By नीरज कुमार दुबे | Oct 07, 2025
लगभग दो दशकों से ठंडे पड़े अमेरिका–पाकिस्तान संबंधों में नई गर्माहट लाने की एक अप्रत्याशित कोशिश में पाकिस्तान ने हाल ही में दुर्लभ धातुओं (Rare Earth Elements) से युक्त खनिजों की पहली खेप अमेरिका को निर्यात की है। इस्लामाबाद ने इसे "द्विपक्षीय सहयोग में ऐतिहासिक मील का पत्थर" बताते हुए दावा किया है कि यह सौदा दोनों देशों के बीच नई रणनीतिक साझेदारी की शुरुआत है। सरकारी घोषणा के अनुसार, पाकिस्तान ने अमेरिकी कंपनी US Strategic Metals (USSM), जो मिसौरी स्थित एक निजी संस्था है, उसको $500 मिलियन के समझौते के तहत "एंटिमनी, कॉपर कंसंट्रेट और दुर्लभ पृथ्वी धातुओं" की पहली खेप भेजी है। हम आपको याद दिला दें कि यह समझौता सितंबर के आरंभ में पाकिस्तान की राज्य-नियंत्रित संस्था Frontier Works Organisation (FWO) के साथ हुआ था।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ और सेना प्रमुख असीम मुनीर ने हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से मुलाकात के दौरान उन्हें पाकिस्तान के दुर्लभ खनिजों का सैंपल दिखाया था। इस मुलाकात के चंद दिनों बाद ही अमेरिका को पहली खेप का निर्यात भी कर दिया गया। हम आपको बता दें कि अमेरिका इस समय चीन की एकाधिकार वाली पकड़ से निकलने की कोशिश कर रहा है जो उसने वैश्विक दुर्लभ धातु आपूर्ति श्रृंखला पर जमा रखी है। चीन की यह पकड़ न केवल ऑटोमोबाइल, रॉकेटरी और उन्नत कंप्यूटिंग जैसी उद्योगों के लिए अहम है, बल्कि आधुनिक रक्षा उत्पादन का भी मूलाधार है। इसी परिप्रेक्ष्य में पाकिस्तान ने स्वयं को “विश्वसनीय और भरोसेमंद साझेदार” के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की है। प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ ने कहा, “आज पाकिस्तान सुरक्षित और विविध आपूर्ति श्रृंखलाओं के निर्माण में अमेरिका का सच्चा सहयोगी बनकर आगे बढ़ा है।”
लेकिन विशेषज्ञों की नज़र में पाकिस्तान का यह दावा ज्यादा प्रचार और कम वास्तविकता पर आधारित है। दरअसल, जिन धातुओं— नियोडिमियम और प्रासियोडिमियम का ज़िक्र पाकिस्तान ने किया है, वे सीधे तौर पर नहीं बल्कि जटिल यौगिकों के रूप में पाई जाती हैं। इन धातुओं को अयस्क से शुद्ध रूप में अलग करने में वर्षों या दशकों का समय लगता है। वर्तमान में स्वयं अमेरिका के पास भी इन धातुओं को परिष्कृत करने की पूरी क्षमता नहीं है। अमेरिका की एकमात्र सक्रिय कंपनी MP Materials कैलिफ़ोर्निया के Mountain Pass Mine से अयस्क निकालती है, लेकिन उसे अंतिम प्रक्रिया के लिए चीन भेजना पड़ता है।
यानि, पाकिस्तान जो भेज रहा है वह कच्चा अयस्क है, तैयार धातु नहीं है। देखा जाये तो अमेरिका के लिए यह कोई तकनीकी उपलब्धि नहीं, बल्कि चीन पर निर्भरता से बचने की दीर्घकालिक रणनीति का एक आरंभिक कदम मात्र है। इसलिए पाकिस्तान का यह “निर्यात” आर्थिक से ज़्यादा कूटनीतिक प्रतीकात्मकता रखता है।
