By अभिनय आकाश | Jul 15, 2025
चीन की नीतियों के संदर्भ में देखें तो उसने हमेशा आक्रमक विस्तारवादी विदेश नीति को केंद्र में रखा है। यही कारण है कि बीसवीं सदी से 21वीं सदी तक चीन अपने भूभाग को बढ़ाने हेतु अंतरराष्ट्रीय नियमों की धज्जियां उड़ाने से बाज नहीं आया। 1959 में चीन की जमीन के प्रति भूख के कारण तिब्बत जैसे शांति प्रिय राष्ट्र को अपने स्वतंत्र अस्तित्व को खोना पड़ा और वहां के नागरिकों को चीन के अत्याचार के कारण दूसरे देशों में शरणार्थी बनने पर मजबूर होना पड़ा।
साल 1917 में सोवियत संघ में लेनिन के नेतृत्व में अक्टूबर समाजवादी क्रांति की जीत के बाद कम्युनिस्ट विचारधारा पूरे चीन में फैल गई। जिसके बाद चीन के विचारकों को यह लगने लगा की देश को एकीकृत करने के लिए मार्क्सवाद ही सबसे ताकतवर हथियार है। 1919 में चीन में साम्राज्यवाद और सामंतवाद के खिलाफ आंदोलन शुरू हो गया। इसी दौरान वहां मजदूर वर्ग एक बड़ी ताकत बनकर उभरा। माओ तुंग ने एक जुलाई 1921 को सीपीसी की स्थापना की थी। साल 1937 में चीन पर जब जापान ने आक्रमण कर दिया तब कम्युनिस्ट और राष्ट्रवादी सेना आपस मे मिल गई। लेकिन जापान के हारने के बाद इन दोनों के बीच गृहयुद्ध छिड़ गया। इस दौरान राष्ट्रवादी सेना पर कम्युनिस्ट सेना भारी पड़ी और 1949 में पूरे चीन पर माओत्से तुंग का शासन हो गया। 1949 में बना चीन जिसकी पहचान एक देश से ज्यादा कुछ चेहरों से होती रही। माओत्से तुंग चीन के पहले राष्ट्रपति और दुनिया के कई हिस्सों के लिए एक तानाशाह। 1 अक्टूबर 1949 को जब माओ ने चीन की आजादी की घोषणा की तो खुद को उस देश का सबसे बड़ा नेता भी घोषित कर दिया था। 27 सालों तक चले संघर्ष, विवाद और कई राजनीतिक उठापटक के बाद माउ को ये कुर्सी प्राप्त हुई थी। चीन के लोग जबतक ये समझ पाते कि उन्होंने किसे चुना है काफी देर हो चुकी थी। माओ ने सत्ता में आते ही भूमि सुधार की ऐसी योजना लेकर आए, जिसमें जमीन के मालिकों से जमीन को छीनकर लोगों में बांटा जाता था। चीन के लोगों को लगा कि इससे सभी को जमीन मिल रही है। चीन की सरकार जमीन के मालिकों या अमीर किसानों को पीट-पीटकर मार डाला जाता था और माओ की इस नीति पर कोई कुछ नहीं कहता था। चीन के आजादी के बाद शुरू हुई ये नीति 1951 तक चली। माना जाता है कि इसमें करीब 1 लाख लोगों की मौत हो गई थी।
लैंड रिफॉर्म के बाद जनवरी 1958 में ग्रेट लीप फॉरवर्ड नीति लागू की। माओ का सोचना था कि वो 15 साल में अपने देश को फैक्ट्रियों और अनाज के दम पर ब्रिटेन से भी आगे ले जाएगा। इस नीति में चीन के लोगों को मजदूर बना दिया गया। लोगों से जबरदस्ती खेती कराई गई और उन्हें टारगेट दिए गए। देश के सारे खेत सरकार के कंट्रोल में आ गए। ज्यादा अनाज पैदा करने के लालच में लगे माओ ने ये साफ कर दिया था कि खेतों में काम करने वाले लोगों को तभी खाने के लिए अनाज मिलेगा जब वो अपने काम के टारगेट पूरे करेंगे। लगातार खेतों में काम करने की नीति ने भयंकर अकाल को जन्म दिया दो 1959 से 1961 तक चला जिसमें करोड़ों लोगों की मौत हो गई।
