By नीरज कुमार दुबे | Oct 31, 2025
भारत की विदेश नीति में एक दिलचस्प और रणनीतिक बदलाव देखने को मिल रहा है। पश्चिम एशिया और यूरोप के संधि क्षेत्र में स्थित छोटा-सा देश साइप्रस, जो दशकों से तुर्की के साथ विवाद में उलझा है, आज भारत के नए सामरिक मित्र के रूप में उभर रहा है। यह मित्रता केवल राजनयिक औपचारिकता नहीं, बल्कि उस बहुध्रुवीय विश्व की दिशा का प्रतीक है जिसमें भारत एक निर्णायक आवाज़ के रूप में सामने आ रहा है।
साइप्रस के विदेश मंत्री कॉन्स्टेंटिनोस कोम्बोस की भारत यात्रा के दौरान दोनों देशों ने 2025-2029 के भारत-साइप्रस एक्शन प्लान की प्रगति की समीक्षा की। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने इसे “विश्वसनीय मित्रता” बताते हुए कहा कि “भारत और साइप्रस भरोसेमंद साझेदार हैं — यह संबंध समय और विश्वास की कसौटी पर खरा उतरा है।” जयशंकर ने साइप्रस को भारत के “स्थायी सहयोगी” के रूप में सराहा और आतंकवाद, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता और न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (NSG) में भारत की सदस्यता को लेकर साइप्रस के समर्थन के लिए धन्यवाद दिया।
दूसरी ओर, कोम्बोस ने कहा कि “भारत एक वैश्विक महाशक्ति है और हम इसे न केवल पुराने मित्र के रूप में बल्कि भविष्य के साझेदार के रूप में देखते हैं।” यह बयान महज कूटनीतिक औपचारिकता नहीं, बल्कि वैश्विक शक्ति-संतुलन की नई भाषा है।
हम आपको बता दें कि साइप्रस भूमध्य सागर के पूर्वी छोर पर स्थित है— यूरोप, एशिया और अफ्रीका के संगम बिंदु पर। यह वही समुद्री गलियारा है जो भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारे (IMEC) के संभावित मार्ग का हिस्सा बन सकता है। साइप्रस न केवल यूरोपीय संघ का सदस्य है, बल्कि 2026 में वह यूरोपीय संघ परिषद की अध्यक्षता भी संभालेगा। ऐसे में उसका भारत के साथ घनिष्ठ संबंध भारत-ईयू संबंधों को नई गति दे सकता है। भारत और साइप्रस के बीच ऊर्जा, रक्षा, समुद्री सुरक्षा और टेक्नोलॉजी सहयोग के नए अवसर खुल रहे हैं। भूमध्य सागर में साइप्रस का भौगोलिक स्थान भारत के लिए पश्चिम एशिया और यूरोप के बीच एक सामरिक गेटवे बन सकता है। वहीं साइप्रस के लिए भारत, एक भरोसेमंद एशियाई साझेदार है जो उसे तुर्की के बढ़ते दबाव के बीच संतुलन और सुरक्षा का राजनीतिक सहारा देता है।
हम आपको यह भी बता दें कि साइप्रस और तुर्की के बीच दशकों पुराना विवाद— जिसे साइप्रस संकट कहा जाता है, आज भी यूरोप की राजनीति का दर्द बना हुआ है। तुर्की ने 1974 में साइप्रस के उत्तरी हिस्से पर कब्ज़ा किया था और वहां एक अलग “तुर्की गणराज्य उत्तरी साइप्रस” की स्थापना की, जिसे विश्व समुदाय ने कभी मान्यता नहीं दी। भारत ने हमेशा साइप्रस की संप्रभुता, एकता और क्षेत्रीय अखंडता का समर्थन किया है — यह नीति आज भी कायम है। वहीं तुर्की, पाकिस्तान का घनिष्ठ मित्र और कश्मीर मुद्दे पर भारत का मुखर विरोधी रहा है।
