क्या सुप्रीम कोर्ट की सख्ती करा पायेगी लोकपाल की नियुक्ति?

By राजेश कश्यप | Jul 07, 2018

लोकपाल की नियुक्ति मामले में सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार से बड़ी सख्ती के साथ पूछा है कि लोकपाल की नियुक्ति के मामले में इतनी देरी क्यों हो रही है ? न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति आर. भानुमति की पीठ ने केन्द्र सरकार को लोकपाल की नियुक्ति की समय सीमा तय करके दस दिन के अन्दर सूचित करने का आदेश जारी किया है। इस मामले में अगली सुनवाई 17 अप्रैल को सुनिश्चित की गई है। साढ़े चार वर्ष पूर्व अन्ना हजारे के राष्ट्रव्यापी आन्दोलन एवं संघर्ष के उपरांत बहुप्रतिक्षित एवं बहुचर्चित ‘लोकपाल बिल’ संसद में पास हो पाया था। वर्ष 1968, 1969, 1971, 1975, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998, 2001, 2005 और 2008 में संसद में पेश होने वाला लोकपाल बिल एक लंबे सफर के उपरांत 17 दिसम्बर, 2013 को राज्य सभा में 15 संशोधनों के साथ ध्वनिमत से पारित हो गया और इसके बाद इसे जनवरी, 2013 में लोक सभा में भी ध्वनिमत से मंजूरी दे दी गई।

 

लोकपाल बिल अमल में आने के लिए महज एक कदम दूर है। राष्ट्रपति की मुहर लगने की औपचारिकता पूरी होते ही यह लागू हो जायेगा। लोकपाल बिल लगभग 50 साल बाद अपने मूल अंजाम तक पहुंचा है। इसके लिए सड़क से लेकर संसद तक भारी संघर्ष हो चुका है। वयोवृद्ध समाजसेवी अन्ना हजारे और उनकी टीम ने वर्ष 2011 में तेरह दिन का ऐतिहासिक आमरण अनशन करके केन्द्र सरकार को नाकों चने चबवा दिए थे। अन्ना हजारे का यह आमरण अनशन भारतीय इतिहास में अविस्मरणीय रहेगा। लोकपाल बिल के समर्थन में आम आदमी सड़कों पर सैलाब बनकर उतर आया था और अन्ना के अनशन को ‘आजादी की दूसरी जंग’ की संज्ञा तक दे दी गई थी। सरकार की तरफ से लोकपाल बिल के प्रति इतनी तेजी पहली बार दिखाई दी।

 

यदि इतिहास के पन्नों को पलट कर देखा जाए तो सर्वप्रथम सहज बोध होता है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश की राजनीति में नैतिक मूल्यों का ह्रास बड़ी तेजी से हुआ और नैतिकता का स्तर निरन्तर गिरता चला गया एवं भ्रष्टाचार का ग्राफ तेजी से बढ़ता चला गया। राजनीति में नैतिकता के गिरते स्तर और भ्रष्टाचार की बढ़ती प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए लोकपाल जैसी संस्था की आवश्यकता महसूस हुई। यद्यपि संविधान के अन्तर्गत भ्रष्टता के आरोपों की जाँच करने के लिए तथा उनका निपटारा करने के लिए उचित प्रावधान तो थे ही, अपितु वे प्रावधान सम्पूर्ण रूप से कारगर नहीं थे। इसीलिए लोकपाल की नियुक्ति की आवश्यकता महसूस हुई।

 

वर्ष 1960 में स्वर्गीय श्री के.एम. मुंशी ने लोकसभा में लोकपाल की नियुक्ति हेतु माँग उठाई। तब, केवल एक प्रशासनिक आयोग का गठन कर दिया गया। इसके अलावा इस सन्दर्भ में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई। इसी विषय का वर्ष 1962 में तत्कालीन प्रसिद्ध वकील एम.सी. सीतलवाड़ ने भी वकीलों की क्रांफ्रेन्स में जिक्र किया था। प्रगति न होने का मूल कारण तो सन् 1962 का चीन युद्ध था, जिससे सारी व्यवस्था चरमरा गई और देश में आपात्तकालीन स्थिति घोषित कर दी गई। वर्ष 1964 में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू जी का स्वर्गवास हो गया और अगले ही वर्ष सन् 1965 में भारत-पाक युद्ध छिड़ गया। उन्हीं दिनों तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का अकस्मात निधन हो गया। अतः लोकपाल जैसे मुद्दे पर सोच विचार करने की स्थिति ही नहीं बनीं। वर्ष 1962 में नियुक्त प्रशासनिक आयोग ने इस विषय में 14 अक्तूबर, 1966 को अपनी अंतरिम रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। श्रीमती इन्दिरा गांधी की सरकार ने वैश्विक स्तर पर मूल्यांकन के उपरांत लोकपाल बिल तैयार किया। ‘लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक’ सर्वप्रथम 9 मई, 1969 को चौथी लोकसभा में तत्कालीन गृहमंत्री यशवंत राव बलवंत राव चव्हाण ने पेश किया। लेकिन, संसद में इसे उचित महत्व नहीं दिया गया और परिणामस्वरूप यह बिल निरस्त हो गया।

