By नीरज कुमार दुबे | Dec 20, 2025
पुणे में आयोजित सिम्बायोसिस इंटरनेशनल (डीम्ड यूनिवर्सिटी) के 22वें दीक्षांत समारोह में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने बदलती वैश्विक राजनीति और अर्थव्यवस्था पर एक स्पष्ट, आत्मविश्वासी और दूरगामी दृष्टि रखी। उन्होंने कहा कि आज की दुनिया एकध्रुवीय नहीं रही। वैश्विक शक्ति संतुलन में बुनियादी बदलाव आया है और अब कई शक्ति केंद्र उभर चुके हैं। उन्होंने कहा कि किसी भी देश में, चाहे वह कितना ही ताकतवर क्यों न हो, यह क्षमता नहीं रही है कि वह हर मुद्दे पर अपनी इच्छा थोप सके।
जयशंकर ने कहा कि शक्ति की परिभाषा अब केवल सैन्य ताकत तक सीमित नहीं है। व्यापार, ऊर्जा, संसाधन, तकनीक, पूंजी और सबसे बढ़कर प्रतिभा, ये सभी आज शक्ति के निर्णायक तत्व हैं। उन्होंने कहा कि वैश्वीकरण ने दुनिया के सोचने और काम करने के तरीकों को पूरी तरह बदल दिया है। ऐसे में बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश के रूप में भारत के लिए यह जरूरी है कि वह समकालीन और मजबूत विनिर्माण क्षमता विकसित करे, ताकि तकनीक की दौड़ में पीछे न रह जाए।
विदेश मंत्री ने इस बात पर भी जोर दिया कि आज भारत को दुनिया पहले से कहीं अधिक सकारात्मक और गंभीर दृष्टि से देख रही है। उन्होंने कहा कि भारत की “नेशनल ब्रांड वैल्यू” और भारतीयों की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। दुनिया भर में भारतीयों को मेहनती, तकनीक सक्षम और पारिवारिक मूल्यों से जुड़े समाज के रूप में देखा जा रहा है। प्रवासी भारतीयों की भूमिका और भारत में बेहतर होता व्यापारिक एवं सामाजिक माहौल पुराने नकारात्मक स्टीरियोटाइप्स को पीछे छोड़ रहा है।
जयशंकर ने कहा कि भारत की ताकत उसकी मानव संसाधन क्षमता में निहित है। वैश्विक कैपेबिलिटी सेंटर्स की बढ़ती संख्या, भारतीय प्रतिभा की अंतरराष्ट्रीय मांग और कौशल आधारित पहचान इस बदलाव के ठोस प्रमाण हैं। उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि विनिर्माण और सेवा क्षेत्र के बीच कृत्रिम विभाजन निरर्थक है और दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। उन्होंने कहा कि बीते दशक में उच्च शिक्षा संस्थानों की संख्या में दोगुनी वृद्धि भारत के भविष्य की तैयारी का संकेत है।
उन्होंने पश्चिमी देशों की तुलना करते हुए कहा कि जहां कई पश्चिमी अर्थव्यवस्थाएं ठहराव का अनुभव कर रही हैं, वहीं भारत ने सुधारों के बाद, विशेषकर पिछले एक दशक में, उल्लेखनीय प्रगति की है। इन तमाम घटनाक्रमों का समग्र परिणाम यह है कि वैश्विक आर्थिक और राजनीतिक ‘पेकिंग ऑर्डर’ में निर्णायक बदलाव आया है और भारत इस बदलाव के केंद्र में है।
देखा जाये तो जयशंकर के शब्द भारत की बदली हुई विदेश नीति का उद्घोष हैं। यह वह भारत है जो न तो किसी गुट का पिछलग्गू है और न ही किसी दबाव में झुकने वाला। बहुध्रुवीय दुनिया की इस नई संरचना में भारत खुद को “बैलेंसर” नहीं, बल्कि “शेपर” के रूप में स्थापित कर रहा है। पिछले एक दशक में भारतीय विदेश नीति ने नैरेटिव बदल दिया है। कभी ‘नॉन-अलाइनमेंट’ की रक्षात्मक छाया में रहने वाला भारत आज ‘मल्टी-अलाइनमेंट’ के हथियार से लैस है। अमेरिका, रूस, यूरोप, मध्य-पूर्व, इंडो-पैसिफिक, हर मंच पर भारत अपने राष्ट्रीय हित को केंद्र में रखकर, बिना हिचक, बिना संकोच, संवाद करता है। यही वजह है कि आज दुनिया भारत की बात सुनती है, उसे गंभीरता से लेती है।
भारत की सामरिक सफलता का मूल मंत्र उसकी मानव पूंजी है। जयशंकर सही कहते हैं कि भारत की विशिष्टता उसकी प्रतिभा में है। तकनीक, डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर, स्टार्टअप इकोसिस्टम और वैश्विक श्रम बाजार में भारतीयों की स्वीकार्यता, भारत की ‘सॉफ्ट पावर’ को ‘स्ट्रैटेजिक पावर’ में बदल चुके हैं। यह वह ताकत है जिसे न तो प्रतिबंधों से रोका जा सकता है और न ही दबाव से कुचला जा सकता है। विनिर्माण पर जोर और आत्मनिर्भरता की बात कोई संरक्षणवादी नारा नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक अनिवार्यता है। सप्लाई चेन संकटों ने दुनिया को सिखा दिया है कि आर्थिक निर्भरता ही राजनीतिक कमजोरी बन जाती है। ऐसे में भारत का मैन्युफैक्चरिंग पुश, तकनीकी आत्मनिर्भरता और स्किल डेवलपमेंट, उसे एक निर्णायक वैश्विक खिलाड़ी बनाते हैं।
पश्चिम के ठहराव और भारत की गति के इस अंतर ने वैश्विक शक्ति संतुलन को हिला दिया है। यही कारण है कि आज भारत को “उभरती शक्ति” नहीं, बल्कि “अपरिहार्य शक्ति” के रूप में देखा जा रहा है। यह बदलाव संयोग नहीं, बल्कि सुनियोजित नीति, स्पष्ट नेतृत्व और राष्ट्रीय आत्मविश्वास का परिणाम है।
बहरहाल, जयशंकर का वक्तव्य भारत की विदेश नीति का आईना है जोकि सीधा, बेबाक और धारदार है। आज का भारत अपने हित खुद परिभाषित करता है, अपने साझेदार खुद चुनता है और वैश्विक मंच पर अपनी शर्तों पर चलता है। बहुध्रुवीय दुनिया में भारत अब सिर्फ एक ध्रुव नहीं, दिशा तय करने वाली शक्ति बन चुका है।