मान गई तो जिंदा नहीं तो जलकर मरना है... (व्यंग्य)

By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त' | May 17, 2022

फिर किसी ने एकतरफा प्रेम में सात लोगों को जिंदा जला दिया। जलाने की चिंगारी जलने से शुरु होती है और जलने की प्रक्रिया में बाहर का जलना भीतर के जलने की तुलना में बेबस नजर आता है। वैसे ये बातें आँखोंदेखी-कानोंसुनी कलम की स्याही से लिखी जाती हैं। इसीलिए समाचार पत्र के पन्नों पर छपी ऐसी खबरों को पलटने में तकलीफ नहीं होती। भोगने वाले इसी को दर्द की स्याही से अपने मन-मस्तिष्क पर लिख लेते हैं। इसीलिए जिनके लिए यह एक सामान्य सी खबर बनकर रह जाती है, वही कुछ लोगों के जीवन में अरमानों की कब्र बनकर रह जाती है। दर्द की स्याही से लिखी बातों को समझने के लिए शब्दकोश की नहीं हृदय की आवश्यकता पड़ती है। शब्दकोश फलाँ अक्षर से आरंभ होकर फलाँ अक्षर तक जाकर समाप्त हो जाते हैं। दर्द के मामले में पदबंध के नियम भी धराशायी हो जाते हैं। न इसका भाषा भेद पहचाना जा सकता है, न वचन, न लिंग और न काल। यह तो इन सबसे परे है। जलना और जलाना भाषा, वचन, लिंग और काल से ऊपर है। चीखों की कोई भाषा नहीं होती। इसमें वचन नहीं बेचैन का बोलबाला होता है। लिंग तो मात्र पहचान है, वास्तव में जलना और जलाना उसका प्रारब्ध है। काल की दृष्टि से यह अतीत और भविष्य के साथ साथ शोरगुल का कलकल है।

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प्रेम की दाल में जोर-जबरदस्ती का तड़का लग जाए तब उसमें से खुश्बू नहीं जलने की बू आने लगती है। एकतरफा प्रेम यह मान लेता है कि उसका प्रेम हर हाल में स्वीकार्य होना चाहिए। बाजार में स्वीकार्य बनाने की कई सुविधाएँ उपलब्ध हैं। माचिस, तेल, चाकू, तलवार, एसिड, फंदा और जहर ऐसे एकतरफाओं के शब्दकोश में मोटे और गहरे स्याही में छपे पड़े होते हैं। इनके लिए किसी पादटिप्पणी की आवश्यकता नहीं पड़ती। ये अपने आप में इतने व्याप्त हैं कि बेबसों की बेबसी को बस्साने पर मजबूर कर देते हैं। इनके हिसाब से प्रेम का मतलब एक-दूसरे को काटकर खा जाना है। यह एक ऐसा रसायन है जो शरीर के कार्बन को इतना काला कर देता है कि एकतरफा प्रेमी का नाम जो भी हो वह नाम से काला, काम से काला और खून से भी काला होता है। इनके प्रेम के सात चरण होते हैं- पहला वासना दूसरा जबरन छीनने की चाह, तीसरा धमकाना, चौथा उठाकर ले जाना, पांचवा न मिलने पर ऊटपटांग सोचना, छठवां सनकी हरकतें करना और सातवा वासना की वस्तु न बनने पर जिंदा जला डालना। आज प्रेम करने वाले नहीं फ्रेम में चढ़ाने वाले मिल रहे हैं। जलती लाशों के बीच निकलने वाली सड़ांध को खुश्बू समझने वाले ये एकतरफा प्रेमी ‘जिगर मुरादाबादी’ को ढूंढ़ रहे हैं। उन्हें चुनौती देते हुए कह रहे हैं–


कौन कहता है ये इश्क नहीं आसां, 

ज़रा हमसे मिलकर तो समझ लो तुम।

यह आग का जजीरा है, 

मान गई तो जिंदा नहीं तो जलकर मरना है।    


- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त'

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