संसद को चलाने में किसी की रुचि नहीं, हंगामे में समय और पैसा हो रहा बर्बाद

By नीरज कुमार दुबे | Dec 19, 2018

पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव संपन्न होने के बाद अब सभी दलों की नजरें लोकसभा चुनाव पर टिक गयी हैं और गठबंधन बचाने, गठबंधन बनाने, रूठों को मनाने, अपने काम गिनाने और एक से बढ़कर एक वादे करने की राजनीतिक दलों में होड़ लग गयी है। दूसरी ओर संसद का शीतकालीन सत्र जोकि इस लोकसभा का अंतिम पूर्णकालिक सत्र है, उसे चलाने में किसी को रुचि नहीं दिख रही है और हंगामे में संसद का कीमती समय और जनता का पैसा बर्बाद किया जा रहा है। सभी दलों की रुचि एक दूसरे पर निशाना साधने और नये साथियों की तलाश में ज्यादा है। इन दिनों राजनेता विभिन्न मीडिया मंचों पर ज्यादा दिखाई दे रहे हैं ताकि जनता को बता सकें कि हमने आपके लिए क्या क्या किया और फिर सत्ता में आये तो क्या क्या कर देंगे।

 

क्या शीतकालीन सत्र बेकार चला जायेगा ?

 

संसद के शीतकालीन सत्र की कार्यसूची में कई महत्वपूर्ण विधेयक पारित कराने के लिए रखे गये थे और विभिन्न मुद्दों जैसे- महंगाई, राफेल, कृषि संकट, हाल ही में आये चक्रवाती तूफान आदि पर चर्चा की बात कही गयी थी लेकिन हो क्या रहा है ? विधेयकों पर सार्थक चर्चा की तो अब उम्मीद ही छोड़नी होगी क्योंकि हंगामे के बीच ही विधेयक ध्वनिमत से पारित हो रहे हैं। अगर ऐसे ही विधेयकों को पारित करना है तो फिर तो अध्यादेश लाना ही सही है। कम से कम अध्यादेश पेश करने के लिए समय और पैसे की इस तरह बर्बादी तो नहीं होती।

 

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मोदी सरकार के दावे

 

सरकार की ओर से काम गिनाने की बात करें तो प्रधानमंत्री नरेंद मोदी ने हाल ही में अपने महाराष्ट्र के दौरे के दौरान जहाँ बुनियादी ढाँचागत परियोजनाओं का उद्घाटन किया वहीं अपनी सरकार और पिछली सरकारों के बीच फर्क को भी उजागर किया। प्रधानमंत्री ने कहा कि हमारे यहां एक साइकोलॉजी है कि सरकार के खिलाफ आरोप लगाते हुए कोई अदालत में जाता है तो सरकार को गलत माना जाता है लेकिन हमारी सरकार पर पहली बार भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए तो देश की सर्वोच्च अदालत ने दो टूक जवाब दिया कि सब कुछ पूरी पारदर्शिता और ईमानदारी के साथ हुआ है। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि आज आप भारत में कहीं पर भी जाएं एक साइनबोर्ड देखने को मिलेगा 'Work in Progress' यह सही मायने में दिखाता है कि 'India in Progress' यानि नया भारत बनाने का काम हो रहा है। उन्होंने कहा कि Today India is a country that never stops. न रुकेंगे, न धीमा पड़ेंगे, न थमेंगे यह इंडिया ने ठान लिया है।


राहुल गांधी के हमले तीखे होते जा रहे हैं

 

