मेरी फटफटिया, सफेद हाथी से थोड़े न कम है! (व्यंग्य)

By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ | Jul 08, 2021

मैंने कुछ दिन पहले एक नई गाड़ी खरीदी थी। गाड़ी खरीदने से पहले मेरा यह सिद्धांत था कि अपने किसी जान-पहचान के जरूरतमंद को गाड़ी देने से पीछे नहीं हटना चाहिए। गाड़ी लेते ही मैंने सबसे पहले इसी सिद्धांत को तिलांजलि दे दी। पहले दूसरों की गाड़ी लेने के लिए नए-नए बहाने बनाता था। अब गाड़ी न देने के नए-नए बहाने बनाता हूँ। एक समय था जब दूसरों की साइड स्टैंड पर लगी गाड़ी देखकर खुद को बैठने के लालच से रोक नहीं पाता था। स्टाइलिश गाड़ी देखकर आँखों में गजब चमक और सेल्फी खींचने का उतावलनापन छिपाये नहीं छिपता था। अब कोई मेरी गाड़ी को हाथ लगा देता तो आँखें बड़ी-बड़ी कर लाल-पीले चेहरे से उसे घूर देता था। कोई मजाल जो गाड़ी को छूकर दिखाए। दूसरों की चीज़ों पर राज करना और अपनी चीज़ों को बचाए रखने का मजा ही कुछ और होता है।

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आजकल तो लोग गाड़ी दिखाने के लिए नहीं सुनाने के लिए खरीदते हैं। अब आप पूछेंगे कि गाड़ी भला रेडियो या स्पीकर थोड़े न है जो सुनी जा सकती है। लेकिन जब से ‘उनके दिन फिरे’ की तर्ज पर फटफटिया गाड़ी फिर से राज करने लगी हैं, तब से गाड़ी देखने की नहीं सुनने की चीज़ भर बनकर रह गयी है। गाड़ी खरीदते समय बच्चे छोटे हों तो उसका भी अपना एक गजब सुख है। उन्हें गाड़ी पर आगे बिठाकर बाजार घुमाने और उनकी आँखों में सुपरमैन बनने का अवसर जो होता है। श्रीमती जी को पीछे की सीट का हवाला देकर अपनी आँखों पर रौबदार काला चश्मा लगाकर हीरो दिखने का अवसर कोई बुद्धू ही छोड़ेगा। लेकिन बच्चे बड़े हों तो एक अजीब आफत होती है। वे मौके-बेमौके उस पर रफू चक्कर होने का अवसर ढूँढ़ते रहते हैं। ऐसे में गाड़ी को बचाना मुश्किल काम हो जाता है। हाँ अगर बच्चे छोटे हों तो उनसे कपड़ा-वपड़ा मरवा सकते हैं।

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एक दिन मेरे किसी मित्र ने पूछ लिया कि गाड़ी का सुख कैसा है और कितना माइलेज देती है? अब मैं कैसे बताऊँ गाड़ी का सुख अपनी गाड़ी से नहीं औरों की गाड़ी से आता है। किसी पहुँचे हुए क्रिकेटर की तरह पेट्रोल सेंचुरी बनाकर मेरी जेब को चुनौती दे रहा है। सब्जी खरीदते समय फोकट में धनिया उठा लेने वाला मैं, इतना महंगा पेट्रोल डालकर भला गाड़ी चलाऊँगा! सो गाड़ी को रोज चमकाता हूँ और आंगन में सुस्ताने के लिए छोड़ देता हूँ। जहाँ तक माइलेज का सवाल है तो कभी दूर तक दौड़ाया नहीं, इसलिए पता लगाने की जरूरत ही नहीं पड़ी। लोगों को न लगे कि कहीं मैंने गाड़ी बेच दी है इसलिए हफते में एक बार गाड़ी का कान मरोड़ देता हूँ। उसकी फटफटिया आवाज से सभी सनद हो जाते हैं कि गाड़ी अभी बिकी नहीं हैं। साहब! आज के जमाने में एक गाड़ी रखना किसी सफेद हाथी को पालने से थोड़े न कम है।


-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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