By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ | Jul 23, 2025
रामपुरवा, एक नाम जो कभी गाँव की चौपालों पर ईमानदारी और सादगी का पर्याय हुआ करता था। जहाँ सूरज की पहली किरण के साथ ही खेतों में हल चलते थे और शाम को चौपाल पर बैठकर गाँव के बड़े-बुजुर्ग आपसी मसले सुलझाते थे। वहाँ के पहले पंचायत चुनाव का किस्सा आज भी बबुआ काका की आँखों में चमक ले आता है। वे बताते हैं, "अरे बेटा, वो दिन थे! उम्मीदवार घर-घर जाकर हाथ जोड़ते थे, अपनी 'सेवा' का वादा करते थे, और उनके पास देने को सिर्फ़ अपनी 'पसीने की कमाई' और 'ईमानदारी' होती थी।" तब 'जनता' मालिक थी और 'नेता' सेवक। सदन? वो तो मानो एक 'मंदिर' था, जहाँ हर बात पर 'विचार' होता था, 'विवाद' नहीं। लोग चरित्र देखते थे, न कि चरित्र प्रमाण पत्र में लिखी 'संपत्ति' का ब्यौरा। तब वोट 'आशीर्वाद' था, अब 'ऑफर' हो गया। वो कहते थे, "हम आपके लिए जान हाज़िर कर देंगे", और सच में करते भी थे। आज के नेता कहते हैं, "हम आपकी जान हाज़िर कर देंगे", और सच में कर भी देते हैं। तब नेता 'सेवक' थे, अब 'सेविंग अकाउंट' हैं। उस दौर में, जब कोई चुनाव हारता था, तो गाँव वाले उसे दिलासा देते थे, "कोई बात नहीं, अगली बार फिर सेवा करना।" आज कोई हारता है, तो लोग कहते हैं, "कोई बात नहीं, अगली बार और 'खर्चा' करना।" वो दौर था, जब राजनीति 'धर्म' थी, और नेता 'धर्मात्मा'। अब राजनीति 'धंधा' है, और नेता 'धंधेबाज'।
लेकिन, कहते हैं न, 'पतन' एक दिन में नहीं होता, वो धीरे-धीरे, चुपचाप आता है, जैसे दीमक लकड़ी को खा जाती है। रामपुरवा में भी बदलाव की पहली आहट तब सुनाई दी, जब 'चाय-पानी' के साथ 'मिठाई का डिब्बा' आने लगा। पहले यह 'प्रेम' का प्रतीक था, फिर 'प्रभाव' का और अंततः 'प्रलोभन' का। वो नेता, जो कभी गाँव की कच्ची पगडंडियों पर नंगे पाँव चलते थे, अब 'एसयूवी' में बैठकर धूल उड़ाने लगे। उनकी 'साइकिल' की जगह 'स्कॉर्पियो' ने ले ली और 'सादे कुर्ते' की जगह 'रंगीन शॉल' ने। 'जन-सेवा' कब 'धन-सेवा' में बदल गई, किसी को पता ही नहीं चला। पहले 'विकास' का मतलब गाँव की सड़क, स्कूल या अस्पताल होता था, अब इसका मतलब नेताजी की 'कोठी' और 'बैंक बैलेंस' हो गया। जब पहला नेता चुनाव जीतने के बाद 'मिठाई' की जगह 'दारू' की बोतलें बंटवाने लगा, तो बबुआ काका ने सिर पकड़ लिया था। "ये क्या हो रहा है?" उन्होंने फुसफुसाया था, "ये तो 'लोकतंत्र' नहीं, 'लोकतन्त्र' है, जहाँ जनता को 'तंत्र' में उलझाकर 'लोका' जाता है।" पहले वोट 'आशीर्वाद' था, अब 'आफर' हो गया। वो दौर था जब नेता 'त्याग' की बात करते थे, अब 'त्यागपत्र' की धमकी देते हैं, अगर उनकी 'मांगें' पूरी न हों।
