मकान मालिक की व्यथा (व्यंग्य)

By डॉ मुकेश असीमित | Jul 17, 2025

सच पूछें तो आज के ज़माने में सबसे कठिन काम है मकान मालिक बनना। शादी में 36 गुण नहीं मिलें तो चल जाता है, पर मकान मालिक और किरायेदार के बीच तो हमेशा 36 का आंकड़ा रहता है। कहते हैं ना कि आपके किए का फल इसी जन्म में मिलता है। इसी कारण "क्योंकि सास भी कभी बहू थी" की तर्ज़ पर जो आज मकान मालिक है, वो कभी किरायेदार भी रहा होगा। जिस प्रकार आपने किरायेदार रहते हुए अपने मकान मालिक की नाक में दम कर दिया था, उसी का बदला भगवान आपको इसी जन्म में मकान मालिक बनाकर लेता है।


पता नहीं कब हमारे भाग्य में शुक्र ग्रह अतिक्रमण करके मेष राशि की कुंडली में बैठ गया कि हमें एक विला बनाने का शौक चढ़ा। इस शौक को चढ़ाने में कुछ मेरे यार भी थे, जो “चढ़ जा बेटा सूली पे, तेरा भला करेंगे राम” की तर्ज़ पर पूरा योगदान दे रहे थे। अगर किसी को बर्बाद करके अपनी जल-कुकड़े वाली जलन मिटानी हो, तो उसे या तो राजनीति में आने की सलाह दे दो, या मकान किराये पर देने की।

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मकान मालिक की पदवी पाने की खुजली ऐसी थी कि आनन-फानन में मकान बनाने का ठेका हमने अपने ही एक परिचित को दे डाला। हमने भी रिश्तेदारी की मर्यादा निभाते हुए उनके रहमो-करम पर पूरा निर्माण छोड़ दिया—न कोई लिखापढ़ी, न कोई शर्तें, न कोई नियम, और न ही बाज़ार की निर्माण दर का कोई अंदाज़ा। उन्होंने भी इस रिश्तेदारी की आड़ का भरपूर लाभ उठाया। मेरे मकान के एवज में उन्होंने अपने पाँच साल की रोटी-पानी का जुगाड़ कर लिया। इधर हमारा मकान अभी नींव के ऊपर थोड़ा सा ही उठ पाया था कि उधर उनका खुद का मकान बनकर गृह प्रवेश के लिए तैयार हो गया। हमें तो पता तब चला जब उनके गृह प्रवेश का निमंत्रण मिला।


हम उनसे विनती करते रहे कि भाई, हमारे मकान की छत भी डलवा दो, लेकिन वो अपनी व्यस्तता की दुहाई देते रहे। और जब पानी सर से ऊपर गुजर गया, तो एक दिन ताव में आकर हमारे ऊपर ही पिल पड़े। उन्होंने हमारे रिश्तों के धर्म को न निभाने का आरोप लगाते हुए, और अपनी निजी व्यस्तता में खलल डालने के दंडस्वरूप, हमारे मकान निर्माण को बीच मझधार में छोड़ अंतर्ध्यान हो गए।


हारकर हमने किसी अन्य ठेकेदार का जुगाड़ करके जैसे-तैसे मकान को पूरा किया। मकान में रंग-रोगन करवाकर जल्दी से थोड़ा-बहुत पूजा-पाठ करवाया। हमें जल्दी थी ‘मकान मालिक’ का तमगा पाने की। बस फिर क्या था—हमने अपने जितने भी घोड़े थे, वो किरायेदारों को पकड़ने के लिए दौड़ा दिए। सच में ऐसा लग रहा था जैसे कोई पिता अपनी बेटी के रिश्ते के लिए लड़का दिखा रहा हो। जब भी कोई किरायेदार मकान देखने आता, उससे पहले हम मकान का झाड़ू-पोंछा करवाते, वॉशरूम की सफाई करवाते, नल-बिजली दुरुस्त करवाते ताकि कोई कमी न दिखे और किरायेदार मकान रिजेक्ट न कर दे।


खैर, जैसे-तैसे एक परिवार को मकान पसंद आ भी गया। हमारी बांछें शरीर में जहां भी थीं, सब एक साथ खिल उठीं। इससे पहले भी हमने कई लोगों को मकान दिखाया था, और जो भी एटीट्यूड एक मकान मालिक दिखाता है, वो सब हमने भी दिखाने की कोशिश की, लेकिन सब बेकार गया।


एडवांस की डिमांड, एक महीने की सुरक्षा राशि—ये सब हमारे मुंगेरीलाल के हसीन सपने ही रह गए। धीरे-धीरे हमने ‘मकान मालिक’ का चोला उतार फेंका और लगभग भिक्षुक की मुद्रा में आ गए। लगभग गिड़गिड़ाते हुए इस अंतिम परिवार से बोले—"कृपया मना मत करना, मेरा मकान पिछले चार महीने से रिजेक्शन पर रिजेक्शन झेल रहा है। लगता है कहीं डिप्रेशन में खुदकुशी न कर ले। कृपा करके इसमें अपने चरण रखकर इसे पवित्र कर दें।"


उन्होंने भी हमारी दयनीय दशा पर तरस खाकर किराए की रकम आधी कर दी और कुछ शर्तें भी रख दीं—ए.सी. फिट करवाना, एक फ्रिज रखना, खिड़कियों पर पर्दे लगवाना, और एक बिस्तर का इंतज़ाम करवाना आदि।


