सरकारी इनोवा गाड़ी (व्यंग्य)

By डॉ. मुकेश असीमित | Jul 21, 2025

हमारा शहर जिला बन गया था। दशकों से यह राजनीतिक मांग शहर के बाशिंदों द्वारा उठाई जा रही थी कि शहर को जिला बनाया जाना चाहिए। चुनावी दौर में रेबड़ियां बांटने की आंधी ऐसी चली कि जिले वाली रेबड़ी उड़कर हमारे यहाँ भी गिर गई।  


लोग सुबह उठे, अख़बार खोला तो पाया कि– "बधाई हो! आपके शहर को जिला हुआ है।" बधाइयां गाई जाने लगीं।  


लेकिन शहर वालों को यह नहीं पता था कि जिला क्या होता है, कैसा दिखता है। ललना, को देखने  भीड़ उमड़ पडी, पूछते रहे, "यह कैसा है ललना... स्वस्थ तो है न?" अब जब जिला बन गया है, तो इसके लालन-पालन का जिम्मा सरकार ने लिया है या नहीं?  


आश्वासन मिला कि चिंता मत करो, जिला बन गया है, अभी बच्चा है, अबोध है। धीरे-धीरे बड़ा होगा। इसी बीच चुनाव हुए, और जिन्होंने इस बच्चे की डिलीवरी करवाई थी, उन्हें इस बच्चे के लालन-पालन का हक नहीं मिला। माता-पिता बदले, तो बच्चा अनाथ सा महसूस करने लगा।  

इसे भी पढ़ें: जांच की जांच (व्यंग्य)

शहर में एक आशंका की लहर उठी कि अब इस बच्चे का क्या होगा? लेकिन इसी बीच शहर में राहत की खबर आई कि बच्चा स्वस्थ है, ज़िंदा है और वह शहर में आई हुई नयी चमचमाती सरकारी इनोवा में घूम रहा है।  


बस फिर क्या, लोग सड़कों पर निकल आए, इन चमचमाती सरकारी इनोवा गाड़ियों के स्वागत के लिए। यह जिले का प्रतीक बन गया। जब इनोवा दौड़ती तो ऐसा लगता कि जिला अपनी विकास की रफ्तार से दौड़ रहा है। एक आशा का धुआं छोड़ती इनोवा।  


हम उसी में खुश थे, और क्या चाहिए। हमारा शहर बहुत आशावादी है। उसे मालूम है कि इनोवा है तो फिर इनमें बैठने वाले सरकारी अफसर भी होंगे। फिर दौरे होंगे, मीटिंग होंगी, योजनाएं बनेंगी, कैंप लगेंगे, राहत शिविर लगेंगे, पखवाड़ों का आयोजन होगा, औचक निरीक्षण होंगे, सेमिनार होंगे, बड़े अधिकारियों के दौरे होंगे। इन्हीं के जरिए सरकारी रेबड़ियां बनती रहेंगी, सर्वेक्षण होंगे, आयोग बनेंगे, चिंता शिविर लगेंगे, जन सुनवाई होगी। फिर शहर की समस्याएं चुटकी में हल हो जाएंगी।  


इनोवा घूम रही है... सरकारी इनोवा। बस जिला बना रहना चाहिए। क्या कहा, 5 साल तक जिले का बजट ही अलॉट नहीं होगा? तो क्या! सरकार के पास बजट नहीं है तो कोई बात नहीं, हमें क्या जल्दी है। बस अदना सा बजट चाहिए, इतना कि यह सरकारी इनोवा घूमती रहे, उसके पेट्रोल का खर्चा दे दे सरकार l उस पर सरकारी पट्टिका लगी रहे जिसमें लिखा हो जिला......। अब जिला बना है, इसका पता इसी से चलता है कि सरकार खटारा  जीपों की जगह इनोवा आ गई।  


आप देखें, चमचमाती इनोवा सड़कों पर दौड़ रही है। सरकारी इनोवा के शॉकर भी गज़ब के हैं।टूटी सड़कों पर भी  सरपट दौडती है। मजाल है कि अंदर बैठे अफसर को एक झटका भी लगे। जब ये इनोवा गड्ढों पर से गुजरती है, तो शहर के बाशिंदे कीचड़ पोंछते हुए चहक उठते हैं, "जिला बन गया हमारा शहर।"  


