राहुल की काबिलियत पर अब विपक्षी नेताओं को भी होने लगा शक़

By अजय कुमार | Aug 14, 2018

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को लेकर उनकी पार्टी के भीतर से भले आवाज नहीं उठ रही हो लेकिन कांग्रेस के अतिरिक्त तमाम दलों के नेता राहुल को अपने लिए 'अपशकुन' ही मानते हैं। कांग्रेस देशभर में लगातार कमजोर होती जा रही है। खासकर उत्तर प्रदेश में जिस तरह से समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव कांग्रेस और राहुल गांघी को गम्भीरता से नहीं ले रहे हैं उससे तो यही लगता है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस शायद ही गठबंधन का हिस्सा बन पाये। अगर कांग्रेस गठबंधन में शामिल होगी भी तो उसके खाते में 6−7 से ज्यादा सीटें नहीं आने वाली नहीं हैं। अखिलेश ने कांग्रेस और राहुल से यह दूरी बसपा के साथ आने के बाद बनाई है। वर्ना 2017 में यूपी विधान सभा चुनाव के समय अखिलेश−राहुल की जुगलबंदी जनता ने खूब देखी थी। यह और बात रही थी कि नतीजे उम्मीद के अनुसार नहीं रहे थे। 'यूपी को यह साथ पसंद है' के स्लोगन की जनता ने पूरी तरह से हवा निकल दी। इसके बाद अखिलेश को भी समझ में आ गया कि उन्होंने नेताजी मुलायम सिंह यादव की बात नहीं मानकर बहुत बड़ी गलती की, जो लगातार कांग्रेस से सपा के हाथ मिलाने का विरोध कर रहे थे। अब स्थिति यह है कि अखिलेश अकेले ऐसे नेता नहीं रह गये हैं जिन्हें राहुल की काबिलियत पर शक है। इसमें नया नाम आम आदमी पार्टी के नेता अरिवंद केजरीवाल का भी जुड़ गया है, जिन्होंने 2019 के लोकसभा चुनाव के लिये कांग्रेस वाले गठबंधन से दूरी बनाये रखने का फैसला किया है। इसी तरह से ममता बनर्जी और मायावती भी राहुल से दूरी बनाकर चल रही हैं।

 

राज्यसभा के उपसभापति के चुनाव में जिस तरह से राहुल गांधी ने नौसिखियेपन का परिचय दिया, उससे आम आदमी पार्टी, बीजूद जनता दल सहित तमाम दलों के दिग्गज नेताओं का राहुल के प्रति विश्वास कम हुआ है। चुनावी संध्या के समय इसका असर दिखना कांग्रेस के लिये अच्छी खबर नहीं है, जबकि कांग्रेस विरोधी बयानों के बाद यूपी कांग्रेस के नेता अपने दम पर चुनाव लड़ने की वकालत करने लगे हैं। कांग्रेस नेताओं ने इस आशय का एक पत्र सोनिया गांधी को भेजा है।

 

उधर, बीजेपी चुटकी ले रही है और सवाल भी खड़े कर रही है कि कांग्रेस अकेले चुनाव लड़े या फिर गठबंधन का हिस्सा बने इसका फैसला तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को करना है तो फिर सोनिया को पत्र लिखे जाने का क्या मकसद है। कहीं अखिलेश और अरविंद केजरीवाल की तरह कांग्रेसी भी तो राहुल को अयोग्य नहीं मानते हैं। दरअसल, सच्चाई यही है कि राहुल सियासत में कभी लम्बी रेस का घोड़ा नजर ही नहीं आये। न उनका इतिहास ज्ञान सही है और न ही उन्हें देश के मौजूदा हालात के बारे में पता है। इतना ही नहीं कई मौकों पर तो उनकी समझ भी बहुत छोटी लगती है। वह जब भी मुंह खोलते हैं, तो कभी हंसी का पात्र बन जाते हैं तो कभी कांग्रेस के लिये ही मुश्किल खड़ी हो जाती है। उनकी कुंठा ही है जिसके चलते उन्हें हर समस्या के पीछे मोदी सरकार ही नजर आती है। राहुल अपना पूरा समय मोदी सरकार और उसके बाद बचा समय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) को कोसने में लगा देते हैं। राहुल को राजनीति में आये आये डेढ़ दशक का समय हो चुका है, लेकिन उनकी 'सियासी झोली' तब से लेकर आज तक खाली की खाली ही है। डेढ़ दशक का सियासी सफर कोई छोटा नहीं होता है, लेकिन राहुल का नौसिखियापन कम ही नहीं हो रहा है, जबकि इससे काफी कम समय में उनकी दादी इंदिरा गांधी और पिता राजीव गांधी ने भारतीय राजनीति में एक उच्च मुकाम हासिल कर लिया था। 1964 में प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की आकस्मिक मौत हो गई, इसके बाद लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने जरूर लेकिन असमय मौत की वजह से उनका कार्यकाल भी करीब दो वर्षों का ही रहा।

 