फिर आया 'लंगड़ा लखन' का दौर। लखन, जो गाँव में अपनी 'दबंगई' के लिए मशहूर था, जिसने कभी स्कूल का मुँह नहीं देखा था, अब 'पंचायत' का 'मुखिया' बनने चला था। उसके पास भाषण नहीं थे, सिर्फ़ 'लाठी' और 'लाल आँखें' थीं। 'समझाना' और 'मनाना' पुराने ज़माने की बातें हो गईं, अब तो सिर्फ़ 'धमकाना' और 'दबाना' चलता था। वोट 'अपील' से नहीं, 'आतंक' से मिलते थे। बैलट बॉक्स की जगह 'बुलेट बॉक्स' ने ले ली थी। गाँव में कोई भी 'विरोध' करने की हिम्मत नहीं करता था, क्योंकि लखन का 'विरोध' मतलब 'विरोधियों' का 'अस्तित्व' ही मिटा देना। बबुआ काका ने देखा कि कैसे उनके गाँव के सीधे-सादे लोग, जो कभी 'ईश्वर' से डरते थे, अब 'लखन' से डरने लगे थे। पहले 'मतदान' होता था, अब 'मुक्का-दान' होता था। लखन कहता था, "वोट दोगे तो 'विकास' होगा, नहीं तो 'विनाश'।" और लोग जानते थे कि उसका 'विनाश' कितना 'सटीक' होता है। अब 'जनता' नहीं, 'जन-समूह' था, जिसे 'भेड़-बकरियों' की तरह हाँका जाता था।
और फिर आया 'तबादलों का मौसम', जो रामपुरवा में 'मानसून' से भी ज़्यादा 'फ़ायदेमंद' साबित हुआ। पटवारी, थानेदार, यहाँ तक कि स्कूल का मास्टर भी, सब 'बिकाऊ' माल बन गए। हर 'पोस्टिंग' का एक 'रेट कार्ड' था, जो गाँव की चाय की दुकान पर खुलेआम चर्चा का विषय था। "अरे भैया, फलाने पटवारी की पोस्टिंग चाहिए? दस लाख लगेंगे!" "और थानेदार की? बीस लाख!" ये सब बातें ऐसे होती थीं, जैसे सब्ज़ी का भाव पूछ रहे हों। आम आदमी, जो अपने छोटे-मोटे काम के लिए इन अधिकारियों के चक्कर लगाता था, वो अब 'बिचौलियों' के चक्कर लगाने लगा। 'सेवा' की जगह 'सेटिंग' ने ले ली थी। बबुआ काका ने एक दिन सुना कि एक गरीब किसान, जिसने अपनी ज़मीन के कागज़ों के लिए महीनों चक्कर लगाए थे, अंत में उसे 'रिश्वत' देनी पड़ी, जो उसने अपनी बेटी की शादी के लिए बचाई थी। किसान ने रोते हुए कहा, "बाबूजी, अब 'विकास' का मतलब 'जेब' का विकास है, और 'योजना' का मतलब 'लूटने' की योजना।" ये वो राजनीति थी, जहाँ 'ईमान' नहीं, 'इनाम' चलता था।
गाँव की ग्राम सभा की बैठकें, जो कभी गाँव के भविष्य पर 'चर्चा' का केंद्र होती थीं, अब 'सर्कस' बन चुकी थीं। माइक पर 'मुद्दों' की जगह 'गालियाँ' गूँजती थीं, और 'बहस' की जगह 'हाथापाई' की नौबत आ जाती थी। सरपंच, जो कभी 'गाँव का मुखिया' होता था, अब 'अखाड़े का रेफरी' बन गया था, जो बेबस होकर 'सीटी' बजाता रहता था। एक बार तो 'पानी की समस्या' पर बहस चल रही थी, और एक नेता ने दूसरे पर 'पानी की बोतल' ही फेंक दी। सदन में अब 'बहस' नहीं, 'भैंस' बराबर की लड़ाई होती थी। बबुआ काका कहते थे, "पहले 'नेता' सोचते थे, अब सिर्फ़ 'चीखते' हैं।" गाँव के लोग, जो कभी उम्मीद से ग्राम सभा में आते थे, अब सिर्फ़ 'मनोरंजन' के लिए आते थे, यह देखने के लिए कि आज कौन किसे 'धोएगा'। 'देश सेवा' का नारा 'देश को सेवा' में बदल गया था, जहाँ नेता खुद की सेवा में लगे थे।
