पहले भारत को मयखाने में बदला अब इम्युनिटी बढ़ाने की बात हो रही है

By डॉ. अजय खेमरिया | Mar 28, 2020

कोरोना वायरस शराब पीने से मर जाता है यह अफवाह भारत मे इतनी तेजी से फैली की सरकार और अब डब्ल्यूएचओ तक को यह एडवाइजरी जारी करनी पड़ी की शराब से कोई वायरस नहीं मरता है। यह शरीर के लिए हर स्थिति में नुकसानदेह है। असल में भारत आज एक औऱ हमले से पस्त हो चुका है वह है सरकार प्रायोजित शराब हमला। आज चर्चा इम्यूनिटी यानी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने की हो रही है क्योंकि कोरोना इसी सिस्टम को ध्वस्त करता है। लेकिन हमें यह देखना होगा कि कैसे हमारे देश में आम आदमी की इम्युनिटी खत्म करने पर सरकारें तुली हुई हैं। शराब से कमाई के लालच में हर राज्य अपने ही नागरिकों को मौत के मुंह मे धकेल रहे हैं। लाखों करोड़ के इस सरकारी खेल में सभी दल भी बराबरी से निर्वस्त्र हैं। मप्र और हरियाणा में अब आप घर बैठे ऑनलाइन शराब मंगा सकते हैं। मप्र सरकार शराब से अगले वर्ष 12 हजार और हरियाणा 7.5 हजार करोड़ राजस्व जुटाएंगी। दोनों ही राज्यों में इस प्रावधान को लेकर विरोध हो रहा है।


मप्र की सरकार ने तो एक और निर्णय लिया है कि महिलाओं के लिए बड़े शहरों में शराब की अलग से दुकानें खोली जा रही हैं। इन दुकानों पर मुंबई, दिल्ली, कोलकाता जैसे बड़े शहरों में मिलने वाली ब्रांडेड शराब उपलब्ध होगी। फिलहाल देश में लगभग 2 फीसदी महिलाएं शराब का सेवन करती हैं। कमलनाथ के इस निर्णय को लेकर भी तीखी आलोचना हुई थी लेकिन शिवराज सिंह ने अभी तक इसे निरस्त नहीं किया है।

 

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इधर केंद्रीय बजट में इस साल नशामुक्ति कार्यक्रम के लिए पहली बार 260 करोड़ का प्रावधान किया गया है। भारत में शराब से हर 90 मिनट पर एक नागरिक की मौत हो जाती है। करीब एक लाख मौत तो शराब पीकर गाड़ी चलाते समय निर्दोष राहगीरों और चालकों की हो रही है। सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार इस समय 16 करोड़ नागरिक नियमित रूप से शराब पी रहे हैं। चरस, अफीम, गांजा, भांग, सिगरेट का नशा करने वाले भारतीयों की संख्या जोड़ दी जाए तो वह करीब 15 करोड़ और होगी। एम्स और नेशनल ड्रग डिपेंड़स ट्रीटमैंट सेंटर द्वारा तैयार इस शोध में शराब पीने वाले भारतीयों की आयु 10 से 70 सर्वेक्षित की गई है। 16 करोड़ शराब पीने वालों में से 6.7 करोड़ तो आदतन यानी एडिक्ट हैं। 5.7 करोड़ भारतीय इस वक्त शराब जनित रोगों से ग्रस्त हैं। एक तरफ प्रधानमंत्री फिट इंडिया अभियान पर काम कर रहे हैं तो दूसरी तरफ भारत में शराब मार्केट सबसे तेज यानि 8.8 फीसदी की दर से बढ़ रहा है। अनुमान है कि 2022 में 16.8 बिलियन लीटर शराब की खपत भारत में होगी।


