Gyan Ganga: रामचरितमानस- जानिये भाग-22 में क्या क्या हुआ

By आरएन तिवारी | Jun 20, 2025

श्री रामचन्द्राय नम:


पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥


सोरठा :

लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु।

बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥


भावार्थ:-यद्यपि शिवजी ने बहुत बार समझाया, फिर भी सतीजी के हृदय में उनका उपदेश नहीं बैठा। तब महादेवजी मन में भगवान्‌ की माया का बल जानकर मुस्कुराते हुए बोले-॥

 

चौपाई :

जौं तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥

तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥


भावार्थ:-

जो तुम्हारे मन में बहुत संदेह है तो तुम जाकर परीक्षा क्यों नहीं लेती? जब तक तुम मेरे पास लौट आओगी तब तक मैं इसी बड़ की छाँह में बैठा हूँ॥


जैसें जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥

चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बेचारु करौं का भाई॥


भावार्थ:-

जिस प्रकार तुम्हारा यह अज्ञानजनित भारी भ्रम दूर हो, (भली-भाँति) विवेक के द्वारा सोच-समझकर तुम वही करना। शिवजी की आज्ञा पाकर सती चलीं और मन में सोचने लगीं कि भाई! क्या करूँ (कैसे परीक्षा लूँ)?

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इहाँ संभु अस मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना॥

मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥


भावार्थ:-

इधर शिवजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि दक्षकन्या सती का कल्याण नहीं है। जब मेरे समझाने से भी संदेह दूर नहीं होता तब (मालूम होता है) विधाता ही उलटे हैं, अब सती का कुशल नहीं है॥

 

होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥

अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥


भावार्थ:-

जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा विस्तार बढ़ावे। मन में ऐसा कहकर शिवजी भगवान्‌ श्री हरि का नाम जपने लगे और सतीजी वहाँ गईं, जहाँ सुख के धाम प्रभु श्री रामचंद्रजी थे॥


दोहा :

पुनि पुनि हृदयँ बिचारु करि धरि सीता कर रूप।

आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥


भावार्थ:-

सती बार-बार मन में विचार कर सीताजी का रूप धारण करके उस मार्ग की ओर आगे होकर चलीं, जिससे (सतीजी के विचारानुसार) मनुष्यों के राजा रामचंद्रजी आ रहे थे॥

 

चौपाई :

लछिमन दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥

कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥


भावार्थ:-

सतीजी के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मणजी चकित हो गए और उनके हृदय में बड़ा भ्रम हो गया। वे बहुत गंभीर हो गए, कुछ कह नहीं सके। धीर बुद्धि लक्ष्मण प्रभु रघुनाथजी के प्रभाव को जानते थे॥

 

सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥

सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥


भावार्थ:-

सब कुछ देखने वाले और सबके हृदय की जानने वाले देवताओं के स्वामी श्री रामचंद्रजी सती के कपट को जान गए, जिनके स्मरण मात्र से अज्ञान का नाश हो जाता है, वही सर्वज्ञ भगवान्‌ श्री रामचंद्रजी हैं॥

 

सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥

निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥


भावार्थ:-

स्त्री स्वभाव का असर तो देखो कि वहाँ उन सर्वज्ञ भगवान्‌ के सामने भी सतीजी छिपाव करना चाहती हैं। अपनी माया के बल को हृदय में बखानकर, श्री रामचंद्रजी हँसकर कोमल वाणी से बोले॥

 

जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥

कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥


भावार्थ:-

पहले प्रभु ने हाथ जोड़कर सती को प्रणाम किया और पिता सहित अपना नाम बताया। फिर कहा कि वृषकेतु शिवजी कहाँ हैं? आप यहाँ वन में अकेली किसलिए फिर रही हैं?॥

 

दोहा :

राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु।

सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु॥


भावार्थ:-

श्री रामचन्द्रजी के कोमल और रहस्य भरे वचन सुनकर सतीजी को बड़ा संकोच हुआ। वे डरती हुई (चुपचाप) शिवजी के पास चलीं, उनके हृदय में बड़ी चिन्ता हो गई॥

 

चौपाई :

मैं संकर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥

जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥


भावार्थ:-

कि मैंने शंकरजी का कहना न माना और अपने अज्ञान का श्री रामचन्द्रजी पर आरोप किया। अब जाकर मैं शिवजी को क्या उत्तर दूँगी? (यों सोचते-सोचते) सतीजी के हृदय में अत्यन्त भयानक जलन पैदा हो गई॥1॥

 

जाना राम सतीं दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥

सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥


भावार्थ:-

श्री रामचन्द्रजी ने जान लिया कि सतीजी को दुःख हुआ, तब उन्होंने अपना कुछ प्रभाव प्रकट करके उन्हें दिखलाया। सतीजी ने मार्ग में जाते हुए यह कौतुक देखा कि श्री रामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी सहित आगे चले जा रहे हैं। इस अवसर पर सीताजी को इसलिए दिखाया कि सतीजी श्री राम के सच्चिदानंदमय रूप को देखें, वियोग और दुःख की कल्पना जो उन्हें हुई थी, वह दूर हो जाए तथा वे प्रकृतिस्थ हों।॥

 

फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर बेषा॥

जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥


भावार्थ:-

तब उन्होंने पीछे की ओर फिरकर देखा, तो वहाँ भी भाई लक्ष्मणजी और सीताजी के साथ श्री रामचन्द्रजी सुंदर वेष में दिखाई दिए। वे जिधर देखती हैं, उधर ही प्रभु श्री रामचन्द्रजी विराजमान हैं और सुचतुर सिद्ध मुनीश्वर उनकी सेवा कर रहे हैं॥

 

देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥

बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥


भावार्थ:-

सतीजी ने अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु देखे, जो एक से एक बढ़कर असीम प्रभाव वाले थे। उन्होंने देखा कि भाँति-भाँति के वेष धारण किए सभी देवता श्री रामचन्द्रजी की चरणवन्दना और सेवा कर रहे हैं॥


दोहा :

सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप।

जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥


भावार्थ:-

उन्होंने अनगिनत अनुपम सती, ब्रह्माणी और लक्ष्मी देखीं। जिस-जिस रूप में ब्रह्मा आदि देवता थे, उसी के अनुकूल रूप में उनकी ये सब शक्तियाँ भी थीं॥


शेष अगले प्रसंग में -------------


राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे ।

सहस्रनाम तत्तुल्यं, रामनाम वरानने ॥


- आरएन तिवारी

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