माओ की मौत के बाद चीन में डेंग जिआओपिंग के रूप में फिर एक चेहरा सामने आया। डेंग ने आर्थिक सुधारों की नीती को 1978 में चीन में लागू किया। डेंग जिआओपिंग एक ऐसे चीनी नेता के तौर पर सामने आए जिन्होंने वक्त की नजाकत को समझते हुए सत्ता संभालने के एक वर्ष बाद ही अमेरिका का दौरा किया और कई उद्दयोगपतियों को चीन में निवेश के लिए मनाया। लेकिन साथ ही देश में भ्रष्टाचार, महंगाई और रोजगार में कमी जैसी समस्याएं भी सामने आईं। इसी दौरान चीन के लोग जब दूसरे लोकतांत्रिक देशों के संपर्क में आए तो उनमें भी लोकतंत्र के प्रति दिलचस्पी बढ़ने लगी। यही कारण है कि वहां के युवाओं में भी अब असंतोष बढ़ने लगा है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना बढ़ने लगी है। इन सबका नतीजा ये हुआ कि चीनी नागरिकों के बीच एक आंदोलन जन्म लेने लगा। 4 जून, 1989 के दिन बीजिंग के थियानमेन चौक पर चीन ने अपने ही नागरिकों के खिलाफ सेना को उतार दिया था। ये प्रदर्शनकारी चीन में लोकतांत्रिक सुधारों की मांग कर रहे थे। सेना ने इन प्रदर्शनकारियों पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। इस घटनाक्रम में कम से कम 10 हजार लोग मारे गए।
2013 में चीन में एक बार फिर एक नया चेहरा शी जिनपिंग के रूप में सामने आया। चीन में शी जिनपिंग को माओ और डेंग जिआओपिंग के बाद तीसरा सबसे बड़ा नेता माना जाता है। शी जिनपिंग के पिता माओ और डेंग जिआओपिंग के कार्यकाल में पार्टी में काफी ऊंचे पद पर कार्यरत थे। एक ऐसा व्यक्ति जिसने अपने सत्ता के दरम्यिान अपने समांतर सभी नेताओं को जेल में भेज दिया, उन्हें प्रताड़ित किया ताकि उसके चुनिंदा सिपाहसालार ही बचे और वही तमाम पदों पर बैठे हुए हैं। ऐसी स्थिति में कुछ वर्ष पहले तक कहा जाता था कि कई दशकों तक जिनपिंग को गद्दी से हटाने के लिए शायद ही कोई तैयार हो। लेकिन बीते कुछ दिनों से मीडिया रिपोर्ट कुछ औऱ ही कहानी बयां कर रही हैं।
जिनपिंग जब नजर भी आए तो बेहद सुस्त और अलग थलग दिखें। मई के आखिर में जिनपिंग की मौजूदगी एकदम से चली गई। वो न ही किसी परेड में नजर आए। न कोई भाषण दे रहें हैं और न किसी सरकारी मीडिया में दिखाई दिए। एक मीडिया रिपोर्ट की माने तो टॉप खुफिया अधिकारियों के हवाले से कहा गया है कि जिनपिंग की अनुपस्थिति में कुछ नया नहीं है। चीन में बड़े नेताओं को साइडलाइन करने का इसी तरह का इतिहास रहा है। तो क्या चीन के अंदर तख्तापवट हो रहा है। फिलहाल भले ही जिनपिंग के हाथों में सत्ता है। लेकिन पैसले लेने की ताकत कहीं और शिफ्ट होती नजर आ रही है। इसमें एक नाम सेंट्रल मिलिट्री कमीशन के फर्स्ट वाइस चेयरमैन जनरल झांग यूक्सिया का आ रहा है। माना जा रहा है कि वे और उनके समर्थक जिनपिंग से कुछ कम सख्त हैं।