वहीं दूसरी ओर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर जबरदस्त हमला बोलते हुए कहा कि किसानों की देशव्यापी ऋण माफी करने तक हम प्रधानमंत्री को चैन से सोने नहीं देंगे और ऋण माफी करवा कर ही दम लेंगे। उन्होंने कहा कि यदि यह सरकार किसानों का ऋण माफ नहीं करती है तो हम सत्ता में आने के बाद ऐसा करेंगे। राहुल गांधी ने अपने संबोधन के दौरान राफेल मुद्दे को भी उठाया और अब आप उनका कोई भी भाषण या मीडिया से उनकी बातचीत देख लीजिये वह 'चोरी' शब्द को पकड़े हुए हैं और हर दूसरे तीसरे वाक्य में 'चोरी' शब्द का उपयोग करते हुए नरेंद्र मोदी सरकार पर हमला बोलते हैं। लेकिन राहुल गांधी को अभी परिपक्व होना बाकी है क्योंकि जिस मीडिया ब्रीफिंग में वह सरकार पर हमला बोल रहे थे उससे ठीक पहले मीडिया के सामने वह वरिष्ठ नेताओं से इस बात को पूछते दिखाई दिये कि मैं किस विषय पर बोलूं और क्या बोलूं।

 

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महागठबंधन राष्ट्रव्यापी होगा या राज्य स्तरीय?

 

दूसरी तरफ बनते बिगड़ते गठबंधनों की बात करें तो कांग्रेस के लिए राष्ट्रव्यापी महागठबंधन बनाने की राह आसान नजर नहीं आ रही है। तमिलनाडु से भले राहुल गांधी को द्रमुक का साथ मिल गया हो लेकिन अन्य राज्यों में ऐसी स्थिति नहीं है। पश्चिम बंगाल में सत्तारुढ़ तृणमूल कांग्रेस ने साफ कर दिया है कि हम किसी भी सूरत में लोकसभा चुनावों से पहले कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं करेंगे। पार्टी का कहना है कि भाजपा को हराना हमारा प्राथमिक लक्ष्य है लेकिन हम कांग्रेस के साथ जाएंगे या नहीं इस बात का फैसला लोकसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद होगा। ऐसा ही कथन उत्तर प्रदेश की दो बड़ी पार्टियों समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का है। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने तो साफ कर दिया है कि द्रमुक की जो राय है राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की वह जरूरी नहीं कि दूसरे दलों की भी राय हो। बहुजन समाज पार्टी ने भी कांग्रेस को कोई भाव नहीं दिया है और माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में महागठबंधन में सिर्फ समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल ही होंगे। कांग्रेस को इसमें कोई स्थान नहीं मिलने जा रहा है। अगर यह महागठबंधन बनता है तो निश्चित रूप से भाजपा के लिए 2019 की राह मुश्किल होगी। वामपंथी दल भी लोकसभा चुनावों से पहले राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन बनने की संभावनाओं को खारिज कर चुके हैं और आम आदमी पार्टी भी फिलहाल कांग्रेस से दूरी बनाकर चल रही है, ऐसे में भाजपा विरोधी मतों में बिखराव रोकने के कांग्रेस के प्रयास फिलहाल तो विफल होते नजर आ रहे हैं।

 

राजग में भी 'आल इज वेल' नहीं

 

दूसरी ओर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में सब कुछ ठीक चल रहा हो ऐसा नहीं है। तेदेपा राजग से बाहर जा चुकी है और हाल ही में रालोसपा प्रमुख उपेन्द्र कुशवाहा भी राजग छोड़ गये हैं। अब रामविलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी भी भाजपा को आंखें दिखा रही है। राष्ट्रीय जनता दल ने तो लोजपा को साथ आने का न्यौता भी दे दिया है अगर ऐसा होता है तो यह राजग के लिए बड़ा झटका हो सकता है। इसके अलावा शिवसेना भी महाराष्ट्र में लोकसभा और विधानसभा चुनाव अलग लड़ने की घोषणा कर चुकी है। हालांकि भाजपा को उम्मीद है कि शिवसेना साथ आ जायेगी लेकिन पार्टी के पिछले तेवरों को देखें तो साफ है कि भाजपा अब शिवसेना के सामने झुकना बंद कर चुकी है और यह भी संभव है कि दोनों दल लोकसभा का चुनाव अलग-अलग लड़ें। साथ ही उत्तर प्रदेश में ओम प्रकाश राजभर की पार्टी भी राजग से कभी भी अलग होने की घोषणा कर सकती है क्योंकि राजभर खुलेआम भाजपा और उत्तर प्रदेश सरकार के खिलाफ बयान देते घूम रहे हैं।

 