शास्त्री जी की मौत के बाद 1966 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो उनके पास सियासी अनुभव न के बराबर था। नेहरू की मौत के बाद वह पहली बार राज्यसभा मेंबर बनी थीं और उन्हें शास्त्री मंत्रिमंडल में सूचना−प्रसारण मंत्री बनने का मौका मिला था, लेकिन एक बार प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद उन्होंने देश−विदेश तक को अपना लोहा मनवा दिया था। उन्होंने शीघ्र ही चुनाव जीतने के साथ−साथ जनप्रियता के माध्यम से विरोधियों के ऊपर हावी होने की योग्यता दर्शायी। वह अधिक वामवर्गी आर्थिक नीतियाँ लायीं और कृषि उत्पादकता को बढ़ावा दिया। 1971 के भारत−पाक युद्ध में एक निर्णायक जीत के बाद की अवधि में अस्थिरता की स्थिति में उन्होंने सन् 1975 में आपातकाल लागू किया। उन्हें एवं काँग्रेस को 1977 के आम चुनाव में पहली बार उस समय हार का सामना करना पड़ा, जब पूरा विपक्ष जनता पार्टी बनाकर उनके खिलाफ एकजुट हो गया, लेकिन यह दौर लम्बा नहीं चला और उनकी जल्द सत्ता में वापसी हो गई। इंदिरा गांधी के ऊपर समय−समय पर तमाम तरह के आरोप लगे, लेकिन उनके हौसलों की उड़ान कभी रूकी नहीं। आज भी भारत की सियासत में जब प्रखर नेताओं का नाम लिया जाता है तो इंदिरा का नाम सबसे पहले आता है।

 

इसी प्रकार राजीव गांधी भी बाईचांस सियासत में आये, लेकिन जब आये तो राजनीति को अपने हिसाब से समझा और आगे बढ़ाया। मशहूर इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब 'इंडिया आफ्टर गांधी' में राजीव गांधी के बारे में लिखा था कि जब राजीव ने सत्ता संभाली थी तो उस समय भारत हर चीज पर सरकारी नियंत्रण के कुचक्र में फंसा हुआ था। इससे देश को उबारने के लिये राजीव ने कुछ सेक्टर्स में सरकारी नियंत्रण को खत्म करने की कोशिश की थी, जिसकी वजह से 1991 में बड़े पैमाने पर नियंत्रण और लाइसेंस राज के खात्मे की शुरुआत हुई। राजीव ने इनकम और कॉर्पोरेट टैक्स घटाया, लाइसेंस सिस्टम सरल किया और कंप्यूटर, ड्रग और टेक्सटाइल जैसे क्षेत्रों से सरकारी नियंत्रण खत्म किया। साथ ही कस्टम ड्यूटी भी घटाई और निवेशकों को बढ़ावा दिया। बंद अर्थव्यवस्था को बाहरी दुनिया की खुली हवा महसूस करवाने का यह पहला मौका था। राजीव को ही आर्थिक उदारवाद की शुरुआत का श्रेय जाता है।

 

राजीव गांधी ने दिसंबर 1988 में चीन की यात्रा की। यह एक ऐतिहासिक कदम था। इससे भारत के सबसे पेचीदा पड़ोसी माने जाने वाले चीन के साथ संबंध सामान्य होने में काफी मदद मिली। 1954 के बाद इस तरह की यह पहली यात्रा थी। सीमा विवादों के लिए चीन के साथ मिलकर बनाई गई ज्वाइंट वर्किंग कमेटी शांति की दिशा में एक ठोस कदम थी। राजीव की चीनी प्रीमियर डेंग शियोपिंग के साथ खूब पटरी बैठती थी। कहा जाता है राजीव से 90 मिनट चली मुलाकात में डेंग ने उनसे कहा, तुम युवा हो, तुम्हीं भविष्य हो। अहम बात यह है कि डेंग कभी किसी विदेशी राजनेता से इतनी लंबी मुलाकात नहीं करते थे।

 

राजीव गांधी के 'पावर टू द पीपल' आइडिया के तहत ही कांग्रेस ने 1989 में एक प्रस्ताव पास कराकर पंचायती राज को संवैधानिक दर्जा दिलाने की कोशिश की थी, जिसके परिणामस्वरूप 1990 के दशक में पंचायती राज वास्तविकता में सबके सामने आया। ग्रामीण बच्चों के लिए नवोदय विद्यालयों के शुभारंभ का श्रेय भी राजीव गांधी को जाता है। राजीव गांधी के भाषणों में हमेशा 21वीं सदी में प्रगति का जिक्र हुआ करता था। उन्हें विश्वास था कि इन बदलावों के लिए अकेले तकनीक ही सक्षम है। उन्होंने टेलीकॉम और इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी सेक्टर्स में विशेष काम करवाया।

 

