कमरे की आखिरी मोमबत्ती (व्यंग्य)

By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा 'उरतृप्त' | Apr 25, 2025

ऊंचे मकान के भीतर एक छोटा सा कमरा। चार दीवारें और एक धूलभरा फर्श। इस कमरे का एक मात्र जीवंत साथी - एक मोमबत्ती। रवींद्रन, एक बत्तीस वर्षीय नौजवान, उसी मोमबत्ती की लौ में अपनी जिंदगी के अंधेरे को थोड़ा सा उजाला देने की कोशिश करता था। उसकी आँखों में अजीब सी गहराई थी, मानो उनकी भाषा में केवल पीड़ा लिखी गई हो। मोहल्ले के लोग कहते थे, "अरे, रवींद्रन, तुझे नौकरी चाहिए या दुनिया बदलने का काम?" पर उसकी खामोशी का जवाब केवल मोमबत्ती देती थी, झिलमिलाते हुए।


"जिंदगी में कितना अंधेरा है, रवींद्रन। लेकिन तुमने तो इस मोमबत्ती के साथ दोस्ती कर ली," सुदर्शन ने मजाक उड़ाया था। रवींद्रन ने मुस्कुरा कर कहा, "इस मोमबत्ती में तो मेरी पूरी जिंदगी कैद है। क्या तुमने भी अपनी जिंदगी को कभी मोमबत्ती में ढूंढ़ा है?" उसकी बातें रहस्यमयी थीं, पर सुदर्शन को उस दिन पहली बार रवींद्रन के अंदर जलते दर्द की लौ समझ आई।

इसे भी पढ़ें: पृथ्वी दिवस मनायो रे (व्यंग्य)

यह मोमबत्ती केवल मोम और धागा भर नहीं थी। यह तो एक इंसानी भावना का प्रतीक थी। हर बार जब रवींद्रन रात की खामोशी में उसे जलाता, वह मानो अपनी बातें उससे साझा करता। "तू भी खत्म हो जाएगी, जैसे मैं धीरे-धीरे खत्म हो रहा हूँ," रवींद्रन ने एक बार कहा था। उस रात, मोमबत्ती की लौ भी जैसे आँसू बहा रही थी।


मोहल्ले में कुछ बच्चे उस कमरे के बाहर खेलते थे। वे हँसते थे, गाते थे। लेकिन जब वे रवींद्रन को देखते, उन्हें लगता कि उनकी हँसी की गूँज उस कमरे की दीवारों पर टकरा कर लौट आती है। एक बच्चा, आर्यन, रवींद्रन के कमरे के पास खड़ा होकर कहा करता था, "दादा, हमें भी अंदर बुला लो, हमें भी उस मोमबत्ती की रोशनी में कुछ देखना है।" पर रवींद्रन हमेशा उन्हें एक हल्की मुस्कान देकर मना कर देता। वह जानता था कि उसकी दुनिया में किसी और को लाना अपराध जैसा होगा।


रवींद्रन ने अपनी जिंदगी का हर हफ्ता उस मोमबत्ती के साथ बिताया। लेकिन एक रात, वह अचानक गायब हो गई। पड़ोसियों ने देखा, मोमबत्ती का जलना बंद हो गया था। कुछ लोग यह मानते थे कि रवींद्रन को कोई बड़ी नौकरी मिल गई। लेकिन उसकी कहानी कहीं और लिखी जा चुकी थी। वह मोमबत्ती के साथ अपनी जिंदगी को खत्म करने की कसम खा चुका था।


एक रात, कमरे की आखिरी मोमबत्ती बुझ गई। और उसी के साथ, रवींद्रन की कहानी का अंत। उसके कमरे में केवल उसकी परछाईं बाकी थी, जो दीवारों पर टिकी हुई थी। मोहल्ले के लोग उसकी याद में रोते रहे। लेकिन वह मोमबत्ती... वह अब भी वहाँ थी, जैसे उसका दर्द कह रही हो। हर बार किसी के हाथ से जलाने के लिए तैयार, पर रवींद्रन की कहानी को कभी भूलने की कसम खाए हुए। उसकी रोशनी अब कमरे को रोशन नहीं करती, पर उसकी आत्मा को जरूर करती थी। 


कहानी खत्म। पाठकों की आँखें भीगी, दिल भारी। मोमबत्ती का दर्द, और रवींद्रन का अस्तित्व हमेशा इस दुनिया में गूँजता रहेगा। किसी कमरे में, किसी मोमबत्ती में। 


- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

प्रमुख खबरें

सोशल मीडिया बैन से वीजा जांच तक: बदलती वैश्विक नीतियां और बढ़ता भू-राजनीतिक तनाव

MGNREGA की जगह नया ग्रामीण रोजगार कानून, VB-G RAM G विधेयक संसद में पेश होने की तैयारी

ICICI Prudential AMC IPO को ज़बरदस्त रिस्पॉन्स, दूसरे ही दिन फुल सब्सक्राइब हुआ

थोक महंगाई में नरमी के संकेत, नवंबर में थोक मूल्य सूचकांक - 0.32 प्रतिशत पर पहुंची