चुनावी मरम्मत के दिन रात (व्यंग्य)

By संतोष उत्सुक | Oct 27, 2025

वायदों, आश्वासन, उपहारों के खेत में सरकार की स्वादिष्ट और उपजाऊ फसल रोपने की तैयारी चल रही है। नकली मुहब्बत की बिलकुल असली दिखने वाली झप्पीयां डाली जा रही हैं। इनके, उनके और न जाने किन किन के माध्यम से सुबह से शाम तक पारिवारिक परिचय समझाया जा रहा है। नए रिश्ते अलग अलग स्वाद में पकाए जा रहे हैं। पुराने, टूटे फूटे, बासी, उदास सम्बन्धों की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और मानवीय मरम्मत ज़ोर शोर से चल रही है। अनेक रंग का सीमेंट, अलग अलग स्रोतों का जल खूब उपलब्ध है।


उनकी तो कई पीढियां राजनीति के व्यवसाय में हैं। कई बरस पहले हमारे पिता ने, उनके पिता की किसी हरकत पर दो तीन शब्दों की टिप्पणी कर दी थी तो उन्हें, उनके मित्रों ने खबरदार किया था कि कहीं यह ‘सज्जन’ चुनाव जीत गए तो आपकी क्या, पता नहीं किस किस की खैर नहीं रहेगी। लेकिन वह सज्जन समझदारी के घोड़े पर सवार होकर कई पार्टियां बदलने के बावजूद हमेशा हारते रहे और पिता और मित्र स्वस्थ बने रहे।

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सुदृढ़ व्यवस्था ने अच्छी तरह से यह सबक याद करवा रखा है कि किसी से भी नाराज़गी पालने का वक़्त अब बिलकुल नहीं रहा। संबंधों की मरम्मत का सकारात्मक मौसम आने से पता चलता है कि राजनीति एक कुशल अध्यापक भी है जो हमें बार बार पढ़ाती है कि समाज, राजनीति और ज़िंदगी में कोई दोस्त या दुश्मन स्थायी नहीं होता। सुअवसर मिलने पर बिगड़ चुके, बिगड़ रहे, बिगड़ सकते सम्बन्धों पर उचित सीमेंट ज़रूर लगा लेना चाहिए। अंजान लोगों से भी कम, लेकिन अच्छे संबंध बना लेने चाहिए। योजनाएं बनाने और सपने सच करने के लिए चींटी की तरह प्रयास करते रहना चाहिए। मेहनत के बाद जीत होती ही है। 


संबंधों की चुनावी मरम्मत के मौसम में, नेता पुश्तैनी दुश्मनों की तरह व्यवहार और बातचीत के घटिया और फूहड़ स्तर के बावजूद लोकतंत्र को अधिक मजबूत करते हैं और देश को अधिक गौरव और अधिक शक्ति प्रदान करते हैं। चुनाव की महाहोली में सब गले मिल लेते हैं, क्या पता गले मिलना कुछ लाभ दिला दे या गले न मिलना, गले न पड़ जाए। यह याद रखना ज़रूरी है कि नेता यदि लगा रहे तो सांसद न सही, विधायक न सही एक दिन पार्षद तो बन ही जाता है और काफी कुछ करवा सकता है। खराब सम्बन्धों की मरम्मत करने का उसे काफी अनुभव होता है। 


राजनीतिक मरम्मत के कारीगरों का मेला लग जाने के कारण घमंड का सिर आजकल लटका हुआ है। सफलता मिलते ही, ‘घमंड का सिर ऊंचा’ हो जाने की पूरी संभावना रहती है। ऐसा न हो तो हैरानी होती है। राजनीति ने मानवीय जीवन को मुहावरा बना कर रख दिया है जिसके असली अर्थ बुरी तरह से टूटफूट कर ज़ख़्मी हो चुके हैं और निरंतर मानसिक मरम्मत मांग रहे हैं। चुनाव के बाद नई सरकारजी का निर्माण हो जाने के बाद घमंड का सिर ऊंचा वाला मुहावरा बाज़ार की शान हो जाएगा। उसके आसपास कम ऊंचे सिर वाले मुहावरे भी अपनी आन बान शान बिखेरेंगे।   


- संतोष उत्सुक

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