मतदान उम्र सीमा 21 से घटाकर 18 साल करने के राजीव के फैसले से 5 करोड़ युवा मतदाता और बढ़ गए। इस फैसले का कुछ विरोध भी हुआ, लेकिन राजीव को यकीन था कि राष्ट्र निर्माण के लिए युवाशक्ति की भागीदारी जरूरी है। राजीव ने ईवीएम मशीनों को चुनावों में शामिल करने समेत कई बड़े चुनाव सुधार किए गए। ईवीएम के जरिए उस दौर में बड़े पैमाने पर जारी चुनावी धांधलियों पर रोक लगी। आज के दौर में चुनाव बहुत हद तक निष्पक्ष होते हैं और इनमें ईवीएम मशीनों का बड़ा योगदान है।

 

दुख की बात यह है कि नेहरू−गांधी परिवार की चौथी पीढ़ी के सदस्य राहुल गांधी में ऐसा कुछ नहीं दिखता है जिसकी वजह से उन्हें सराहा जाये। न ही आज और न ही यूपीए की मनमोहन सरकार के दस वर्षों के कार्यकाल में राहुल कुछ सार्थक कर पाये थे, उनकी इमेज तब अध्यादेश फाड़ने वाले नेता की थी और आज वह गुरिल्ला शैली में मोदी सरकार पर आरोप लगाने तक ही सिमट कर रह गये हैं। किसी समस्या का उनके पास कोई समाधान नहीं है। कांग्रेस ससंदीय दल की बैठक और महिला कांग्रेस के अधिकार सम्मेलन में जैसे वक्तव्य राहुल गांधी ने दिए उससे इसकी ही पुष्टि हुई कि वह केवल आरोप लगाने तक ही सीमित होते जा रहे हैं। चूंकि उनकी प्राथमिकता केवल आरोप उछालने में है इसलिए वह उन्हें सनसनीखेज तरीके से उछालते तो हैं, लेकिन इसकी परवाह नहीं करते कि उनमें कुछ तत्व या तथ्य है या नहीं? समझना कठिन है कि वह किस आधार पर इस नतीजे पर पहुंच गए कि बीते चार सालों में महिलाओं के खिलाफ जो कुछ हुआ है वह पिछले तीन हजार सालों में भी नहीं हुआ? देश के बंटवारे के समय हिन्दू औरतों और लड़कियों पर हुए बर्बर अत्याचार को वह कैसे भूल सकते हैं, जिसके लिये नेहरू और गांधी भी कम जिम्मेदार नहीं थे।

 

यह सच है कि देश में महिलाओं के खिलाफ अपराध बढ़ रहे हैं। दुष्कर्म के मामले भी थमने का नाम नहीं ले रहे, लेकिन यह बेतुकी बात है कि महिलाओं की सुरक्षा के मामले में आज के हालात तीन हजार सालों से भी खराब हैं। अगर राहुल की बातों पर भरोसा कर एक क्षण के लिए यह मान लिया जाए कि मोदी सरकार के चलते देश रसातल में जा रहा है तो भी जनता यह जानना चाहेगी कि कांग्रेस देश को सही दिशा में ले जाने के लिए क्या करेगी?

 

राहुल गांधी वो ही बोलते हैं जो उन्हें पढ़ा−लिखा दिया जाता है, लेकिन अफसोस इस बात का है कि उनको समझाने−बुझाने वालों की भी सोच काफी सीमित है। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि कांग्रेस में आज भी ऐसे नेताओं की लम्बी फौज है जिनके पास सरकार से लेकर संगठन तक चलाने में महारथ हासिल है, फिर भी एक राहुल के चलते कांग्रेस का इतना बुरा हाल हो गया है कि क्षेत्रीय दल भी उसको धमकाने लगे हैं। गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, खड़गे साहब, पी चिदम्बरम, सलमान खुर्शीद, दिग्विजय सिंह, मोती लाल वोरा किस−किस का नाम लिया जाये। सोनिया गांधी को भी कम करके नहीं आका जा सकता है जिन्होंने एक समय मरणासन्न कांग्रेस में जान फूंकी थी, उनके ही बल पर कांग्रेस ने 2004 से लेकर 2014 तक देश पर राज किया था, परंतु बढ़ती उम्र और स्वास्थ्य कारणों से वह अपने उतनी एक्टिव नहीं रह पाती हैं, लेकिन कांग्रेस का मौजूदा हाल देखकर उन्हें भी अफसोस तो होता ही होगा। राहुल में परिपक्वता का अभाव है, इसी वजह से कांग्रेस में एक धड़ा लगातार प्रियंका को आगे बढ़ाये जाने के तराने छेड़ता रहता है। शायद ही कोई चुनाव ऐसा जाता होगा जब प्रियंका के राजनीति में पर्दापण की खबर नहीं छपती हो। इस बार भी रायबरेली से प्रियंका के चुनाव लड़ने की चर्चा चल पड़ी है। राहुल गांधी जिस तरह से विपक्षी एकता के लिये 'अपशकुन' समझे जा रहे हैं, वह कांग्रेस के लिये चिंता का विषय होगा, देखना यह है कि राहुल के ऊपर से यह 'दाग' कब हटेगा।

 

-अजय कुमार

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