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मनमोहन की हसरतें फिर जागीं

 

पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी आजकल काफी मुखर हो रहे हैं। शायद उन्हें उम्मीद हो गयी है कि यदि कांग्रेस सत्ता में आती है तो जिस तरह अनुभवी कमलनाथ के लिए ज्योतिरादित्य सिंधिया ने और जिस तरह अनुभवी अशोक गहलोत के लिए सचिन पायलट ने मुख्यमंत्री पद की गद्दी छोड़ी उसी तरह उनके (मनमोहन के) अनुभव को देखते हुए राहुल गांधी उन्हें फिर से सत्ता सौंप दें। मनमोहन अर्थव्यवस्था और आरबीआई से संबंधित विषयों पर पिछले कुछ दिनों से लगातार बयान दे रहे हैं। यही नहीं पार्टी ने हाल ही के विधानसभा चुनावों में उनकी विभिन्न राज्यों में प्रेस कांफ्रेंस भी आयोजित करवाई थीं। मनमोहन नोटबंदी को अर्थव्यवस्था पर बड़ा आघात, जीएसटी के वर्तमान प्रारूप को खराब बता चुके हैं और नरेंद्र मोदी पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि मैं चुप भले रहता था लेकिन मीडिया से बात करने में घबराता नहीं था। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद से नरेंद्र मोदी ने कोई संवाददाता सम्मेलन आयोजित नहीं किया है इसके लिए विपक्ष उन पर हमलावर रहता है।


कर्जमाफी की बढ़ गयी होड़

 

बनते बिगड़ते इन समीकरणों के सहारे कौन सा दल या कौन सा गठबंधन 2019 में बाजी मारेगा इसका पता तो मई 2019 में ही चलेगा लेकिन जिस तरह तीन राज्यों में कांग्रेस की ओर से किसानों की कर्जमाफी की गयी है उससे सीख लेते हुए भाजपा की राज्य सरकारों ने भी कदम बढ़ाने शुरू कर दिये हैं। गुजरात की विजय रूपाणी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने मंगलवार को ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले 6 लाख उपभोक्ताओं का 625 करोड़ रुपये का बकाया बिजली बिल माफ करने का ऐलान किया। एकमुश्त समाधान योजना के तहत यह बकाया माफ किया गया है। उधर असम की भाजपा सरकार ने 600 करोड़ रुपये के कृषि कर्ज माफ करने को मंजूरी दे दी है। इससे राज्य में आठ लाख किसानों को लाभ होगा। असम सरकार के प्रवक्ता और संसदीय मामलों के मंत्री चंद्र मोहन पटवारी ने कहा कि योजना के तहत सरकार किसानों के 25 प्रतिशत तक कर्ज बट्टे खाते में डालेगी। इसकी अधिकतम सीमा 25,000 रुपये है। इस माफी में सभी प्रकार के कृषि कर्ज शामिल हैं। ओडिशा में तो भाजपा ने ऐलान कर दिया है कि राज्य की सत्ता मिली तो किसानों का कर्ज माफ करेंगे। 

 

 

बहरहाल, यहाँ कुछ सवाल उठने लाजिमी हैं जैसे कि क्या इस तरह की माफी ही समस्याओं का वास्तविक हल है? क्या एक बार की कर्जमाफी के बाद किसानों की भविष्य की सभी समस्याएं हल हो जाएंगी? और क्या किसानों को नये कर्ज की माफी के लिए अगले चुनावों का इंतजार करना होगा? क्या इस तरह की कर्जमाफी करदाताओं के पैसे की बर्बादी नहीं है? क्या इस तरह की कर्जमाफी से हमारी बैंकिंग व्यवस्थाएं और अर्थव्यवस्था सही ढंग से काम कर पाएंगी? सवाल तो कई हैं लेकिन नेताओं को पता है कि जैसे-जैसे चुनाव करीब आएंगे ऐसे गंभीर सवाल क्षेत्रवाद, जातिवाद, धार्मिक उन्माद, राष्ट्रवाद की भावनाओं आदि के उभार में दब जाएंगे।

 

-नीरज कुमार दुबे

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