मेडिकल-इंश्योरेंस और क्लेम: कार्ड चमकता, क्लेम भटकता (व्यंग्य)

By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ | Sep 30, 2025

कार्ड जेब में ऐसे चमकता है जैसे गरीब के सपनों पर स्प्रे-पेंट चढ़ गया हो—पॉलिश इतनी कि सच्चाई का धब्बा भी अपना चेहरा देखे और शरमा जाए। अस्पताल के गेट पर सुरक्षा-गार्ड आँख से कार्ड स्कैन करता है, और रिसेप्शन पर बैठी काया मुस्कुराहट के सौदे पर पूछती है—“क्लेम कैशलेस है न?” आदमी लगता है रोगी, और रोगी लगता है फाइल; बीमारी आयुर्वेदिक नहीं, बीमा-विधिक हो गई है—लक्षण पसीने के, निदान कागज का। कार्ड की चुंधियाती चमक में डॉक्टर का स्टेथोस्कोप भी बीमा-नंबर ढूँढने लगता है; नाड़ी में ‘पल्स’ नहीं, ‘पॉलिसी’ की धड़कन गूँजती है। दीवार पर पोस्टर चिल्लाता है—“आप सुरक्षित हैं!” और बिलिंग-काउंटर फुसफुसाता है—“बस पैसे को छोड़ दीजिए।” कैशलेस का मतलब यहाँ कैश-मोर है—तिजोरी की चाबी आपके पर्स में और पासवर्ड बीमा-कंपनी की नींद में। बीमारी का दर्द टेबल-टेनिस की गेंद है—मरीज से नर्स, नर्स से बिलिंग, बिलिंग से टीपीए, टीपीए से कॉल-सेंटर; हर रैकेट पर लिखा है—“कृपया प्रतीक्षा करें।” इंतज़ार इतना लंबा कि बुखार भी शरमा कर कम हो जाए, और खर्च इतना ऊँचा कि हिमालय भी अपनी ऊँचाई पर पुनर्विचार करने लगे।


रात के दो बजे इमरजेंसी में स्ट्रेचर चीखता है, और कांच के पार बैठा देवता-सा टीपीए-डेस्क अपनी दाढ़ी में फाइलें छाँटता है—मानो स्वर्ग का लेखा-जोखा रिसीविंग-इनवर्ड में अटक गया हो। रिसेप्शन की मुस्कान कहती है—“सर, कैशलेस है, पर कुछ रिफंडेबल डिपॉजिट दे दीजिए, फॉर्मैलिटी है।” फॉर्मैलिटी यहाँ दर्द का दूसरा नाम है; सुई लगने से पहले जेब में चुभती है। कार्ड मशीन पर रगड़ा जाता है—ऐसे जैसे बीमार का माथा जड़ी-बूटी से; स्वाइप की आवाज आती है, मंजूरी की नहीं। मंजूरी का ई-मेल उस देवता के इनबॉक्स में पड़ा है, देवता छुट्टी पर है—ईश्वर की छुट्टी, आदमी की बुखार-ड्यूटी। नर्स कहती है—“सर, क्लीयरेंस आएगी तो कमरा मिलेगा, तब तक ऑक्सीजन इधर, उम्मीद उधर।” मरीज की आँखों में पानी उतरता है, और सिस्टम की आँखों में पावर कट। बेटा फोन पर एजेंट को पकड़ता है—एजेंट आधी रात को कहता है—“सर, मैं आपके साथ हूँ,” और फोन साथ छोड़ देता है। बेड की चादर से ज्यादा सफेद झूठ, और ट्यूब की रोशनी से ज्यादा पीली आशा—इमरजेंसी में सब कुछ स्टेरलाइज्ड है, सिवाय इंसाफ के।

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पॉलिसी बेचते एजेंट की भाषा में कविता रहती है—“सर, कैशलेस, ऑल-इन, नो-टेंशन”—और पॉलिसी दस्तावेज की भाषा में धम्म-धम्म उपनिषद—फाइन-प्रिंट ऐसा कि चश्मे का नंबर भी शर्मिंदा। “प्रि-एग्जिस्टिंग” धर्म-ग्रंथ का मूल पाप है; तुमने रक्तचाप को ईमानदारी से लिख दिया, सिस्टम ने ईमानदारी से अस्वीकार कर दिया। बिक्री के वक्त एजेंट आपका हाथ पकड़कर स्वर्ग दिखाता है—क्लेम के वक्त एजेंट का नेटवर्क ‘आउट ऑफ कवरेज’ हो जाता है। प्रस्ताव-फॉर्म में सच भरने की सजा यह कि झूठ पर हस्ताक्षर पहले ही कराए जा चुके होते हैं—“सर, यह रुटीन है, बस टिक कर दीजिए”—रुटीन में हकीकत फँस जाती है। इंतज़ार-काल नामक पाप-जप है—तीन साल बाद रोग भी बूढ़ा लगे तो कवर होंगे, तब तक बीमारी से पहले बीमा का उपवास। दवा का स्ट्रिप छोटा, दावे की स्ट्रिप लंबी—एक में खुराकें, दूसरे में शर्तें; एक मियाद खत्म होने पर फेंकी जाती है, दूसरी मियाद कभी खत्म ही नहीं होती।