 

इसके उपरान्त वर्ष 1971 में तत्कालीन गृहराज्य मंत्री राम निवास मिर्धा ने ‘लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक’ एक बार फिर संसद के पटल पर रखा। इस पर गहन विचार विमर्श किया गया। लेकिन, बिल के प्रति समुचित गम्भीरता न दिखाने की वजह से यह फिर खटाई में पड़ गया और पाँच वर्ष पड़ा रहा। वर्ष 1977 में इस बिल को मोरारजी देसाई सरकार द्वारा संसद में पुनः पेश किया गया और संसद की संयुक्त सैलेक्ट कमेटी के विचाराधीन सौंप दिया गया। वर्ष 1979 में श्री मोरारजी देसाई की सरकार गिर गई और यह बिल फिर से ठण्डे बस्ते में चला गया। छह वर्षों के लम्बे इन्तजार के बाद वर्ष 1985 में राजीव गांधी सरकार द्वारा लोकपाल बिल नए रूप में संसद में पेश किया गया। तत्कालीन कानून मंत्री अशोक कुमार सेन ने इसे संसद के पटल पर रखा। इस पर इस बिल में भारतीय दण्ड संहिता के प्रावधानों की अवहेलना का ही जिक्र किया गया था, जिसकी वजह से विपक्ष ने हंगामा खड़ा कर दिया और सरकार इसको वापिस लेने के लिए मजबूर हो गई। बिल की स्थिति पुनः वैसी की वैसी ही हो गई। चार-पाँच वर्षों के उपरान्त राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप ने ‘लोकपाल बिल-1988’ के नाम से यह बिल 1989 में लोकसभा में पेश किया। तत्कालीन कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी ने इसे संसद में रखा। इस बिल की यह विशेषता थी कि प्रधानमंत्री को भी लोकपाल के दायरे में रखा गया था।

 

जनवरी, 1990 में यह बिल लोकसभा में पारित कर दिया गया। लेकिन, बदकिस्मती से इस बिल को राज्यसभा में पेश करने से पूर्व ही राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार गिर गई और यह बिल फिर से रद्दी की टोकरी में फेंक दिया गया। इसकी ओर अगले छह वर्षों तक किसी ने देखा तक नहीं। वर्ष 1996 में एच.डी. देवगौड़ा के नेतृत्व में यूनाइटेड फ्रन्ट की सरकार बनी और उसे ‘लोकपाल बिल-1996’ के नाम से 13 सितम्बर को संसद में पेश किया गया। फिर से सरकार गिरी और बिल भी सीधा खटाई में जा गिरा। आगे चलकर अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार वर्ष 1998 में बनी और अगस्त के महीने में इस बिल को संसद में पेश किया गया। तत्कालीन कार्मिक, लोक शिकायत तथा पेंशन राज्य मंत्री कदम्बुर एम.आर. जनार्थनन ने इस बिल को पेश किया। इसे संसद की स्थायी समिति के विचाराधीन रखा गया। यूं ही समय व्यतीत होता चला गया और 26 अप्रैल, 1999 को 12वीं लोकसभा का कार्यकाल पूरा हो गया और यह बिल पहले की भांति निरस्त होना ही था।

 

तेरहवीं लोकसभा का गठन हुआ और यह बिल फिर से नौवीं बार ‘लोकपाल बिल 2001’ के नाम से संसद के पटल पर रखा गया। तत्कालीन कार्मिक, लोक शिकायत तथा पेंशन राज्य मंत्री वसुन्धरा राजे ने इसे लोकसभा में पेश किया। वाजपेयी सरकार ने इस बिल को स्टैण्डिग कमेटी को रेफर कर दिया। बिल पास होने से पहले ही एक बार फिर सरकार गिर गई और मामला पुनः ठण्डे बस्ते में चला गया। वर्ष 2004 में मनमोहन सरकार ने भी लोकपाल बिल पास करवाने का संकल्प दोहराया। वर्ष 2004 से वर्ष 2009 तक यह बिल कई बार ठण्डे बस्ते से निकला और गर्माया। लेकिन, किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाया।

 

4 अगस्त, 2011 को लोकसभा में कार्मिक, लोक शिकायत तथा पेंशन राज्य मंत्री वी. नारायणसामी ने चालीस पन्नों का लोकपाल विधेयक पेश किया। 8 अगस्त को राज्यसभा के सभापति एवं उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने इस विधेयक को कांग्रेस सांसद अभिषेक मनु सिंघवी की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति कार्मिक, लोक शिकायत तथा पेंशन को सौंप दिया। इस तरह साढ़े चार दशकों तक खिंचते-खिंचते ‘लोकपाल एवं लोकायुक्त विधेयक’ अत्यन्त पेचीदा होता चला गया। चूंकि अब लोकपाल नियुक्ति मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सख्त रूख अपना लिया है तो लोकपाल की नियुक्ति अपने अंजाम तक पहुंचने की संभावनाएं मजबूत दिखाई दे रही हैं।

 

-राजेश कश्यप

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक हैं।)

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