By विजय कुमार | Sep 28, 2018
पिछले दिनों किसी काम से रमेश के घर गया था। बातचीत में देर हो गयी, तो वहीं रुक गया; पर मुझे नींद नहीं आयी। तब मुझे किसी बुजुर्ग का कहा याद आया कि नींद तो अपने घर में ही आती है। असल में घर एक सम्पूर्ण इकाई है, जिसमें माता-पिता, भाई-बहिन, पति-पत्नी, बच्चे सब आते हैं। देहरादून का मेरा एक मित्र कई साल से बरेली में है। वहां उसने मकान भी बना लिया है; पर वह अपना घर देहरादून ही बताता है। आजकल काम-धंधे के लिए लोग शहरों में आ रहे हैं; पर वे सालों वहां रहने पर भी समरस नहीं हो पाते। बुजुर्गों को तो इसमें बहुत असुविधा होती है।
दिल्ली में मेरा एक मित्र सुरेश है। गांव में मां के निधन के बाद वह गांव का घर बेचकर पिताजी को दिल्ली ले आया। पहले तो पिताजी तैयार नहीं हुए; पर वे भी अकेले कब तक रहते ? पर पुराने घर की यादों से वे स्वयं को अलग नहीं कर सके और दो साल में ही चल बसे। घर के साथ खुशियां भी जुड़ी रहती हैं। शाम को घर लौटते हुए चिड़ियों का कलरव सुनें या जंगल से लौटती गायों की पुकार। बच्चा स्कूल से लौटते हुए घर पास आते ही खुशी से दौड़ने लगता है।
सरकारी सेवा में कार्यरत मेरे ताऊ जी पथरी के मरीज थे; पर गांव आकर वे बहुत आराम महसूस करते थे। यह गांव के शुद्ध खानपान का असर था या घर में सबके बीच रहने की खुशी, वही जानें। पति-पत्नी के सम्बन्ध ठीक न हों, तो घर काटने को भी दौड़ता है। मेरे एक मित्र को अचानक व्यापार में बड़ा घाटा हो गया। घर जाने पर बच्चे उनकी ओर बड़ी आशा से देखते थे कि पिताजी हमारे लिए क्या लाये हैं ? अतः वे बच्चों के सो जाने के बाद घर आते थे।
घर का नाम भी उसके मालिक की पसंद का परिचय देता है। साहित्यप्रेमी लोग कामायनी, विष्णुप्रिया, सुरभि जैसे नाम रखते हैं, तो धर्मप्रेमी लोग रामधाम, श्रीकृष्ण कृपा या शंकर विला। कुछ लोग घर को अपने माता-पिता या पुरखों का नाम देते हैं; पर कुछ को अपने नाम से ही सर्वाधिक मोह होता है। आशीर्वाद, मातृछाया, पितृऋण.. जैसे नाम भी खूब मिलते हैं।
कई घरों में कौन कब आया और कब गया, यह पता ही नहीं लगता। वस्तुतः घर तो ऐसा होना चाहिए, जिसमें सब लोग स्वाभाविक रूप से बार-बार मिलते रहें। दुमंजिला घरों में बुजुर्ग ऊपर रहना पसंद करते हैं, जिससे आने-जाने वालों की चकचक से वे बच सकें; पर यदि वे अचानक बीमार हो जाएं, तो परेशानी हो जाती है। इसलिए वे चाहते हैं कि किसी एक पौत्र-पौत्री का कमरा ऊपर भी हो।
कुछ लोगों के लिए युवावस्था में घर छोड़ना दुख का कारण बनता है; पर अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ अपनी कविता ‘एक बूंद’ में इसे चुनौती के रूप में स्वीकार करने की बात कहते हैं।
ज्यों निकलकर बादलों की गोद से, थी अभी इक बूंद कुछ आगे बढ़ी।
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी, आह क्यों घर छोड़कर मैं यूं कढ़ी।
दैव मेरे भाग्य में है क्या बदा, मैं बचूंगी या मिलूंगी धूल में।
जल मरूंगी गिर अंगारे पर किसी, चू पडूंगी या कमल के फूल में।
बह गयी उस काल इक ऐसी हवा, वह समुन्दर ओर आयी अनमनी।
एक सुंदर सीप का था मुंह खुला, वह उसी में जा पड़ी मोती बनी।
लोग यूं ही हैं झिझकते सोचते, जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर।
किन्तु घर को छोड़ना अक्सर उन्हें, बूंद लौ कुछ और ही देता है कर।।
-विजय कुमार