अंदर वार्ड में डॉक्टर देह देखता है और बाहर बिलिंग-रूम जेब; इलाज का प्लान ‘क्लिनिकल’ होता है, बिल का प्लान ‘क्लॉज़-निकल’। “रूम-रेंट लिमिट” वह अदृश्य छत है जिसके ऊपर आपकी साँस महँगी पड़ जाती है—आपने हवा अच्छी ले ली, तो अनुपातिक कटौती से फेफड़े तक कट जाते हैं। “कंस्यूमेबल्स नॉट पेयेबल”—दस्ताने आपकी जेब से, सिरिंज आपकी जेब से, पट्टी आपकी जेब से; बीमा कंपनी समझती है दर्द पीने की चीज है, बैंडेज निजी शौक। “अॅडमिनिस्ट्रेटिव चार्जेस” वह कर है जो बीमारी पर लगता है, क्योंकि आप गरीब हैं तो प्रशासन महँगा है। “डॉक्टर विज़िट” दिन में चार—जैसे आपका रोग किसी संसद का सत्र हो; प्रश्न-काल लंबा, समाधान स्थगित। डिस्चार्ज-समरी कविता की तरह लिखी जाती है—शब्द बड़े, मर्ज छोटे; अंतिम पंक्ति—“अडवाइस्ड फॉलो-अप”—मानो जीवन कोई एप है, अपडेट चाहिए। बिल की आखिरी लाइन पर बैठा टैक्स अपनी मूँछों को ऐंठता है और कहता है—“मुझे भी मेरा अधिकार चाहिए।” आपकी झुकी हुई गर्दन से भी ज्यादा झुकी जेब, और जेब से भी ज्यादा झुके सपने—जो बिस्तर की खटखट में धूल खाते हैं।


रिंबर्समेंट का रथ बाद में निकलता है; घोड़े कागज के, सारथी फोटोकॉपी वाला। “मूल, प्रति, प्रति की मूल-प्रमाणित प्रति, और उस पर रबड़-स्टाम्प”—जैसे बीमारी नहीं, अदालत का मुकदमा हो। टीपीए का पोर्टल खुलता है, फिर बंद होता है, फिर अपडेट मांगता है; आपकी फाइल लॉगिन चाहती है, आपकी उँगली ओटीपी, और आपके बुढ़ापे से यह सब तुक नहीं बैठता। “इंटिमेशन 24 घंटे में”—पर 24 घंटे में तो आपने होश की रोशनी में माँ की सफेदी पहचानी थी, किस नियम में लिखा है कि रोना ऑनलाइन करना है? क्लेम-फॉर्म के कॉलम इस तरह पूछताछ करते हैं जैसे आप अपराधी हों—“दर्द कब पैदा हुआ, किसको पता था, क्यों पता नहीं था?” चक्कर ऐसा कि अंत में आप बीमारी का नहीं, अपना पता भूल जाएँ। महीनों बाद जवाब आता है—“कृपया और दस्तावेज़ दें”—और दस्तावेज़ की सूची में वह कागज भी जो अस्पताल के पास नहीं, ईश्वर के पास है—“प्रोसीजर से पहले की नियत।” आपका डाकिया आपको पहचान लेता है; हर हफ्ते आशा की पंजी है, हर पखवाड़े निराशा की रजिस्ट्री।


इस बाज़ार में अस्पताल मॉल है, रोगी ग्राहक, और टीपीए कस्टम्स; आपकी सांसें स्कैनर से गुजरती हैं और हर ट्वीटमेंट पर ड्यूटी लगती है। हेल्थ—एक सब्सक्रिप्शन-आधारित सेवा; बेसिक प्लान में तकलीफ, प्रीमियम में तकलीफ के साथ पानी। सर्जन की मुस्कान इन्फ्लुएंसर का रील; “पहले-पश्चात” की तस्वीरें; इलाज ट्रेंडिंग है, पर इंसान शैडो-बैन। कॉरपोरेट वार्ड में ड्रिप बोतल भी मैनेजमेंट सेमिनार लगती है—हर बूँद स्प्रेडशीट, हर नाड़ी क्यूआर। “को-पे” वह प्रवेश-शुल्क है जो आपकी गरीबी से वसूला जाता है, ताकि कंपनी आपकी बीमारी में भागीदारी का दावा कर सके—आधा दर्द आपका, आधा उनका, पर चीख पूरी आपकी। “एग्ज़ीक्लूज़न” सूची का भूगोल ऐसा कि आपका मर्ज हर बार सीमा-पार पापी निकले—या तो पूर्व-विद्यमान, या नीति-विरुद्ध, या मनुष्य-अनुकूल नहीं। डॉक्टर का प्रिस्क्रिप्शन देह के लिए, इंश्योरर का डिस्क्रिप्शन जेब के लिए—और बीच में आप, जो हर दस्तखत के साथ अपने भीतर के भरोसे को नाखून से खुरचते जाते हैं।