इनोवा हर जगह दिख जाती है... दौरे पर, औचक निरीक्षण पर, मीटिंग में, डाक बंगले में, मंत्रियों की रैली में, ट्रैफिक में, अफसर के बंगले पर... जहाँ उसका मन करे। अंदर साहब बैठे हैं या नहीं, इससे क्या मतलब। बस इनोवा रहनी चाहिए। मेरा शहर सीमित महत्वाकांक्षाओं का शहर है। अब सरकारी इनोवा है न, अब यही हमारे सपने हैं, यही हमारा ओढ़ना, यही हमारा बिछौना, यही हमारा लंच-ब्रेकफास्ट सब है। अगर ज्यादा भावुक हो गए तो इसके आगे अगरबत्ती लगाकर गा सकते हैं– "त्वमेव माता च पिता त्वमेव।"  


अब हम भी कह सकते हैं कि हम हैं जिले के वासी।  


समस्याएं? अरे, समस्या खत्म समझो... जिला बना है अभी। जहाँ-जहाँ इनोवा घूमेगी, समस्याएं ओंधे मुंह गिरी मिलेंगी। काहे को टेंशन लेते हो? इनोवा में चढ़ते और उतरते अधिकारी, उसके पीछे दौड़ते मातहत, एक विशिष्ट पहचान बना रहे हैं मेरे शहर को। इनोवा के ऊपर लगी हरी-लाल लपझप करती बत्ती और सायरन की आवाज डर और कौतूहल का अजीब सा संगम पैदा कर रहे हैं।  


मेरा शहर करवट ले रहा है। कुछ आशा की किरणें जग रही हैं। लेकिन ये क्या! अभी दो-चार कदम चले भी नहीं थे। सरकारी इनोवा ने पहला गियर डालकर चलना शुरू किया ही था कि ऊपर से सरकारी फरमान आ गया। उन्हें वापस बुलाया जा रहा है। 

 

एकदम हड़कंप मच गया कि इनोवा वापस मंगा ली गई! ऐसा लगा जैसे बच्चे से उसका झुनझुना छीन लिया हो। हे भगवान! अब क्या होगा हमारे शहर का? ऐसा लग रहा है जैसे शहर की मांग उजड़ गई।  


जिन्होंने इस बच्चे को डिलीवर करवाया था, उन्हें यह नागवार गुज़रा। इनोवा वापस आनी चाहिए... इस शहर को इनोवा से वंचित नहीं किया जा सकता। हमने इस बच्चे को इनोवा गाड़ी के रूप में एक दूध की बोतल पकड़ाई थी कि बच्चा निप्पल को मुंह में लगाए चुप रहे, रोए नहीं। और अब तुम हमसे ये बोतल छीनने की बात करते हो!क्या कहा..?  बोतल खाली है, उसमें दूध नहीं है..,तो क्या..! खाली बोतल हाथ में पकड़कर बच्चा कम से कम चुप तो है, मुस्करा रहा है। 


खुशखबरी ये है कि शहर में धरने और अनशन होने लगे हैं। संस्थाओं, व्यापारियों, कार्यकर्ताओं, दोस्तों, दुश्मनों, सभी को साम-दाम-दंड-भेद से यह समझाया जा रहा है कि उनसे वह छीना जा रहा है जिसके वे हकदार हैं। इनोवा वापस आनी चाहिए, चाहे इसके लिए हमें अपनी जान भी देनी पड़े।  


चाहे उसमें अफसर बैठे हों या नहीं, खाली इनोवा सड़कों पर हिचकोले खाए, लेकिन इनोवा वापस आनी चाहिए। हमारा बच्चा रो रहा है... उसकी बोतल छीन ली गई है... हम यह कैसे बर्दाश्त करेंगे? हमने भागते भूत की लंगोटी सही, लेकिन लंगोटी हम लेकर रहेंगे।


- डॉ. मुकेश असीमित

प्रमुख खबरें

कौन है असली ग्रुप ऑफ डेथ? FIFA World Cup 2026 ड्रॉ के बाद विश्लेषकों की राय, इन ग्रुप्स पर टिकी नजरें

India-US Trade Pact: 10 दिसंबर से शुरू होगा पहले चरण का मंथन, टैरिफ पर हो सकती है बात

रूस में फैलेगा पतंजलि का साम्राज्य, MoU साइन, योग और भारतीय संस्कृति का बढ़ेगा प्रभाव

7 दिसंबर तक रिफंड-क्लियर करो, 48 घंटे में सामान घर पहुंचाओ, वरना होगी सख्त कार्रवाई, सरकार की लास्ट वॉर्निंग