गाँव की चाय की दुकान, जो कभी गपशप का अड्डा थी, अब 'असली संसद' बन चुकी थी। लोग वहीं बैठकर 'सरकार' को कोसते थे, 'नेताओं' को गालियाँ देते थे, और अपनी 'किस्मत' पर रोते थे। "अरे भैया, ये नेता तो ऐसे हैं, जैसे 'कुत्ते की पूँछ', कभी सीधी नहीं हो सकती!" एक ने कहा। दूसरे ने जोड़ा, "इन्हें 'वोट' नहीं, 'जूते' पड़ने चाहिए!" लेकिन ये सब बातें सिर्फ़ चाय की दुकान तक ही सीमित थीं। जब चुनाव आता था, तो वही लोग 'दारू' की बोतल और 'पंद्रह सौ' रुपये में अपना 'भविष्य' बेच देते थे। मीडिया भी इन 'तमाशों' को 'ब्रेकिंग न्यूज़' बनाकर दिखाता था, लेकिन कोई 'समाधान' नहीं बताता था। जनता अब 'वोट' नहीं, 'शोक' मनाती थी। वे जानते थे कि 'बदलाव' नहीं आएगा, क्योंकि 'बदलाव' लाने वाले ही 'बदल' गए थे। ये वो दौर था, जब 'लोकतंत्र' एक 'मजाक' बन गया था, और जनता 'मजाक का पात्र'।
एक दिन, बूढ़ी दादी रामप्यारी, जिसकी कमर झुकी हुई थी और आँखों में बरसों की 'पीड़ा' बसी थी, अपनी पेंशन और इलाज के लिए ग्राम सभा में आई। उसने अपनी फटी हुई साड़ी के पल्लू से आँखें पोंछते हुए कहा, "सरकार, मेरा कोई नहीं है। थोड़ी मदद मिल जाती तो..." लेकिन उसकी आवाज़ 'हंगामे' में दब गई। एक नेता ने उसे 'नाटकबाज' कहा, दूसरे ने 'पुराने ज़माने की बात' कहकर टाल दिया। उसकी 'ज़रूरत' को 'राजनीतिक हथियार' बना लिया गया। "अरे, इस बुढ़िया को पेंशन दे दो, ताकि अगले चुनाव में वोट मिलें!" एक नेता ने चिल्लाकर कहा। दादी रामप्यारी बस देखती रही, उसकी आँखों में 'आशा' नहीं, 'अश्रु' थे। वो वहीं ज़मीन पर बैठ गई, और उसकी आँखों से बहते आँसू 'लोकतंत्र' के 'गिरते स्तर' की गवाही दे रहे थे। नेताओं की जेब में 'नोट' थे, 'नीति' नहीं। उस दिन, बबुआ काका ने अपनी आँखों में पहली बार 'आँसू' देखे। वो 'आँसू' दादी रामप्यारी के नहीं थे, वो 'आँसू' उस 'रामपुरवा' के थे, जो अब 'रावणपुरवा' बन चुका था।
आज रामपुरवा में 'शांति' है, लेकिन वो 'श्मशान की शांति' है। अब कोई 'बहस' नहीं होती, क्योंकि 'बहस' करने वाला कोई बचा ही नहीं। 'त्याग' की भावना तो कब की 'त्याग' दी गई थी, अब सिर्फ़ 'प्राप्ति' का 'मिशन' है। बर्नार्ड शॉ ने कहा था, "पॉलिटिक्स इज द लास्ट रेफ्यूज ऑफ ए स्काउंड्रल।" रामपुरवा में तो 'बदमाश' ने 'पूरी हवेली' पर कब्ज़ा कर लिया था। वो 'स्वतंत्रता संग्राम' के सपने, वो 'गांधीजी' के आदर्श, सब 'धूल' में मिल गए थे। अब 'देश सेवा' एक 'करियर' बन चुकी है, जिसमें 'कमाई' ही 'मुख्य उद्देश्य' है। जब डॉ. शंकरदयाल शर्मा जैसे लोग संसद में रो पड़े थे, तब रामपुरवा में बबुआ काका जैसे लोग अपने घर में चुपचाप रोते थे। उनकी आँखों से बहते आँसू 'लोकतंत्र' के 'जनाज़े' पर टपक रहे थे। पहले 'इंकलाब' था, अब बस 'इंतकाल' है। और इस 'इंतकाल' पर, अब बस रोना ही बाकी है।
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,
(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)