एक किस्सा है—जल-से भरा, आँख-से छलका। बुज़ुर्ग पिता, जिनकी मूँछ में अब सिर्फ यादें हैं, सीने में जकड़न लिए गिर पड़े। बेटा दौड़ा—ताबीज जैसा कार्ड जेब में, उम्मीद हाथ में। ईसीजी के दाँतेदार पहाड़ पर डॉक्टर ने हथेली रखी—“एडमिट करो।” टीपीए बोला—“पिछले वर्ष हाइपरटेंशन का इतिहास?” बेटा बोला—“हाँ, दवा लेते हैं।” स्प्रेडशीट ने आँखें उठाईं—“तब तो यह पूर्व-विद्यमान का पाप है, क्लेम का मोक्ष नहीं मिलेगा।” प्रस्ताव-फॉर्म में एजेंट ने कभी लिखा था—“नो”—क्योंकि सच कटौती कर देता है और झूठ कमिशन जोड़ देता है। अब झूठ की हसीं काया, सच की थकी छाया। माँ ने कंगन उतारे—जिनसे वह सखी-समारोह में नहीं, सदा के गृहस्थी-युद्ध में जीतती थीं। बिलिंग-काउंटर ने उन्हें तराजू पर रखा—सोना हल्का निकला, बिल भारी। डिस्चार्ज-समरी में लिखा—“कंडीशन इम्प्रूव्ड”—घर की चौखट पर लिखा—“कंडीशन इम्पोविरिश्ड।” पिता ने बेटे के सिर पर हाथ रखा—“कोई बात नहीं”—और वह वाक्य इतने सालों की पॉलिसियों से ज़्यादा भरोसेमंद निकला। बीमा ने क्लेम अस्वीकार किया, जीवन ने प्रेम स्वीकार किया—पर किचन की आँच ने पूछा—“अगला महीना?”


कहते हैं, सरकारें ‘सार्वभौम’ की परिभाषा पर काम कर रही हैं—बजट में स्वस्थ रहने के कलेवे बाँटती हैं, नियामक पत्रिका में शब्दों की पट्टियाँ चिपकाता है। नैतिकता का बोर्ड दीवार पर टँगा है—“क्लेम का निपटारा 30 दिन में”—नीचे महीनों की काई लगी है। ऑम्बड्समैन की चौखट पर आपकी फाइल एक और ग्रहण लगाती है—वह धूप भी सरकारी है, वह छाँव भी। असहाय आदमी संविधान को नहीं, केमिस्ट को याद करता है—क्योंकि गोलियाँ तत्पर हैं, नियम नहीं। गाँव का स्वास्थ्य-केन्द्र तस्वीर में खुला, जमीन पर ताला—कोलाज में राष्ट्र-उपलब्धि, बिस्तर पर टँगा ‘आउट ऑफ नेटवर्क’। इंश्योरेंस का गद्दा दोहरा है—एक तरफ ‘समावेशन’ की खोल, दूसरी तरफ ‘क्लॉज़’ की कीलें—आदमी जिस तरफ भी सोए, पीठ में चुभन तय। हम सबने मिलकर बीमारी का निजीकरण किया और दया का आउटसोर्स—अब दावा करते हैं कि समाज उन्नत है, क्योंकि क्रेडिट-लिमिट बढ़ गई।


बीमा-राज्य के नागरिक! हमें कार्ड को ताबीज की तरह पहनना है, पर प्रार्थना को पत्थर नहीं बनाना। क्लेम को दौड़ता खरगोश नहीं, चलता भरोसा बनाना होगा—पहला इलाज मनुष्य का, फिर पॉलिसी का। अस्पताल को इमरत नहीं, आसरा बनना होगा—जहाँ टीपीए-डेस्क खिड़की हो, दीवार नहीं; जहाँ ‘कंस्यूमेबल्स’ में ग्लव्स नहीं, संवेदना हो; जहाँ कैशलेस का अर्थ—काउंटर पर हाथ ताने बिना इलाज—और ‘रूम-रेंट’ का अर्थ—इंसान की इज़्ज़त का किराया शून्य। बीमा-कंपनी को शर्तें कम और शर्म ज्यादा रखनी होंगी—क्योंकि हर अस्वीकार-पत्र किसी घर की रसोई में आँच कम कर देता है। एजेंटों को बिक्री की ट्रेनिंग के साथ सच की प्रैक्टिस देनी होगी—ताकि प्रस्ताव-फॉर्म में ‘हाँ’ लिखते हाथ काँपे नहीं। और हम—जो हर बार आह भरकर कहते हैं, “चलो, जो हुआ सो हुआ”—एक दिन उठकर कहें—“जो हो रहा है, उसे बदला जाए।” तब शायद कोई रात दो बजे, किसी स्ट्रेचर पर, कोई बेटा अपने कार्ड से नहीं, अपनी आँख की पुतली से रोशनी पाए—और सुबह जब डिस्चार्ज-समरी में लिखा जाए—“सुधार”—तो उसके नीचे जीवन भी लिखे—“सुधरना शुरू।”


- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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