इस पृष्ठभूमि में, भारत और साइप्रस की साझेदारी एक सूक्ष्म रणनीतिक सन्देश देती है कि यह केवल एक छोटे यूरोपीय देश से दोस्ती नहीं, बल्कि तुर्की के विस्तारवादी रुख के प्रति एक वैकल्पिक शक्ति-संतुलन का निर्माण है। भारत तुर्की के इस्लामी राष्ट्रवादी एजेंडे को संतुलित करने के लिए अब ग्रीस, फ्रांस, इज़रायल और साइप्रस के साथ एक अनौपचारिक “भूमध्य धुरी” बना रहा है। यह धुरी भारतीय हितों के लिए पश्चिम एशिया और यूरोप के बीच एक स्थिर सेतु का काम करेगी।
हम आपको बता दें कि भारत और यूरोपीय संघ के बीच मुक्त व्यापार समझौते (EU-India FTA) पर बातचीत अंतिम चरण में है। साइप्रस इस समझौते को लेकर भारत के सबसे प्रबल समर्थकों में है। अगर यह समझौता 2025 तक पूरा होता है, तो यह भारत को यूरोप के बाजारों तक तेज़ और सुलभ पहुँच देगा, जबकि साइप्रस को भारत के विशाल उपभोक्ता बाजार से जुड़ने का अवसर मिलेगा। साइप्रस के पास समुद्री परिवहन, जहाज-रजिस्ट्रेशन, वित्तीय सेवाओं और ऑफशोर ऊर्जा अन्वेषण की क्षमता है। भारत इन क्षेत्रों में निवेश और तकनीकी सहयोग के माध्यम से भूमध्य सागर में अपनी उपस्थिति को मजबूत कर सकता है।
इसके सामरिक अर्थ भी गहरे हैं। भारत पहले ही IMEC (India-Middle East-Europe Economic Corridor) में प्रमुख भूमिका निभा रहा है, जो चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) का विकल्प माना जा रहा है। साइप्रस इस परियोजना के यूरोपीय छोर के रूप में भारत के लिए स्ट्रैटेजिक डॉमिनो पॉइंट बन सकता है— जिससे हिंद महासागर से लेकर भूमध्य सागर तक भारत की आर्थिक और सुरक्षा पहुँच सुनिश्चित होगी।
देखा जाये तो विश्व अब एक नए बहुध्रुवीय युग में प्रवेश कर चुका है, जहाँ शक्ति एकध्रुवीय (अमेरिका) या द्विध्रुवीय (अमेरिका-चीन) नहीं रही। यूरोप, एशिया, अफ्रीका और मध्य पूर्व के बीच नए गठबंधन बन रहे हैं। ऐसे में भारत और साइप्रस की मित्रता उस वैचारिक दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करती है जो विभाजन नहीं, सहयोग में विश्वास रखता है। भारत के लिए साइप्रस का समर्थन संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर एक नैतिक पूँजी है। वहीं साइप्रस, भारत की बढ़ती वैश्विक भूमिका के सहारे अपनी भू-राजनीतिक हैसियत मजबूत कर सकता है। इस प्रकार, यह साझेदारी केवल द्विपक्षीय नहीं बल्कि यूरोप-भारत-भूमध्य सागर की सामरिक त्रिकोणीय व्यवस्था की बुनियाद रखती है।
बहरहाल, भारत की विदेश नीति अब केवल “गुटनिरपेक्षता” नहीं, बल्कि “गुटनिर्माण” की दिशा में बढ़ रही है— अपने हितों के अनुसार नए गठबंधन गढ़ने की नीति। साइप्रस के साथ गहराते संबंध इसी प्रवृत्ति का उदाहरण हैं। यह मित्रता न तो तुर्की विरोध की प्रतिक्रिया है, न ही पश्चिम की नकल; यह भारत की स्वतंत्र और आत्मनिर्भर विदेश नीति की परिपक्वता का प्रमाण है। जैसे-जैसे साइप्रस 2026 में यूरोपीय संघ का नेतृत्व करेगा, भारत के लिए यह मित्रता पश्चिमी मंचों पर उसकी आवाज़ को और प्रभावी बनाएगी। भूमध्य सागर से लेकर हिंद महासागर तक, भारत अब केवल व्यापार का भागीदार नहीं, बल्कि रणनीतिक शक्ति के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है।