विश्वविद्यालयों में हो रही हिंसा कहीं कोई बड़ी साजिश तो नहीं ?

By ललित गर्ग | Jan 08, 2020

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में रविवार को हुई हिंसा को किसी विश्वविद्यालय में छात्रों के बीच हुई आपसी मारपीट की तरह नहीं देखा जा सकता, इस तरह की हिंसा को राजनीतिक, साम्प्रदायिक एवं जातीय संरक्षण प्राप्त है। यह एक षड्यंत्र है, जिसमें छात्रों को राजनीतिक हितों के लिये इस्तेमाल किया जा रहा है। विश्वविद्यालयों से छात्रों की बेचैनी और संगठनों के हिंसक टकराव की खबरें पिछले कुछ सालों से लगातार आ रही हैं, लेकिन हाल के दिनों में हुई ऐसी घटनाओं को अलग रोशनी में ही देखा जा सकता है। नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को लेकर पहले जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में और अब जेएनयू में हिंसक घटनाओं को देखना होगा कि इन घटनाओं में कैंपस से ज्यादा बड़े सूत्र कैंपस के बाहर हैं। जेएनयू प्रारंभ से ही वामपंथी विचारधारा का गढ़ रहा है, लेकिन बीते कुछ समय से वहां वैचारिक स्वतंत्रता के नाम पर अराजक एवं असहिष्णु विचारधारा को भी पोषण मिल रहा है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि जेएनयू में उन्हें विशेष संरक्षण मिलता है जो भारतीयता, राष्ट्रीयता आदि को हेय दृष्टि से देखने को तत्पर रहते हैं। राष्ट्र को तोड़ने वाली एवं विखंडित करने वाली ताकतें कैसे, क्यों एवं कब तक जेएनयू में संरक्षण पाती रहेंगी ?

 

यह विडम्बनापूर्ण है कि जेएनयू जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के भीतर चेहरों पर नकाब लगा कर हाथों में लाठी, सरिये व हथौड़े लेकर कुछ गुंडेनुमा लोग छात्रों को पीटते रहे। विचारों को गोली मार कर किसी भी सूरत में खत्म नहीं किया जा सकता, विचार केवल तीखे जवाबी विचार से ही क्षीण हो सकते हैं। सवाल यह भी कि जब पुलिस किसी शिक्षण संस्थान में जाती है तो उसे आलोचना का शिकार बनना पड़ता है। ऐसी स्थिति में कैसे कानून व्यवस्था कायम हो ? किसी भी शैक्षिक संस्थान में हिंसा का होना एवं सरस्वती के इन पवित्र मन्दिरों को राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति का अखाड़ा बनाना बेहद शर्मनाक है। इससे खराब बात और कोई नहीं कि देश की राजधानी का एक नामी विश्वविद्यालय खौफनाक गुंडागर्दी का गवाह बने। इस त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण घटना के आरोपी नकाबधारी हिंसक तत्वों को बेनकाब करना जरूरी है, बल्कि जरूरत इस बात की भी है कि उन्हें शह देने वालों की मांद तक पहुंचे। अगर हिंसा के लिए जिम्मेदार तत्वों पर शिकंजा नहीं कसा गया तो यह विश्वविद्यालय खूनी छात्र राजनीति का अखाड़ा ही बनेगा और अपनी रही-सही प्रतिष्ठा से भी हाथ धोएगा।

इसे भी पढ़ें: कई केंद्रीय मंत्री JNU से हैं, भाजपा पर आरोप लगाने वालों को यह नहीं दिखता

यह किसी से छिपा नहीं कि जेएनयू में कभी नक्सलियों का गुणगान होता है तो कभी आतंकियों का। इस तरह के ओछे आचरण को वैचारिक स्वतंत्रता के आवरण में ढकने की भी कोशिश होती है। इस कोशिश में कई राजनीतिक दल खुशी-खुशी इसलिए शामिल होते हैं, क्योंकि इससे ही उनका हित सधता है। ये वही दल हैं जो जेएनयू में रजिस्ट्रेशन के साथ पठन-पाठन को हिंसा के सहारे बाधित किए जाने पर तो मौन धारण किए रहे, लेकिन जैसे ही विश्वविद्यालय परिसर में नकाबपोशों के उत्पात की खबर मिली वैसे ही इस निष्कर्ष पर पहुंच गए कि यह सब कुछ सरकार के इशारे पर हुआ है। यह आरोप इसलिए गले नहीं उतरता, क्योंकि नागरिकता कानून के हिंसक विरोध से सरकार पहले ही परेशान है, वह क्यों जानबूझकर एक और नई समस्या को आमंत्रण देगी, क्यों कोई सरकार खुद को सवालों से घेरे जाने वाला काम करेगी ? कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार का संकट बढ़ाने पर आमादा ताकतों ने जेएनयू में उत्पात मचाने की साजिश रची हो ? इस अंदेशे का एक बड़ा आधार यह है कि दोनों ही पक्ष के छात्र हिंसा का शिकार बने हैं। बेहतर हो कि सरकार इसके लिए हर संभव कोशिश करे कि जेएनयू में हिंसा फैलाने वालों का सच जल्द सामने आए। आवश्यक यह भी है कि उन कारणों का निवारण किया जाए जिनके चलते जेएनयू अराजक शैक्षिक संस्थान के तौर पर कुख्यात हो रहा है। यह काम इसलिए प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए, क्योंकि इस संस्थान की स्थापना जिन उद्देश्यों के लिए की गई थी उनसे वह दूर जा रहा है।

