उचित काम करने का उचित समय (व्यंग्य)

By संतोष उत्सुक | Apr 28, 2025

किसी काम को करने के लिए कोई भी समय, उचित समय होता है लेकिन पर्यावरण के मोहल्ले की साफ़ सफाई करने का उचित समय पर्यावरण दिवस के दिन ही होता है। साफ़ सुथरे कपडे पहनकर, एप्रिन लगाकर, दस्तानों में हाथ डालकर, सिर पर टोपी फंसाकर, जोर और शोर से साफ सफाई की जाती है। इस दिन समारोह ज़रूर होना होता है। बिना समारोह, बिना फोटो, बिना खबर छपवाए ही साफ़ सफाई हो जाए तो उचित नहीं मान सकते। पर्यावरण की तरह, वातावरण को साफ़ करने का भी उचित दिन और समय होता है।


वातावरण में नवनिर्माण जारी रहता है। मूर्तियां वातावरण का ज़रूरी हिस्सा हो चुकी हैं। ईंट, पत्थर, लोहे, तांबे और प्लास्टिक की मूर्तियां बढ़ती जा रही हैं। यह प्रशंसनीय है कि इस विकास के कारण मानवीय मूर्तियों को भी काफी काम मिल रहा है। उचित समय पर भरपूर लग्न से काम किया जाता है ताकि उचित नाम भी मिलता रहे। हमारी अनेक सामाजिक संस्थाएं निर्णय लेते हुए असमंजस में रहती हैं कि वार्षिक शिड्यूल में अगला उचित कार्यक्रम क्या किया जाए। इस सन्दर्भ में शहर में लगी, बदरंग हुई, उखड़े सीमेंट, पक्षियों की बीट लगी, धूल, मिटटी, कूड़ा कचरा सहती महाव्यक्तियों की उदास मूर्तियां, प्रेरणा का उचित स्रोत हो सकती हैं। हमारे यहां महाव्यक्तियों के जन्म या अवसान दिवस के अवसर पर, प्रेरणा लेने की राष्ट्रीय सांस्कृतिक परम्परा भी है। 

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काफी हाउस के सामने खड़े खड़े प्रेरणा बैठक कर ली गई जिसमें विचार किया कि फलानी जगह पार्क की दुर्दशा हो रही है। कुछ ही दिन बाद पार्क में लगी मूर्त व्यक्ति की जयन्ती है। इस उचित अवसर पर पार्क की सुध लेने के लिए गोद ले लिया जाए। शुभ काम में देरी नहीं की जाती। लंबे समय से बदहाल चल रहे पार्क की ज़मीन को समतल करवाने, वहां फेंका कूड़ा कचरा उठवाकर उचित स्थान पर ठिकाने लगवाने, चार दीवारी पर रंग रोगन पुतवाने का नैतिक कार्य शुरू किया जाता है। यह पुण्य कार्य जयंती से एक दिन पहले ही करवा दिया जाता है ताकि उस दिन वहां आने वालों के साथ साथ मूर्ति को भी बेहतर लगे।  


आयोजन छोटा हो या बड़ा, गोल हो या चौकोर, संस्था ने मूर्ति क्षेत्र की मरम्मत और साफ़ सफाई के बहाने अपना भी एक सामाजिक प्रोजेक्ट पूरा कर लिया। इस महत्त्वपूर्ण अवसर पर, परम्परा अनुसार अध्यक्ष के उचित उदगार प्रकट होने आवश्यक थे। वह बात अलग थी कि सार्वजनिक जीवन में उन्होंने ऐसा बहुत कम बार किया था फिर भी उन्होंने बड़ी संजीदगी से ऐसा किया और डेढ़ दर्जन माइक्स के सामने कहा, ‘हमारे क्लब द्वारा सुधारे परिसर में लगी मूर्ति की शिक्षाएं, माफ़ करें जिनकी मूर्ति है, इस बार वे उनका नाम भी भूल गए, फिर भी उन्होंने संभाल लिया, बोले ‘उन महान आत्मा की शिक्षाएं आज भी बेहद प्रासंगिक है और हमारे समाज के लिए लाभकारी हैं। हम सभी को उनका अनुसरण करना चाहिए।‘ 


संभवत उन्हें पता न चल पाया कि उन्होंने क्या कहा लेकिन मूर्ति को ज़रूर अच्छा और उचित लगा। यह तारीफ़ के काबिल है कि इंसानों के सदव्यवहार से अब मूर्तियां भी खुश रहने लगी हैं। वातावरण और पर्यावरण ने पक्की दोस्ती कर ली है। उचित समय पर, उचित तरीके से किया गया, उचित कार्य सभी पसंद करते हैं।    


- संतोष उत्सुक

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