हमने उनसे किराया अग्रिम (एडवांस) देने की बात की, तो उन्होंने आँखें तरेरते हुए कहा—"क्या जी, आप मकान मालिक हैं, ये सुविधाएँ तो आपको देनी ही होंगी, तभी हम अंदर प्रवेश करेंगे।" हमने वैसा ही किया। सारी सुविधाओं से सुसज्जित करके उनका इंतज़ार करते रहे। दस दिन बीत गए। फिर एक दिन उन्होंने फोन उठाकर सूचित किया कि उन्होंने अपने दफ़्तर के पास ही एक दूसरा मकान ले लिया है। हमारी तलाश फिर से शुरू हो गई।


इस बार एक दूसरी फैमिली आई, जो मेरे ही आंचलिक क्षेत्र से थी। पता चला कि मेरे गाँव के पास की ही पड़ोसी जगह के लोग हैं। जान-पहचान निकल आई। उन्होंने इस जानकारी की एवज में अपनी शर्तों पर मकान लेना स्वीकार किया।


हम आश्वस्त हो गए कि चलो, जान-पहचान के लोग हैं, थोड़ा मकान का ख्याल तो रखेंगे। जब किराए के लिए उन्हें फोन करता हूँ तो पता लगता है कि वे अत्यंत दुखी हैं। कह रहे थे कि उनकी सात पुश्तों में भी किसी ने ऐसे टटभइये मकान में शरण नहीं ली थी। उनके अनुसार मकान ‘पनौती’ है। बोले—“इस मकान में घुसते ही बेटी बीमार पड़ गई, डेढ़ लाख रुपये लग गए इलाज में। कभी नल टूट जाता है, कभी किवाड़। मॉड्यूलर किचन के दराज ढीले हो गए, फ्रिज की बत्ती जलने लगी, पानी की टंकी लीक कर रही है।”


एक बार तो उन्होंने अपना टैलेंट दिखाते हुए पड़ोसी से झगड़ा कर लिया और आपस में रिपोर्ट लिखवा दी। पीड़ित पक्ष के रूप में मेरा नाम पुलिस स्टेशन में दर्ज करवा दिया। बड़ी मुश्किल से थाने में जाकर मामला सुलझाया।


वैसे भी हम मकान देखने जाते ही नहीं, क्योंकि मकान की दुर्दशा देखी नहीं जाती। अगर देखेंगे तो खून के आँसू रोते रहेंगे और कहीं एनीमिया का शिकार न हो जाएँ। चूंकि जान-पहचान के लोग हैं, तो उनके संस्कार भी हमारे जैसे ही हैं—जैसे बेटी के घर का खाना तो दूर, पानी भी पीना उचित नहीं मानते। इसी कारण वे हमें कभी पानी-नाश्ते की पूछताछ की ज़रूरत नहीं समझते। क्योंकि मकान तो हमने उन्हें कन्यादान स्वरूप भेंट कर ही दिया है, अब हम कौन होते हैं बीच में बोलने वाले?


वे जैसे मकान को रखते हैं, उसी के अनुसार उनके पदवी की अदला-बदली हो जाती है। एक बार गलती से मकान में घुस गए थे, और वे स्वयं काम पर गए हुए थे। पीछे उनकी गृहस्वामिनी और बच्चे थे। उनके कुछ रिश्तेदार भी आए हुए थे। पूरे मकान को धर्मशाला का सुंदर रूप प्रदान कर दिया गया था। अतिरिक्त पलंग बिछा रखे थे, जिनके लोहे के पाए फर्श पर घसीट-घसीटकर चित्रकारी कर चुके थे। उनके बच्चों ने ड्रॉइंग क्लास का पूरा होमवर्क दीवारों पर उकेर रखा था। वॉशरूम को उन्होंने एडवेंचर पार्क बना रखा था—मेरा मतलब, चिकना और फिसलन भरा।


एक बार जब उनके किराए के दिव्य दर्शन हमारे बैंक खाते में पूरे महीने नहीं हुए, तो हमने गुमशुदगी की तहकीकात के तहत मकान पर जाकर देखा—एक दूसरी फैमिली पूरे मकान में जमी हुई थी! पता लगा कि वे खुद अपने गाँव में एक घर की शादी में एक महीने के लिए गए हुए हैं, और इधर खुद ‘मकान मालिक’ की पदवी धारण कर किसी और को मकान किराए पर दे दिया गया है।


बस फिर क्या था—हम पूरी तरह घिघिया गए। भगवान से प्रार्थना करने लगे—"हे प्रभु! फिर कभी हमें मकान मालिक मत बनाना! बस अभी इस संकट से उबार दो।"


हमने उन्हें बख्श दें की गुहार लगाते हुए मकान खाली करने की विनती की, तो उन्होंने एग्रीमेंट का हवाला देते हुए हमें ही डाँट दिया—"अभी एक महीना बाकी है एग्रीमेंट में।"


दस महीने हो चुके हैं। एग्रीमेंट को पूरा होने में अभी एक महीना और बचा है। अब थोड़ी-सी धाक-पकड़ हो रही है कि कहीं मकान पर कब्जा न कर लें, गुंडे बुलाकर हमें धमकी न दे दें।


मकान की हालत देखी नहीं जाती—बिलकुल वैसे ही जैसे बेटी को विदा कर ससुराल भेज दिया हो, और फिर वहाँ की सूरत-ए-हाल देख कर रोने के सिवा कोई चारा न हो। मकान भी अब पराए घर का धन हो गया है। उसकी हालत देख बस आँखें भर आती हैं।


– डॉ मुकेश असीमित

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