By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ | Sep 25, 2025
रामकांत, जो अपनी माँ की पेंशन की फ़ाइल लेकर सरकारी दफ्तर के चक्कर काट रहा था, उसे लगता था कि समय किसी नदी की तरह बहता है। पर यहाँ, इस सरकारी दफ्तर में, समय सीमेंट की तरह जम गया था। सालों पुरानी धूल की परतें मेजों पर इस तरह बिछी थीं, जैसे किसी प्राचीन सभ्यता का उत्खनन हो रहा हो। हर बाबू की कुर्सी एक सिंहासन थी, जिस पर वे ऐसे बैठे थे, मानो किसी अज्ञात साम्राज्य के अंतिम शासक हों। रामकांत ने जब बाबू के सामने पहली बार फ़ाइल रखी, तो बाबू ने उसे ऐसे देखा जैसे उसने कोई एलियन वस्तु पेश कर दी हो। बाबू ने अपने चश्मे को नाक पर टिकाया, जो सालों की लापरवाही से अपनी पकड़ खो चुका था, और धीमे से बुदबुदाया, "पेंशन? आज के युग में? बेटे, यह कोई सरकारी योजना नहीं, यह तो एक आध्यात्मिक यात्रा है। इसमें धैर्य चाहिए, तपस्या चाहिए।" रामकांत को लगा कि वह दफ्तर नहीं, किसी आश्रम में आ गया है। बाबू की बात सुनकर उसे लगा कि जैसे मोक्ष के लिए यत्न किया जाता है, वैसे ही यहाँ पेंशन के लिए करना पड़ेगा। 'जिंदगी एक फ़ाइल है और फ़ाइल ही जिंदगी', यह पंचलाइन उसे दर्द दे रही थी।
बाबू ने एक गहरी साँस ली और कहा, "तुम्हारे कागज़ात में एक मामूली सी कमी है। 'जन्म प्रमाण पत्र' पर 'दाहिना अंगूठा' नहीं लगा है।" रामकांत ने अपनी आँखें मलते हुए कहा, "बाबू जी, अंगूठा लगा है, देखिए।" बाबू ने चश्मा उतारा और उसे एक सिरे से दूसरे सिरे तक, एक फ़िल्मी अंदाज़ में ऐसे देखा जैसे कोई अपराधी को देख रहा हो। बाबू ने सिर हिलाया और कहा, "अंगूठा तो लगा है, पर स्याही का रंग 'सरकारी नीला' नहीं है। यह तो बाजार वाला काला है। इसे दुबारा लाओ।" रामकांत की आँखों से आँसू छलक आए। "बाबू जी, मेरी माँ बहुत बीमार हैं, उन्हें जल्द दवाई दिलानी है," उसने गिड़गिड़ाते हुए कहा। बाबू ने उसे ऐसे देखा जैसे वह किसी फ़ालतू बात में समय बर्बाद कर रहा हो। एक पल के लिए उसे लगा कि वह किसी ऐसे अस्पताल में खड़ा है, जहाँ दवाई की जगह 'कल आने की पर्ची' मिलती है।
अगली सुबह, रामकांत एक नई पेंशन फ़ाइल और 'सरकारी नीली' स्याही वाला अंगूठा लेकर लौटा। लेकिन इस बार बाबू की कुर्सी खाली थी। एक दूसरे बाबू ने उसे ऐसे देखा, जैसे वह कोई भूला हुआ इतिहास हो। "वो बाबू? वो तो कल से छुट्टी पर हैं। अब फ़ाइल यहाँ जमा होगी। पर सुनो," उसने एक रहस्यमयी मुस्कान के साथ कहा, "इसमें एक नई कमी है। 'आयु प्रमाण पत्र' में 'माँ का नाम' अंग्रेजी में लिखा है, जबकि आवेदन हिंदी में है। यह तो नियम के विरुद्ध है।"