सवाल यह है कि क्या राज्य सरकारें चुनावी वादों की पूर्ति के लिए अपने ही नागरिकों के जीवन को दांव पर नहीं लगा रही हैं ? नजीर के तौर पर मप्र में 2003 में शराब का राजस्व 750 करोड़ था जो इस वर्ष 12 हजार करोड़ हो गया है। इसी साल महाराष्ट्र सरकार 17477 लाख, छत्तीसगढ़ 4700, यूपी 23918, तमिलनाडू 31157 और आंध्र प्रदेश सरकार 6222 लाख रुपए की कमाई अपने ही नागरिकों को शराब परोस कर कर चुकी हैं। यूपी में 4.20, मप्र में 1.20, बंगाल में 1.40 करोड़ लोग शराब पी रहे है। यह आंकड़े बताते हैं कि सरकारी स्तर पर शराब बेचने के लिए हमारी सरकारें कितनी शिद्दत से जुटी हैं। भारत में सेवन की जानी वाली शराब में 90 फीसदी हार्ड अल्कोहल होता है जो वैश्विक मानक और प्रचलन के 44 फीसदी की तुलना में ज्यादा खतरनाक है। यूरोप की तरह शराब का मतलब हमारे यहां वाइन या बीयर भी नहीं है। बल्कि हार्ड ड्रिंक शराब पीते हैं भारतीय जो शरीर को अंदर से खोखला कर देती है। जो कैंसर, सिरोसिस सहित करीब 200 तरह की गंभीर बीमारियों की जनक भी है। डब्लूएचओ की रिपोर्ट कहती है कि एक दशक में भारत में शराब की खपत दोगुनी हो गई है। 2005 में प्रति व्यक्ति यह 2.4 लीटर थी जो 2016 तक 5.7 लीटर हो गई। भारत दुनिया का तीसरा सर्वाधिक शराब सेवन वाला देश है। सरकारी सर्वे के इतर करोड़ों लोग ऐसे भी हैं जो परम्परागत तरीकों से बनी शराब का सेवन कर रहे हैं खासकर वनांचल में ताड़ी, खजूर, गुड़ यहां तक कि मानव मूत्र से बनने वाली शराब इसमें शामिल हैं। शराब केवल सरकारी राजस्व तक का मामला नहीं है असल में यह नेताओं, अफसरों और माफिया के गठजोड़ की सम्पन्नता का माध्यम भी है। जितना राजस्व सरकारी खजानों में दिखता है कमोबेश उतना ही इसके खेल में अवैध रूप से भी बनता है। सीएजी की एक हालिया रिपोर्ट में यूपी में मायावती और अखिलेश के कार्यकाल में करीब 25 हजार करोड़ की चपत का खुलासा हुआ है। यह रकम डिस्लरीज और बड़े सिंडिकेट ने शराब के दाम अवैध रूप से बढ़ाकर जनता से वसूल ली लेकिन खजाने में जमा नहीं हुई। यही खेल देश के सभी राज्यों में सुगठित ढंग से चल रहा है। सरकार बदल जाती है लेकिन माफिया नहीं।


प्रश्न यह है कि आखिर हम अपनी ही नीतियों से मुल्क को कहां ले जा रहे हैं ? 1929 में महात्मा गांधी ने हरिजन में लिखा था कि 'अगर कोई उनसे स्वराज और शराबबन्दी में से एक चुनने का विकल्प दे तो मैं पहले शराबबन्दी को चुनूँगा', पूरा देश बापू की 150वी जयंती मना रहा है। क्या गांधी के प्रति हमारी यही वैचारिक प्रतिबद्धता है। आज भारत को हमने वैश्विक शराब बाजार में तब्दील कर दिया। संविधान के अनुच्छेद 47 में जो नैतिक आदेश सरकार को मिले हैं क्या उनके प्रति कोई नैतिक जवाबदेही नहीं है संविधान की शपथ उठाने वालों की ?

 

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बेहतर होगा 5 ट्रिलियन के आर्थिक लक्ष्य को आगे रखकर हम एक राष्ट्रीय शराब नीति का निर्माण करें। चरणबद्ध तरीक़े से शराब के प्रचलन और कारोबार को घटाने के प्रयास करें। लाखों करोड़ के राजस्व में से स्थानीय खनिज निधि की तरह हर जिले में राजस्व का एक चौथाई हिस्सा नशामुक्ति केंद्रों या वेलनेस सेंटर के लिये आरक्षित कर दें। क्योंकि छतीसगढ़ जैसे पिछड़े राज्य में आज 35 फीसदी लोग शराब पी रहे हैं। रांची के पास 900 की आबादी वाले ब्राम्बे गांव को शराब ने विधवा ग्राम में बदल दिया। बेहतर होगा शराब की बिक्री को हतोत्साहित करने के लिये सामाजिक माहौल भी  बनाया जाए। क्योंकि पिछले दो दशकों में युवाओं में इसका चलन तेजी से बढ़ा है। भारत में विश्व की सर्वाधिक युवा जनसंख्या इस समय है और शराब की आदी हमारी युवा पूंजी फिट इंडिया या स्किल इंडिया के लिये कैसे परिणामोन्मुखी हो सकती है ?


पूरी दुनिया जब योग पर अवलम्बन की ओर है और यूरोप में 2010 के बाद शराब की खपत 10 फीसदी कम हो गई है तब भारत में यह खपत दोगुनी हो जाना हमारी सामूहिक चेतना, हमारी विरासत हमारे मर्यादित जीवन को कटघरे में खड़ा करता है। शराबबंदी लागू कर आबकारी राजस्व केंद्र से समायोजित करने का जो सुझाव दिया जाता है उस पर भी बिहार, गुजरात मॉडल के आलोक में नीतिगत निर्णय लिया जा सकता है। कोरोना पर लाखों करोड़ खर्च करने के बाद क्या सरकारें आरोग्य भारत के लिए शराबबंदी करने की हिम्मत करेंगी ? यह नेताओं, अफसरों, ठेकेदारों के नेक्सस के लिए बड़ा कठिन है पर मोदी है तो मुमकिन है इसकी भी परीक्षा इस प्रस्ताव से हो सकती है।


-डॉ. अजय खेमरिया

 

 

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