राजनीतिक आंसुओं का रासायनिक विश्लेषण (व्यंग्य)

By विजय कुमार | Jul 19, 2018

आंसू का साहित्य में बड़ा महत्व है। भाषा कोई भी हो, पर आंसू की खुराक के बिना उसकी गाड़ी आगे नहीं बढ़ती। न जाने कितनी कविता, शेर, गजल, कहानी और उपन्यासों के केन्द्र में आंसू ही हैं। सुमित्रानंदन पंत के शब्दों में -

 

वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान

निकल कर आंखों से चुपचाप, बही होगी कविता बन अनजान।

 

फिल्मों में हास्य की तरह रुदन भी जरूरी है। सुना है जिन फिल्मों में रोना-धोना ज्यादा हो, महिलाएं उन पर टूट पड़ती हैं। राजस्थान में तो पैसे लेकर रोने वाली एक पेशेवर जाति ही है। इस पर ‘रुदाली’ फिल्म बनी है। वैसे आंसू का कुछ भरोसा नहीं है। फिल्म मिलन के गीत में कहा भी है -

 

हजारों तरह के ये होते हैं आंसू

अगर दिल में गम हो तो रोते हैं आंसू

खुशी में भी आंखें भिगोते हैं आंसू

इन्हें जान सकता नहीं ये जमाना। मैं तो दीवाना...।

 

दुख और खुशी के अलावा आंसू और भी कई तरह के होते हैं। जब कोई बहुत अधिक कष्ट में हो, तो वह खून के आंसू रोता है। आठ-आठ आंसुओं का अर्थ शायद आठों पहर लगातार रोने से है। घड़ियाल के बारे में कहते हैं कि किसी को निगलते समय उसकी आंखों पर दबाव पड़ता है। उससे निकलने वाला द्रव ही घड़ियाली आंसू हैं। पहाड़ में घुघुती पक्षी की दर्दीली आवाज को लोग उसका रोना मानते हैं। इस पर सैकड़ों लोकगीत बने हैं। कहते हैं कि चिर विरही प्रेमिकाएं ही अगले जन्म में घुघुती बन जाती हैं।  

 

हमारे शर्मा जी का मत है कि आंसू चाहे जिसके भी हों, पर है तो वह खारा पानी ही। यदि उसका रासायनिक विश्लेषण करें, तो हाइड्रोजन, ऑक्सीजन और थोड़ा कैल्शियम; पर इनका राजनीतिक विश्लेषण इस पर निर्भर है कि आंसू कब, क्यों, कैसे और किसके सामने निकले ?

 

कुछ दिन पूर्व भारतीय दौड़ाक हिमा दास ने विश्व जूनियर चैम्पियनशिप में स्वर्ण पदक जीता। जब वह विक्ट्री स्टैंड पर खड़ी हुई, तो राष्ट्रगान बजते समय उसके आंसू बह निकले। प्रधानमंत्री मोदी ने तुरंत उन्हें कैच किया और अपने संदेश के साथ प्रसारित कर दिया। 

 

यद्यपि मोदी जी बड़े सख्त मिजाज आदमी हैं; पर 2014 में लोकसभा के चुनाव में जीत के बाद अपने स्वागत समारोह में आडवाणी जी के एक वाक्य पर उनके आंसू निकल आये थे। मुख्यमंत्री रहते हुए भी एक-दो बार उन्हें रोते देखा गया है। यद्यपि विरोधी इसे नाटक बताते हैं; पर ऐसा नाटक भी तो सबके बस का नहीं है।

 

लेकिन फिलहाल तो कर्नाटक के मुख्यमंत्री कुमारस्वामी के आंसुओं की चर्चा है। उन्होंने एक सभा में कह दिया कि वे शिव की तरह जहर पी रहे हैं। असल में कांग्रेस ने उन्हें लोकसभा चुनाव तक के लिए खड़ाऊं मुख्यमंत्री बनाया है। और कांग्रेसी इतने मूर्ख नहीं हैं कि उन्हें सब कुछ अपने मन से करने दें। इसलिए उन्हें हर दिन अपमान सहना पड़ रहा है। 

 

पर उनके रोते ही बवाल हो गया। सारे कांग्रेसी राशन पानी लेकर उन पर पिल पड़े। उनकी बिल्ली और उन्हें ही म्याऊं ? उन्होंने कुमारस्वामी के इन आंसुओं को खुशी के आंसू बताया। यानि जबरा मारे भी और रोने भी न दे। 

 

शर्मा जी का विचार है कि किसी विश्वविद्यालय को आंसुओं पर विस्तृत शोध कराना चाहिए। जिससे पता लगे कि खुशी और दुख, मान और अपमान, नकली और असली, राजनीतिक और रासायनिक आंसुओं में क्या अंतर है ? 

 

शर्मा जी की इच्छा कब पूरी होगी, ये तो भगवान जाने। फिलहाल तो मैं कुमारस्वामी की व्यथा सहर ‘रामपुरी’ के शब्दों में व्यक्त करना चाहता हूं - 

 

जमाना हंस रहा है और मैं रो भी नहीं सकता

ये हालत किस कदर मजबूरियों की जिन्दगानी है।

 

-विजय कुमार

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