रामकांत ने कहा, "बाबू जी, नाम तो अंग्रेजी और हिंदी में एक ही होता है।" बाबू ने एक लंबी साँस ली, जैसे वह किसी मूर्ख को समझा रहा हो। "बेटा, यहाँ भाषा का मुद्दा नहीं है, नियम का मुद्दा है। हमारे 'सरकारी व्याकरण' में एक ही नाम को अलग-अलग जगह अलग-अलग माना जाता है।" रामकांत के सिर में दर्द होने लगा। 'अरे, यह क्या है, आदमी नहीं, नियमों का पुतला है,' उसने सोचा। उसे याद आया कि कैसे गाँव में एक पेड़ के नीचे बैठ कर उसने अपनी माँ का नाम दोनों भाषाओं में लिखा था। 'उस वक़्त लगा था कि दुनिया बहुत सरल है,' उसने मन ही मन सोचा। बाबू ने फ़ाइल वापस कर दी और कहा, "इसे 'फ़ॉर्म 25 बी' के साथ दुबारा जमा करो। पर सुनो, फ़ॉर्म की एक प्रति 'मुख्य सचिव कार्यालय' में भी जमा करनी होगी, ताकि उनकी 'आशीर्वाद' प्राप्त हो सके।" रामकांत ने सोचा कि यह दफ्तर नहीं, बल्कि एक धार्मिक स्थल है, जहाँ हर अधिकारी एक नया देवता बन बैठा है। 'यहाँ दर्शन के लिए पर्ची नहीं, बल्कि जिंदगी का आधा हिस्सा गिरवी रखना पड़ता है', उसे लगा। वह वहाँ से निकला, पैरों में जान नहीं थी, पर उम्मीद का बोझ अब भी बाकी था।
घर आकर रामकांत ने जब अपनी माँ को देखा, तो उसकी आँखों में नमी आ गई। माँ का शरीर सूखा हुआ था, और उनकी आँखें बेसब्री से रामकांत को देख रही थीं। "बेटा, पेंशन की फ़ाइल का क्या हुआ?" माँ ने धीमी आवाज में पूछा। रामकांत ने अपने आँसू छुपाते हुए कहा, "माँ, बस हो ही गया है। थोड़ा और इंतजार।" माँ ने सिर हिलाया, उनकी आँखें बंद हो गईं, मानो उन्हें पता था कि 'थोड़ा इंतजार' का मतलब 'जिंदगी भर का इंतजार' होता है। रामकांत ने माँ के हाथों को छुआ, जो अब सिर्फ हड्डियों का ढाँचा थे। उसे लगा कि उसकी माँ सिर्फ साँस नहीं ले रही हैं, बल्कि सरकारी फ़ाइल की तरह धीरे-धीरे दम तोड़ रही हैं। 'यहाँ, इंसान मरता नहीं, बल्कि फ़ाइल के अंदर दफ़न हो जाता है,' उसे लगा। रात भर वह जागता रहा, फ़ाइल को देखता रहा, जिसमें उसकी माँ की एक तस्वीर लगी थी। उस तस्वीर में माँ मुस्कुरा रही थी, एक ऐसी मुस्कान, जो अब सिर्फ अतीत की बात थी। उसे याद आया कि उसकी माँ ने उसे कहा था, "बेटा, ईमानदारी से काम करना। सच हमेशा जीतता है।" रामकांत ने हँसते हुए सोचा, 'माँ, यहाँ सच और झूठ की लड़ाई नहीं है। यहाँ सिर्फ फ़ाइल की लड़ाई है, और फ़ाइल हमेशा जीतती है।' उसे लगा कि वह अपनी माँ से नहीं, बल्कि एक अदृश्य दुश्मन से लड़ रहा था, जिसका नाम 'व्यवस्था' था।
अगले दिन, रामकांत ने एक और फ़ाइल तैयार की, जिसमें एक नया फ़ॉर्म, 25 बी, भरा गया था। इस फ़ॉर्म में एक नया कॉलम था: 'आवेदनकर्ता का 'अधूरी जिंदगी' का प्रमाण पत्र'। उसे लगा कि यह कोई फ़ॉर्म नहीं, बल्कि उसकी आत्मा का बायोडाटा था। बाबूराम ने मुस्कुराते हुए फ़ाइल ली और कहा, "देखो, अब ठीक है। पर एक और बात, फ़ाइल को अंतिम अनुमोदन के लिए 'सेक्शन अधिकारी' के पास जाना होगा। वो बड़े आदमी हैं, हमेशा