इसके अलावा, अमेरिका के लिए यह समझौता एक रणनीतिक सुरक्षा कवच जैसा है जिससे वह बाहरी निर्भरता से आंशिक रूप से मुक्त होकर अपनी रक्षा, ऊर्जा और उच्च-प्रौद्योगिकी उद्योगों के लिए आवश्यक कच्चा माल सुनिश्चित कर सके। वहीं पाकिस्तान के लिए यह एक कूटनीतिक पुनर्जागरण का अवसर है, खासकर तब जब चीन के साथ उसके संबंधों में संतुलन साधना अब चुनौती बन चुका है।
हम आपको बता दें कि पाकिस्तान के आधिकारिक बयान में कहा गया है कि उसकी धरती में लगभग 6 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर मूल्य के खनिज संसाधन हैं, जो उसे “वैश्विक खनिज अर्थव्यवस्था की उभरती शक्ति” बना सकते हैं। लेकिन इन दावों पर संदेह है, क्योंकि न तो पाकिस्तान के पास इन धातुओं के निष्कर्षण और प्रसंस्करण की तकनीकी क्षमता है, न ही निवेश माहौल इतना स्थिर है कि विदेशी कंपनियाँ दीर्घकालिक साझेदारी को लेकर आश्वस्त हों।
हम आपको यह भी बता दें कि पाकिस्तान और USSM के बीच हुआ यह समझौता “साझा मूल्य श्रृंखला विकास” का ढांचा प्रस्तुत करता है— जिसमें खोज, अयस्क प्रसंस्करण, सांद्रण उत्पादन और भविष्य में पाकिस्तान में ही रिफाइनरी स्थापित करने की योजना शामिल है। यदि यह परियोजना सचमुच आगे बढ़ती है, तो यह पाकिस्तान की खनिज अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ा अवसर साबित हो सकती है। परंतु इतिहास बताता है कि इस्लामाबाद की अधिकांश विदेशी साझेदारियाँ या तो राजनीतिक अस्थिरता के कारण ठप पड़ गईं या सैन्य प्राथमिकताओं के बोझ तले दब गईं।
इस परिप्रेक्ष्य में, यह सौदा भी कई विशेषज्ञों के लिए “डॉलर डिप्लोमेसी” का नया अध्याय है— जहाँ पाकिस्तान अपनी आर्थिक मजबूरियों को भुनाकर भू-राजनीतिक जगह तलाशने की कोशिश कर रहा है। यह पहल जितनी अमेरिका की “सप्लाई चेन सुरक्षा” की ज़रूरत से जुड़ी है, उतनी ही पाकिस्तान की “राजनैतिक प्रासंगिकता” बहाल करने की कोशिश भी है।
कहा जा सकता है कि पाकिस्तान का यह निर्यात किसी वास्तविक औद्योगिक छलांग से ज़्यादा राजनैतिक संदेश है कि वह अब चीन के साए से बाहर निकलकर बहुध्रुवीय कूटनीति की दिशा में आगे बढ़ना चाहता है। अमेरिका के लिए यह सौदा भले छोटे स्तर पर हो, पर रणनीतिक दृष्टि से एक दीर्घकालिक निवेश है। यह एक ऐसा साझेदार तैयार करने की कोशिश है जो भविष्य में चीन की जगह आंशिक रूप से भर सके।
बहरहाल, यह साझेदारी न तो अभी “ऐतिहासिक” है और न ही “परिवर्तनकारी”, पर यह निश्चित रूप से उस पुराने संवाद की वापसी है जो कभी वॉशिंगटन और इस्लामाबाद के बीच टूटा था। अब देखना यह होगा कि क्या यह “खनिज कूटनीति” दो दशकों की दूरी को पाट पाएगी, या बस एक और अस्थायी चमक बनकर रह जाएगी।
-नीरज कुमार दुबे