम कीकर के पेड़ के नीचे करना। उसने ऐसा ही किया। वैद्य जी के पास जब वह पंहुचा तो उसकी बहुत खराब हालत थी। शरीर से जगह−जगह से खून बह रहा था। देखने से ऐसा लगता था कि वह कोढ़ का मरीज हो। वैद्य जी से वह मिला। उन्हें दूसरे वैद्य जी का संदेश दिया। वैद्य जी ने बीमारी के बारे में पूछा। उसने बता दिया। गुरु जी ने कीकर के वृक्ष के नीचे आराम करने को कहा था। वैद्य जी समझ गये कि ये कीकर के नीचे आराम करने से हुआ है।


वैद्य जी ने उसे नीम का काढ़ा पिलाया। पानी में नीम के पत्ते पकाकर स्नान कराया। जाते समय कहा कि रास्ते में नीम के पेड़ के नीचे विश्राम करते जाना। जब वह अपने गुरु जी के पास पंहुचा तो वह पूरी तरह स्वस्थ था। उसकी बीमारी खत्म हो गई थी। उसका शरीर पहले जैसा कांतिमान हो गया था। यह हमारी परंपरागत चिकित्सा है। इसे हम आयुर्वेद कहते हैं। यह पूर्वजों से चला आ रहा हमारा ज्ञान है। हमारी रसोई के मसाले पूरा आयुर्वेद है। इंसान का पूरा इलाज कर सकते हैं।


-अशोक मधुप  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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