By सुखी भारती | Dec 04, 2025
नारद मुनि के हृदयांगण में विरक्ति का प्रकाश व्याप्त था; परंतु जैसे ही उन्होंने विश्वमोहिनी की भाग्यरेखा का अवलोकन किया, उनके भीतर कामना और लोभ—दोनों की जकड़न जाग उठी। जो मुनि जगत को नश्वरता का उपदेश देते थे, उसी मुनि को अमरत्व का मोह होने लगा। क्योंकि—
‘जो एहि बरइ अमर सोइ होई।
समरभूमि तेहि जीत न कोई।।
सेवहिं सकल चराचर ताही।
बरइ सीननिधि कन्या जाही।।’
भाग्यरेखा संकेत दे रही थी कि जो विश्वमोहिनी को वरण करेगा, वही अजर-अमर होगा, रणभूमि में अजेय रहेगा, और समस्त चर-अचर प्राणी उसकी सेवा में तत्पर होंगे। यह सुनकर नारद के नेत्र आश्चर्य से पूर्ण थे, पर वे मन की तरंगों को बाहर प्रकट न होने देते। उन्हें भय था कि यदि विश्वमोहिनी के लक्षण संसार में प्रकट हो गए, तो अयोग्य लोग भी स्वयंवर में आ अटपकेंगे। मुनि की इच्छा थी कि प्रतियोगियों की संख्या जितनी कम हो, उतना ही उत्तम।
विचारों के इस घमासान में एक ही भाव दृढ़ था—
कन्या को किसी भी प्रकार प्राप्त करना है।
वे सोचने लगे—
“मैं तो जप-तप का धनी, जटाधारी मुनि हूँ। ऐसे रूप में यदि स्वयंवर में जा बैठा, तो कन्या मुझे वरण करने के स्थान पर प्रणाम करके आगे बढ़ जाएगी। कहीं ऐसा न हो कि वह मुझे पिता-तुल्य ही मान ले! स्पष्ट है कि केवल जप-तप से यहाँ कुछ सिद्ध नहीं होगा। तो फिर, हे विधाता, इस कन्या को कैसे पाऊँ?”
‘करौं जाइ सोइ जतन बिचारी।
जोहि प्रकार मोहि बरै कुमारी।।
जप तप कछु न होइ तेहि काला।
हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला।।’
मुनि सोचने लगे—
“काश! मेरा रूप भी ऐसा होता कि कन्या स्वयं मोहित हो जाए। मेरा रूप ऐसा होना चाहिए कि विश्वमोहिनी दौड़कर सीधे मेरे ही पास आए और तपाक से वरमाला मेरे गले में डाल दे।”
इस कठिन घड़ी में उन्हें एक ही सहायक दिखता था—श्रीहरि।
उनका मन बोला—
“मुझे प्रभु के पास जाना चाहिए और उनसे कहना चाहिए कि वे अपनी सुंदरता मुझे प्रदान करें।”
परंतु अगले ही क्षण विचार बदला—
“नहीं! उनसे मिलने जाने में समय व्यर्थ होगा। जब तक लौटूँगा, स्वयंवर समाप्त हो जाएगा। पर उनके बिना मेरा हित करने वाला कोई और है भी तो नहीं!”
लीलाधर की लीला भी अद्भुत है—
आज वही नारद, जो बैरागी होकर राग-द्वेष से परे थे, अब सोच रहे थे कि प्रभु तक जाने में समय व्यर्थ होगा।
जिनके जीवन में हरि-स्मरण ही सर्वोच्च साधना थी, आज उन्हीं को वह समय की हानि प्रतीत होने लगा।
जप-तप के विषय में वे स्वयं कह चुके थे—
‘जप तप कछु न होइ तेहि काला।’
माया का यह कैसा प्रबल प्रभाव!
जिस जप-तप के बल पर वे त्रिलोक में सम्मानित थे, वही जप-तप आज उन्हें निष्फल प्रतीत हो रहा था।
अंततः उन्होंने निश्चय किया—
“प्रभु के पास जाने में समय व्यर्थ होगा; अतः क्यों न उन्हें ही यहाँ बुला लिया जाए?”
अब प्रश्न यह—
क्या नारद मुनि सचमुच श्रीहरि को आह्वान करते हैं?
और यदि करते हैं, तो—
क्या श्रीहरि तत्काल प्रकट होते हैं?
यह जानेंगे—
अगले अंक में।
क्रमशः…
- सुखी भारती