By नीरज कुमार दुबे | Jul 22, 2025
हिरासत में प्रताड़ना और मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों को लेकर समय-समय पर गंभीर सवाल उठते रहे हैं। ऐसा ही एक मामला जम्मू-कश्मीर से सामने आया है जहां एक पुलिस कांस्टेबल के साथ कथित रूप से हुए अत्याचार के मामले में देश की सर्वोच्च अदालत ने कठोर रुख अपनाते हुए राज्य प्रशासन और पुलिस व्यवस्था की कार्यप्रणाली पर गहरा प्रश्नचिह्न खड़ा किया है। हम आपको बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा स्थित ज्वाइंट इंटरोगेशन सेंटर (संयुक्त पूछताछ केंद्र) में एक पुलिस हेड कांस्टेबल के साथ हिरासत के दौरान कथित रूप से किए गए अमानवीय अत्याचार की जांच के लिए सीबीआई को आदेश दिया है। साथ ही जम्मू-कश्मीर प्रशासन को पीड़ित कांस्टेबल को 50 लाख रुपये मुआवजा देने का निर्देश भी दिया गया है।
हम आपको बता दें कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने न सिर्फ तत्काल प्रभाव से इस मामले की स्वतंत्र जांच के आदेश दिए हैं, बल्कि आरोपी अधिकारियों की गिरफ्तारी का भी निर्देश जारी किया है। अदालत ने साफ कहा है कि इस पूरे मामले में सितंबर 2025 तक जांच की प्रगति रिपोर्ट कोर्ट के समक्ष पेश की जाए।
हम आपको बता दें कि याचिकाकर्ता के अनुसार, वह फरवरी 2023 में बारामूला में हेड कांस्टेबल के पद पर तैनात था। उस समय उसे वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी) के समक्ष पेश होने का निर्देश दिया गया। चूंकि उसकी पूर्व में तैनाती कुपवाड़ा में रही थी, इसलिए उसे इसमें कुछ असामान्य नहीं लगा और वह पेश हो गया। लेकिन, कांस्टेबल का आरोप है कि 20 से 26 फरवरी 2023 के बीच उसे कुपवाड़ा के संयुक्त पूछताछ केंद्र में बंधक बनाकर बेहद क्रूरता से प्रताड़ित किया गया। उसके साथ मारपीट, बिजली के झटके, निजी अंगों में मिर्च पाउडर डालने जैसी अमानवीय हरकतें और जननांगों को क्षति पहुंचाने जैसे हैवानियतपूर्ण कृत्य किए गए। याचिका में बताया गया कि उसकी हालत इतनी गंभीर हो गई थी कि अस्पताल में उसे मृतप्राय स्थिति में भर्ती कराया गया, जहां आपातकालीन सर्जरी के जरिए उसकी जान बचाई गई।
रिपोर्टों के मुताबिक, कांस्टेबल की पत्नी ने कुपवाड़ा थाने में एफआईआर दर्ज कराने के लिए शिकायत दी, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। बाद में कानूनी नोटिस भिजवाया गया, किन्तु आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई करने की बजाय उल्टा खुद कांस्टेबल के खिलाफ आईपीसी की धारा 309 (आत्महत्या का प्रयास) के तहत मुकदमा दर्ज कर दिया गया, यह कहते हुए कि उसने पूछताछ केंद्र में आत्महत्या की कोशिश की थी।
हम आपको बता दें कि पीड़ित कांस्टेबल ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया था कि इस मामले में जम्मू-कश्मीर पुलिस की बजाय सीबीआई या विशेष जांच दल (एसआईटी) के माध्यम से निष्पक्ष जांच कराई जाए और उसके खिलाफ दर्ज एफआईआर को निरस्त किया जाए।
देखा जाये तो सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल जम्मू-कश्मीर पुलिस के कामकाज पर सवाल उठाता है, बल्कि यह सत्ता के दुरुपयोग, हिरासत में अत्याचार और फर्जी मुकदमों के खिलाफ न्यायपालिका की सक्रियता का उदाहरण भी प्रस्तुत करता है। यह फैसला भविष्य में सुरक्षा एजेंसियों के भीतर जवाबदेही तय करने, पारदर्शिता सुनिश्चित करने और नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए नजीर बन सकता है। साथ ही सुप्रीम कोर्ट का यह हस्तक्षेप संदेश देता है कि कानून के नाम पर किसी भी स्तर पर अत्याचार या मानवाधिकार उल्लंघन सहन नहीं किया जाएगा, चाहे वह राज्य का कोई कर्मचारी ही क्यों न हो।
बहरहाल, अदालत के फैसले के बाद अब इस मुद्दे पर राजनीति भी शुरू हो गयी है। पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने जम्मू-कश्मीर के सभी संयुक्त पूछताछ केंद्रों (जेआईसी) में व्यवस्थित सुधार किए जाने का आह्वान किया है। महबूबा मुफ्ती ने सोशल मीडिया मंच ‘एक्स’ पर लिखा, ‘‘एक व्यक्ति को इतनी बेरहमी से प्रताड़ित किया गया कि उसके गुप्तांगों को क्षत-विक्षत कर दिया गया। यह जम्मू-कश्मीर में हिरासत में दुर्व्यवहार की भयावहता को दर्शाता है। सीबीआई जांच, गिरफ्तारी और 50 लाख रुपये के मुआवजे का उच्चतम न्यायालय का आदेश काफी समय से लंबित कदम है।’’ पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा, ‘‘यह कोई अपवाद नहीं है और सभी संयुक्त पूछताछ केंद्रों में व्यवस्थागत सुधार एवं जांच की तत्काल आवश्यकता है।’’