 

इन विरोधी आन्दोलनों में देश के मासूम, नवजवान रोज अपने जीवन एवं जीवन के उद्देश्यों को स्वाह कर रहे हैं। सड़कों पर उठने वाला यह धुआं नहीं बल्कि ज्वालामुखी का रूप ले रहा है। जो न मालूम क्या कुछ स्वाह कर देगा। जो न मालूम राष्ट्र से कितनी कीमत मांगेगा। देश की आशा जब किन्हीं संकीर्ण एवं अराष्ट्रीय स्वार्थों के लिये अपने जीवन को समाप्त करने के लिए आमादा हो जाए तो सचमुच पूरे राष्ट्र की आत्मा, स्वतंत्रता के सात दशकों की लम्बी यात्रा के बाद भी इन स्थितियों की दयनीयता देखकर चीत्कार कर उठती है। छात्र राजनीति की इन घटनाओं ने देश के अधिकांश विद्यार्थियों और बुद्धिजीवियों को इतना अधिक उद्वेलित किया है जितना आज तक कोई भी अन्य मसला नहीं कर पाया था। क्यों आक्रोश एवं हिंसा पर उतर रहा है देश का युवावर्ग ? विरोध करने की यह भारत की परम्परा नहीं रही। राष्ट्र के युवकों ! जितनी संख्या में तुम सड़कों पर उतर आए हो, उतनी मुट्ठियां तन जाएँ तो देश की तमाम समस्याओं का समाधान हो सकता है।

 

आज हमें राष्ट्रीय आंगन में दीवार उठाने की नहीं, घर की दीवारें मजबूत बनाने की जरूरत है। यह मजबूती एक पॉजिटिव और ईमानदार सोच ही ला सकती है। ऐसी सोच, जो हमें जाति, भाषा और मजहब की दीवारों से आजाद कराए। समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुत्व अगर संविधान में वर्णित शब्द ही बने रहेंगे, तो यह हमारी जड़ता और मूढ़ता का परिचायक होगा। ये शब्द हमारे जीवन का हिस्सा बनने चाहिए। जब तक जाति और मजहब वोट की राजनीति का जरिया बने रहेंगे, जब तक सारा समाज भारतीयता के सूत्र में नहीं बंधेगा, तब तक वह आंदोलन नहीं पनप सकता, जो हमें बेहतर नागरिक और बेहतर इंसान बना सकता है। दीवारें आंगन छोटा बनाती हैं, जबकि जरूरत इसे बड़ा करने की है। इसे बड़ा करके ही राष्ट्रीयता को मजबूत कर सकेंगे, छात्र आन्दोलन से मुक्ति पा सकेंगे।

इसे भी पढ़ें: छात्र पढ़ने की बजाय राजनीतिक दलों के हाथों का खिलौना बनते जा रहे हैं

इस बदल रहे माहौल में हिंदू हों या मुसलमान- सभी को सामूहिक विनाश से बचने के लिए महसूस करना पड़ेगा कि बीमारी लाइलाज होती जा रही है। नफरत से पैदा हुई दूरियां शिक्षा के प्रांगणों को प्रदूषित कर रहे हैं। तब यह सोचने का वक्त नहीं है रह जाता कि कौन सही था, कौन गलत। तब सारे तर्क बेमानी हो जाते हैं। आज देश में तेजी से ध्रुवीकरण हो रहा है। सही मायनों में असाम्प्रदायिकता और गणतांत्रिक व्यवस्था में अटूट आस्था ही पूरी कौम को जिंदा और खुशहाल रख सकती है।

 

-ललित गर्ग

 

प्रमुख खबरें

कोई ‘लहर’ नहीं है, प्रधानमंत्री Narendra Modi की भाषा में केवल ‘जहर’ है : Jairam Ramesh

Rae Bareli से Rahul का चुनाव लड़ना India गठबंधन का हौसला बढ़ाने वाला: Pilot

महा विकास आघाडी Maharashtra में लोकसभा चुनाव में अधिकतम सीट जीतेगा : Aditya Thackeray

Russia के राष्ट्रपति Putin इस सप्ताह China की दो दिवसीय राजकीय यात्रा करेंगे