By शुभा दुबे | Oct 08, 2025
कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को करवा चौथ अथवा करक चतुर्थी के नाम से जाना जाता है। इस दिन सौभाग्यवती स्त्रियों के लिए गणेशजी की पूजा करने का विधान है। भारतीय वाड्मय में गणेश जी की पूजा किसी भी कार्य के प्रारम्भ में करने की प्रथा सदैव से हो रही है, क्योंकि सभी देवों में इन्हें अनादि देव माना गया है। अतः गणेश जी की पूजा सर्वप्रथम होती है।
भगवान शिव-पार्वती ने भी अपने विवाह काल में सर्वप्रथम गणेशजी की पूजा की थी। इसका उल्लेख कवि कुल सम्राट गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने महाकाव्य में किया है। इस व्रत की पूजा को आवश्यक कहा गया है। करवा चौथ के दिन व्रती को नित्य कर्म से निवृत्त होकर गणेशजी की पूजा के लिए मन में दृढ़ संकल्प करना चाहिए कि मैं आज दिन भर निराहार रहकर गणेशजी के ध्यान में तत्पर रहूंगी और रात्रि में जब तक चंद्रोदय नहीं हो जायेगा तब तक निर्जल व्रत करूंगी।
व्रत के दिन सायंकाल में घर की दीवार को गोबर से लीपकर उसके ऊपर गेरू की स्याही बनाकर उससे गणेश, पार्वती, शिव, कार्तिकेय आदि देवों की प्रतिमा बनानी चाहिए। साथ ही एक वटवृक्ष मानव की आकृति बनाकर दिखानी चाहिए। उस मानवाकृति के हाथ में छलनी भी होनी चाहिए। पास में उदित होते हुए चांद की आकृति भी उस दीवार पर चित्रित करनी चाहिए।
पूजन काल में उस प्रतिमा के नीचे दो करवों (तांबा, पीतल, मिट्टी आदि से निर्मित एक विशेष प्रकार का पात्र, जिसके सिर पर जल गिराने के लिए एक टोंटी लगी रहती है) में जल भरकर रखना चाहिए। उस करवे के गले में नारा लपेटकर सिंदूर से रंगना चाहिए और उसकी टोंटी में सरई की सींक लगानी चाहिए। तदनन्तर करवे के ऊपर चावल से भरा हुआ कटोरा रखकर सुपारी भी रखनी चाहिए। नैवेद्य के रूप में उस पर चावल का बना हुआ लड्डू रखें। इसके अतिरिक्त प्रतिमा के पास खीर, पूड़ी, चावल के आटे में उड़द की पीठी भरकर पकाया हुआ पकवान भी नैवेद्य के रूप में अर्पित करें। इसके अतिरिक्त ऋतु फल के अनुसार सिंघाड़ा, केला, नारंगी, गन्ना आदि जो कुछ भी पदार्थ उपलब्ध हो, उसे अर्पित कर भक्तिपूर्वक कथा श्रवण करें। कथा के अंत में पूर्व में स्थापित उन करवों को दाहिनी ओर से बायीं ओर और बायीं ओर रखे हुए करवे को दाहिनी ओर घुमाकर स्थापित कर दें। इस प्रकि्रया को लोकभाषा में करवा फेरना भी कहते हैं। इस प्रकार विधि विधानपूर्वक पूजन करने से व्रती के ऊपर गणेश जी की प्रसन्नता होती है और इसके फलस्वरूप उसे मनोवांछित फल की प्राप्ति एवं अखण्ड सौभाग्यता मिलती है।
एक समय की बात है कि एक करवा नाम की पतिव्रता स्त्री अपने पति के साथ नदी के किनारे के गांव में रहती थी। एक दिन उसका पति नदी में स्नान करने गया। स्नान करते समय वहां एक मगर ने उसका पैर पकड़ लिया। वह मनुष्य करवा-करवा कह के अपनी पत्नी को पुकारने लगा।
उसकी आवाज सुनकर उसकी पत्नी करवा भागी चली आई और आकर मगर को कच्चे धागे से बांध दिया। मगर को बांधकर यमराज के यहां पहुंची और यमराज से कहने लगी- हे भगवन! मगर ने मेरे पति का पैर पकड़ लिया है। उस मगर को पैर पकड़ने के अपराध में आप अपने बल से नरक में ले जाओ।