व्यस्त रहते हैं। तुम्हें उनसे व्यक्तिगत रूप से मिलना होगा।" रामकांत को लगा कि वह पेंशन लेने नहीं, बल्कि किसी देवता का आशीर्वाद लेने जा रहा था। सेक्शन अधिकारी का कमरा ऐसा था, जैसे कोई रहस्यमयी गुफा हो, जिसमें प्रवेश करने के लिए 'अनुरोध की अर्जी' और 'पचास रुपये का प्रसाद' जरूरी था। रामकांत ने हिम्मत करके दरवाजा खटखटाया। अंदर से एक भारी आवाज आई, "कौन है?" रामकांत ने कहा, "साहेब, मैं रामकांत, माँ की पेंशन फ़ाइल..." सेक्शन अधिकारी ने उसे एक क्षण के लिए देखा और फिर अपनी फाइल में ऐसे खो गए, जैसे उसे देखा ही न हो। रामकांत को लगा कि वह वहाँ मौजूद ही नहीं है, बल्कि एक अदृश्य भूत की तरह भटक रहा है। सेक्शन अधिकारी ने बिना सिर उठाए कहा, "फ़ाइल जमा कर दो और कल आना। और हाँ, यहाँ बात करने के लिए 'साहब' नहीं, 'मालिक' कहा करो।" रामकांत को लगा कि वह पेंशन नहीं, बल्कि अपने स्वाभिमान की भीख माँग रहा था।
अगले दिन, रामकांत 'मालिक' के दफ्तर में पहुंचा, जहाँ उसे बताया गया कि फ़ाइल 'मुख्य सचिव' के पास चली गई है। मुख्य सचिव, जो एक पौराणिक जीव की तरह थे, सिर्फ कुछ खास दिनों में ही प्रकट होते थे। रामकांत ने एक चपरासी को पकड़कर पूछा, "भाई, मुख्य सचिव से कैसे मिला जा सकता है?" चपरासी ने उसकी तरफ ऐसे देखा, जैसे उसने कोई बेतुका सवाल पूछ लिया हो। "साहेब, वो तो 'गुप्त' व्यक्ति हैं। उनसे मिलने के लिए 'विशेष अनुमति पत्र' चाहिए।" रामकांत ने पूछा, "वो कहाँ मिलेगा?" चपरासी ने दीवार पर लगी एक तस्वीर की ओर इशारा किया, जिसमें एक अधिकारी मुस्कुरा रहा था। "वो यहाँ मिलेंगे। पर सुनो, उनकी 'मुस्कुराहट' के पीछे की 'फीस' बहुत महंगी है।" रामकांत ने सोचा कि यह कोई दफ्तर नहीं, बल्कि एक म्यूज़ियम है, जहाँ हर चीज़ के लिए टिकट खरीदना पड़ता है। 'यहाँ, गरीब को गरीब बने रहने के लिए भी रिश्वत देनी पड़ती है,' उसे लगा। चपरासी ने उसे एक कागज का टुकड़ा दिया, जिस पर एक पता लिखा था, "गुप्त मीटिंग स्थल"। रामकांत को लगा कि वह किसी जासूसी फिल्म का हिस्सा बन गया है, जहाँ हर कदम पर एक नया रहस्य होता है। उसे पता चला कि वह मीटिंग स्थल कोई दफ्तर नहीं, बल्कि एक होटल का कमरा था। 'अरे, ये तो 'ऑफिस' की जगह 'ऑफ़िस-ऑफ़-टेंस' (ऑफ़िस-ऑफ़-टेम्पटेन्स) है,' उसे लगा।
रामकांत ने अपनी जेब से आखिरी 500 रुपये निकाले और चुपचाप होटल के कमरे में गया। मुख्य सचिव एक सोफे पर बैठे थे, उनके सामने एक और आदमी बैठा था जो उनकी चापलूसी कर रहा था। रामकांत ने अपनी फ़ाइल उनके सामने रखी और पैसे टेबल पर रख दिए। मुख्य सचिव ने एक नज़र फ़ाइल पर डाली और पैसे पर, और फिर दोनों को ऐसे अनदेखा कर दिया जैसे वो वहाँ थे ही नहीं। उन्होंने अपने सामने बैठे आदमी से कहा, "देखो, आज 'माहौल' बहुत ख़राब है। लोगों को लगता है कि हम कुछ नहीं कर रहे हैं। हमें उन्हें एक 'संदेश' देना होगा।" रामकांत को लगा कि वह अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल कर रहा था।
