By अभिनय आकाश | Dec 30, 2025
पिछले तीन दशकों में वैश्विक आतंकवाद ने जिस तरह अपना स्वरूप बदला है, उसकी जड़ें ‘ख़िलाफ़त’ की अवधारणा और ग्लोबल जिहाद के फैलते नेटवर्क में छिपी हैं। अल-कायदा के बिखरे हुए फ्रैंचाइज़ मॉडल से लेकर आईएसआईएस के ज़मीन पर अपना राज्य खड़ा करने के प्रयास तक, जिहादी आंदोलन ने रणनीति, संगठन और महत्वाकांक्षा—तीनों स्तरों पर बड़े बदलाव देखे। 9/11 के बाद अमेरिका के नेतृत्व में शुरू हुए ‘वॉर अगेंस्ट टेरर’ ने अनजाने में ऐसे सत्ता-शून्य पैदा किए, जिनका फायदा कट्टरपंथी संगठनों ने उठाया और मध्य पूर्व को हिंसा के नए दौर में झोंक दिया। लेकिन इसी वैश्विक उथल-पुथल के बीच भारत एक अपवाद बनकर सामने आया। दुनिया की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादियों में से एक होने के बावजूद, भारत अल-कायदा और आईएसआईएस जैसे संगठनों का मज़बूत गढ़ नहीं बन सका। यह लेख इसी विरोधाभास को समझने की कोशिश करता है।
पिछले तीन दशकों में वैश्विक जिहाद दो अलग-अलग लेकिन आपस में जुड़ी रणनीतियों से होकर गुज़रा है—अल-कायदा का बिखरा हुआ “फ्रैंचाइज़ मॉडल” और आईएसआईएस का ज़मीन पर अपना ‘राज्य’ बनाने का प्रयास। दोनों की वैचारिक जड़ें भले ही एक जैसी थीं, लेकिन उनकी सोच, रणनीति और नतीजे बिल्कुल अलग रहे। 9/11 के बाद अमेरिका के नेतृत्व में अफगानिस्तान और इराक में हुए युद्धों ने इन बदलावों में बड़ी भूमिका निभाई। इन युद्धों ने अनजाने में ऐसे सत्ता-शून्य पैदा किए, जिनका फायदा आतंकी संगठनों ने तेजी से उठाया। इसके बावजूद, भारत जैसे देश—जहाँ दुनिया की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादियों में से एक रहती है—अल-कायदा और आईएसआईएस जैसे संगठनों की बड़े पैमाने पर भर्ती का केंद्र नहीं बन सके। यह सवाल खड़ा करता है कि वैश्विक जिहाद की पहुँच और असर की भी अपनी सीमाएँ हैं।
ओसामा बिन लादेन के नेतृत्व में अल-कायदा ने जिहाद का एक ‘फ्रैंचाइज़ मॉडल’ खड़ा किया। इसका मतलब यह था कि संगठन खुद किसी ज़मीन या देश पर कब्ज़ा नहीं करता था, बल्कि एक ढीले-ढाले वैचारिक नेटवर्क की तरह काम करता था। यमन से लेकर उत्तरी अफ्रीका और दक्षिण एशिया तक कई स्थानीय आतंकी गुट अल-कायदा के नाम पर काम करते थे, लेकिन अपने-अपने इलाकों में स्वतंत्र रूप से ऑपरेट करते थे। अल-कायदा का उद्देश्य शासन चलाना नहीं, बल्कि बड़े और प्रतीकात्मक हमलों के ज़रिये पश्चिमी प्रभाव को कमजोर करना और व्यापक विद्रोह को भड़काना था। आईएसआईएस ने इस सोच से बिल्कुल अलग रास्ता अपनाया। इराक पर अमेरिकी हमले के बाद पैदा हुई अराजकता से उभरे आईएसआईएस ने जिहाद को सिर्फ वैश्विक हिंसा तक सीमित मानने से इनकार किया। उसने ज़मीन पर कब्ज़ा करने और शासन चलाने की कोशिश की और 2014 में ‘ख़िलाफ़त’ की घोषणा कर दी। उसका लक्ष्य केवल पश्चिम से लड़ना नहीं था, बल्कि मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था को हटाकर अपना तथाकथित इस्लामी राज्य बनाना था। टैक्स वसूली, अदालतें, प्रचार तंत्र और क्षेत्रीय प्रशासन जैसे ढाँचों के साथ यह राज्य-निर्माण मॉडल आधुनिक जिहादी आंदोलन में पहले कभी
11 सितंबर 2001 के हमलों ने वैश्विक सुरक्षा नीतियों को पूरी तरह बदल दिया। इसके बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला कर अल-कायदा के मुख्य ठिकानों को तोड़ दिया, लेकिन उसकी विचारधारा को खत्म नहीं कर सका। इससे भी ज़्यादा असर 2003 में इराक पर हुए अमेरिकी हमले का पड़ा, जहाँ मौजूदा सरकारी ढाँचे को गिरा दिया गया, लेकिन उनकी जगह कोई मज़बूत और स्थिर व्यवस्था खड़ी नहीं की गई। नतीजतन इराक में सत्ता का खालीपन पैदा हो गया, जिसे सांप्रदायिक तनाव ने और गहरा कर दिया। यही हालात कट्टरपंथी संगठनों के लिए सबसे अनुकूल साबित हुए। इसी अराजकता का सबसे बड़ा फायदा आईएसआईएस को मिला। इराक की पुरानी बाथ पार्टी से जुड़े अधिकारी, खुद को हाशिए पर महसूस करने वाले सुन्नी समुदाय और विदेशी जिहादी—सब मिलकर एक ऐसे संगठन में जुट गए जो सैन्य रूप से भी मजबूत था और वैचारिक रूप से भी आक्रामक। जहाँ अल-कायदा लंबे समय तक चलने वाले संघर्ष की कल्पना करता था, वहीं आईएसआईएस ने उसी संघर्ष को तुरंत एक ‘राज्य’ में बदलने की कोशिश की।
भारत अल-कायदा या आईएसआईएस जैसे संगठनों के लिए वैसा मुफीद ठिकाना नहीं बन पाया, जैसा मध्य पूर्व, अफ्रीका या यूरोप के कुछ हिस्से बने। इसके पीछे कई अहम कारण हैं। सबसे पहला कारण यह है कि भारतीय मुसलमान एक बहुलतावादी और लोकतांत्रिक समाज में गहराई से जुड़े हुए हैं। यहाँ की स्थानीय, सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराएँ ऐसी कट्टर वैश्विक जिहादी विचारधाराओं को स्वीकार नहीं करतीं। दूसरा, भारत में उस तरह का राज्य-ध्वंस या लंबा गृहयुद्ध नहीं हुआ, जिसका फायदा आमतौर पर जिहादी संगठन उठाते हैं। तीसरा, भारतीय इस्लाम की परंपरा ऐतिहासिक रूप से स्थानीय पहचान और आपसी मेल-जोल पर ज़ोर देती रही है। इतना ही नहीं, भारत के मुस्लिम-बहुल इलाकों में किसी बड़े विदेशी सैन्य कब्ज़े का अभाव भी एक अहम वजह है। दुनिया के अन्य हिस्सों में विदेशी सेनाओं की मौजूदगी को जिहादी संगठन कट्टरपंथ फैलाने के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं, लेकिन भारत में ऐसा माहौल न होने के कारण उनकी यह रणनीति कारगर साबित नहीं हो सकी।