यमराज बोले- अभी मगर की आयु शेष है, अतः मैं उसे नहीं मार सकता। इस पर करवा बोली, अगर आप ऐसा नहीं करोगे तो मैं आप को श्राप देकर नष्ट कर दूंगी। सुनकर यमराज डर गए और उस पतिव्रता करवा के साथ आकर मगर को यमपुरी भेज दिया और करवा के पति को दीर्घायु दी। हे करवा माता! जैसे तुमने अपने पति की रक्षा की, वैसे सबके पतियों की रक्षा करना।
इस व्रत के माहात्म्य पर महाभारत में एक कथा मिलती है जो इस प्रकार है−
एक बार अर्जुन नीलगिरि पर तपस्या करने गये। द्रौपदी ने सोचा कि वहां हर समय अनेक प्रकार की विघ्न बाधाएं आती रहती हैं। उनके शमन के लिए अर्जुन तो यहां हैं नहीं, अतरू कोई उपाय करना चाहिए। यह सोचकर उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान किया। भगवान वहां उपस्थित हुए तो द्रौपदी ने अपने कष्टों के निवारण हेतु कोई उपाय बताने को कहा। इस पर श्रीकृष्ण बोले, ''एक बार पार्वतीजी ने भी शिवजी से यही प्रश्न किया था तो उन्होंने कहा था कि करवा चौथ का व्रत गृहस्थी में आने वाली छोटी मोटी विघ्न बाधाओं को दूर करने वाला है। यह पित्त प्रकोप को भी समाप्त करता है।'' फिर श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को एक कथा सुनाई− प्राचीन काल में एक धर्मपरायण ब्राह्मण के सात पुत्र तथा एक पुत्री थी। बड़ी होने पर पुत्री का विवाह कर दिया गया। कार्तिक की चतुर्थी को कन्या ने करवा चौथ का व्रत रखा। सात भाइयों की लाड़ली बहन को चंद्रोदय से पहले भूख सताने लगी। उसका फूल−सा चेहरा मुरझा गया। भाइयों के लिए बहन की यह वेदन असहनीय थी। वे कुछ उपाय सोचने लगे। पहले तो उन्होंने बहन से चंद्रोदय से पहले ही भोजन करने को कहा, पर बहन न मानी। तब भाइयों ने स्नेहवश पीपल के वृक्ष की आड़ में प्रकाश करके कहा, 'देखो चंद्रोदय हो गया। उठो, अर्घ्य देकर भोजन करो।'
बहन उठी, चंद्रमा को अर्घ्य देकर भोजन कर लिया। भोजन करते ही उसका पति मर गया। यह देख वह रोने लगी। देवयोग से इन्द्राणी देवदासियों के साथ वहां से जा रही थीं। रोने की आवाज सुन वे वहां गईं और उससे रोने का कारण पूछा। ब्राम्हण कन्या ने सब हाल कह सुनाया तो इन्द्राणी बोलीं, 'तुमने करवा चौथ के व्रत में चंद्रोदय से पूर्व ही अन्न जल ग्रहण कर लिया, इसी से तुम्हारे पति की मृत्यु हुई है। अब यदि तुम मृत पति की सेवा करती हुई बारह महीनों तक प्रत्येक चौथ को यथाविधि व्रत करो, करवा चौथ को विधिवत गौरी, शिव, गणेश, कार्तिकेय सहित चंद्रमा का पूजन करो तथा चंद्रोदय के बाद अर्घ्य देकर अन्न जल ग्रहण करो तो तुम्हारे पति अवश्य जी उठेंगे। ब्राम्हण कन्या ने 12 माह की चौथ सहित विधिपूर्वक करवा चौथ का व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उसका मृत पति जीवित हो गया। यह कथा कह कर श्रीकृष्ण द्रौपदी से बोले, यदि तुम भी श्रद्धा एवं विधिपूर्वक इस व्रत को करो तो तुम्हारे सब दुरूख दूर हो जाएंगे और सुख सौभाग्य, धन धान्य में वृद्धि होगी। द्रौपदी ने श्रीकृष्ण के कथनानुसार करवा चौथ का व्रत रखा। उस व्रत के प्रभाव से महाभारत के युद्ध में कौरवों की हार तथा पांडवों की जीत हुई।
-शुभा दुबे