मुख्य सचिव ने कहा, "इनकी फ़ाइल को 'जल्द से जल्द' खत्म करो, और हाँ, इसे एक 'विशेषाधिकार' के रूप में दिखाना।" उन्होंने रामकांत को देखा और एक कठोर मुस्कान के साथ कहा, "चिंता मत करो, तुम्हारा काम हो जाएगा। पर अब जाओ, यहाँ से।" रामकांत को लगा कि वह अपनी माँ की पेंशन के लिए भीख नहीं, बल्कि अपने स्वाभिमान का आखिरी टुकड़ा बेच रहा था। वह चुपचाप वहाँ से निकला, अपनी जेब खाली थी, और दिल में एक गहरा छेद था। उसे लगा कि वह सिर्फ एक पेंशन फ़ाइल नहीं, बल्कि अपनी आत्मा का एक हिस्सा बेच आया है। 'यहाँ, रिश्वत तो बस बहाना है, असली मज़ा तो स्वाभिमान का सौदा करने में आता है,' उसे लगा।
रात हो चुकी थी, रामकांत थककर घर लौटा। दरवाजे पर ताला लगा था, जो अक्सर नहीं होता था। उसने खिड़की से झाँका, तो देखा कि पड़ोसी, श्यामू, उसके घर के अंदर था। श्यामू की आँखों में नमी थी। रामकांत ने दरवाजा खोला और श्यामू को ऐसे देखा जैसे वह कोई बुरी खबर देने वाला हो। श्यामू ने धीरे से कहा, "भाई, माँ... माँ नहीं रहीं।" रामकांत के हाथ से फ़ाइल छूटकर नीचे गिर गई। उसकी आँखों में एक अजीब सी शून्यता छा गई। उसे लगा कि वह यहाँ नहीं, बल्कि किसी और दुनिया में था, जहाँ उसकी माँ एक फ़ाइल का इंतज़ार कर रही थी। उसने फ़ाइल को उठाया और उसे अपने सीने से लगा लिया। वह रोया नहीं, सिर्फ एक लंबी, गहरी आह उसके दिल से निकली, एक ऐसी आह, जिसने उसके पूरे अस्तित्व को हिला दिया। यह आह उसके दुःख की नहीं, बल्कि उसकी हार की थी। उसे लगा कि उसकी माँ ने जानबूझकर यह किया था, ताकि उसे पेंशन की फ़ाइल का बोझ न उठाना पड़े।
अगली सुबह, जब सूरज निकला, तो रामकांत ने फ़ाइल को ऐसे देखा, जैसे वह कोई मृत शरीर हो। फ़ाइल, जिसमें उसकी माँ का नाम, पता, और सारी जानकारी थी, अब एक बेजान कागज़ का टुकड़ा थी। उसे लगा कि उसकी माँ ने सरकारी व्यवस्था से आखिरी जंग जीती थी। उन्होंने अपनी जिंदगी को फ़ाइल से पहले खत्म करके दिखा दिया था कि इंसान की मौत सरकारी नियमों से ज़्यादा तेज होती है। रामकांत ने फ़ाइल को उठाया और उसे अपने घर के कोने में रख दिया, जहाँ वह सालों तक पड़ी रही, एक ऐसे इतिहास की तरह जिसे कोई याद नहीं करना चाहता था। वह हर दिन उसे देखता और सोचता, 'मेरी माँ ने पेंशन नहीं, बल्कि अपने जीवन का अंतिम संस्कार खुद कर लिया था। उन्होंने दिखा दिया कि इस देश में मरने के लिए भी 'फॉर्म' नहीं, बल्कि 'हिम्मत' चाहिए।'
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,
(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)