बदलाव भले ही निश्चित न हो, आधी आबादी का प्रतिनिधित्व जरूरी है

By प्रभासाक्षी न्यूज नेटवर्क | Mar 17, 2019

नयी दिल्ली। लोकसभा चुनाव करीब हैं और महिला आरक्षण का मुद्दा जोर-शोर से उठ रहा है। बीजद ने लोकसभा चुनावों में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण का ऐलान किया है वहीं तृणमूल कांग्रेस 41 प्रतिशत महिलाओं को टिकट देने की बात कह रही है। कांग्रेस सत्ता में आने पर महिला आरक्षण विधेयक पारित कराने का वादा कर चुकी है। इस मुद्दे पर पेश हैं महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली ‘ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वीमेन्स ऑफ एसोसिएशन’ की सचिव एवं भाकपा माले की पोलित ब्यूरो की सदस्य कविता कृष्णन से पांच सवाल और उनके जवाब: 

प्रश्न : महिला आरक्षण विधेयक एक बार फिऱ राजनीतिक एजेंडा के तौर पर उभरा है, इसके क्या मायने हैं?

उत्तर : पार्टियों की यह घोषणा स्वागत योग्य है लेकिन यह केवल घोषणा तक सीमित नहीं रहना चाहिए। इसे सर्वमान्य नियम बनाने की लंबे समय से चली आ रही मांग पूरी होनी चाहिए। केंद्र में पूर्ण बहुमत पाने वाली भाजपा की सरकार रही जो इस विधेयक को आसानी से पारित करा सकती थी लेकिन इस ओर ध्यान नहीं दिया गया। सरकार में ऐसे लोग हैं जो पूर्व में कह चुके हैं कि महिलाओं को स्वतंत्र होना ही नहीं चाहिए। यह महज फ्रिंज मानसिकता नहीं है बल्कि धीरे-धीरे मुख्यधारा में इन विचारों को लाया जा रहा है। ऐसे में अगर पार्टियां एकजुट होकर इस विधेयक को पारित कराने की दिशा में काम करती हैं तो इस मानसिकता को फलने-फूलने से रोका जा सकता है।

 

प्रश्न : महिला मतदाताओं की संख्या बहुत बढ़ी है। क्या चुनावी माहौल में ऐसी घोषणाएं महिलाओं को लुभाने भर के लिए हैं?

उत्तर : लुभाने या नहीं लुभाने का सवाल नहीं है। असल मुद्दा तो यह है कि महिलाओं का प्रतिनिधत्व हो। पार्टियां जो कह रही हैं वह कर के दिखा दें तो आधी जीत वहीं हो जाएगी। अगर इससे चुनावी फायदा होता है तो हो, हमें इस पर कोई ऐतराज नहीं है। 

 

प्रश्न : पार्टियां महिलाओं के लिए आरक्षण की घोषणा कर रही हैं। कांग्रेस सत्ता में आने पर महिला आरक्षण विधेयक पारित करने की बात कह रही है। आखिर अब तक इसे पारित कराने में क्या दिक्कत थी?

उत्तर : पहले की सरकारों में विरोध के तीखे स्वर रहे हैं। संप्रग सरकार के पास भी बहाना था कि अन्य दल इसका विरोध कर रहे हैं। लेकिन पूर्ण बहुमत वाली सरकार के लिए तो इसे पारित कराना आसान था। अब जबकि यह मुद्दा एक बार फिर राजनीतिक एजेंडा में शामिल हो गया है तो इस बार कोई भी सरकार आए, उस पर इस विधेयक को पारित कराने का दबाव तो रहेगा ही।

 

प्रश्न : अभी संसद में महज 12 फीसदी महिला सदस्य हैं। उनकी संख्या बढ़ जाने पर किस तरह के बदलाव देखने को मिल सकते हैं?

उत्तर : बदलाव के बारे में तो निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता। यह दावा भी नहीं किया जा सकता कि रातों-रात महिलाओं की स्थिति सुधर जाएगी। हो सकता है कि कोई बड़े बदलाव न हों लेकिन आधी आबादी का प्रतिनिधित्व सबसे महत्त्वपूर्ण है और इस एक खास बात के लिए इस विधेयक का पारित होना जरूरी है। पार्टियों के दोहरे मापदंड नहीं चलेंगे और अब धीरे-धीरे विरोधी तेवर भी कम हुए हैं तो जवाबदेहीतय करनी ही होगी। ऐसी सरकार, जो खुल कर महिला स्वायत्तता को धता बता रही है, उससे लड़ना होगा ताकि लोकतंत्र एवं लोकतंत्र में महिलाओं के संवैधानिक अधिकार जीवित रह सकें।

 

प्रश्न : महिला मुद्दों पर चुनाव लड़ सकते हैं, उनके लिए लाई गई योजनाओं का जबर्दस्त प्रचार कर सकते हैं, आर्थिक आधार पर रातों-रात आरक्षण की व्यवस्था कर सकते हैं तो सिर्फ महिलाओं को आरक्षण देने से गुरेज क्यों ?

उत्तर : महिला मुद्दों पर कहां चुनाव हो रहे हैं? महिलाओं के असल मुद्दों की बात तो कई कर नहीं रहा । श्रम बल में महिलाओं की संख्या सबसे कम है। नोटबंदी में सबसे ज्यादा नौकरियां उनकी गईं। उन्हें न्यूनतम मजदूरी नहीं मिल रही। जहां वे काम कर रही हैं वहां मातृत्व अवकाश को लेकर तथा क्रेच से जुड़ी तमाम परेशानियों की वजह से उनकी नौकरियां छूट रही हैं। आरक्षण का एकमात्र आधार सामाजिक उत्पीड़न है जिसकी महिलाएं शिकार हैं न कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग। आर्थिक आधार पर आरक्षण देना सामंती कदम है जो कि उठाना आसान है। लेकिन महिलाओं को आरक्षण देना सामंतवाद विरोधी कदम है जिसे उठाना मुश्किल है। 

 

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